आत्माराम त्रिपाठी
कहते हैं कि जब बच्चा रोता है तो पूरी बिल्डिंग को पता चलता है, मगर जब मां-बाप रोते हैं तो साथ वालों को भी पता नहीं चलता। यह जिंदगी का कड़वा सच व सच्चाई है। हजारों मुश्किलें सहकर मां-बाप अपने बच्चों को कामयाब करते हैं और एक दिन वे ही कामयाब बच्चे अपने मां-बाप को तन्हा छोडक़र चले जाते हैं। यह भी देखा गया है कि कुछ बच्चे तो मां-बाप के मरने पर भी नहीं पहुंचते तथा कई प्रकार के बहाने बनाकर दाह संस्कार पर भी नहीं पहुंचते।
कहानियां समाज की परछाई हैं। समाज अपनी ही गढ़ी कहानियों में जीता है। समाज और कहानियों का सहज रिश्ता जब किसी अप्रत्याशित, अयाचित घटना के चलते फिसल जाए तब विडंबना उपस्थित होती है। यह विडंबना कहानी का अंत हो सकती है, किसी नई कहानी की शुरुआत या फिर पुरानी कथा का विस्तार।
सैकड़ों में कुछ ही पुत्रवधुएं होंगी जो अपने सास-सुसर का मन से सम्मान करती हैं अन्यथा अधिकतर तो उन्हें बोझ ही समझती हैं। कभी उन्होंने सोचा कि जिस मां-बाप ने अपना सब कुछ उनके लिए न्योछावर कर दिया, आज वो रोटी के लिए भी मोहताज हैं। कई बदनसीब तो वृद्ध आश्रमों में रहकर अपनी अंतिम सांसें गिन रहे होते हैं और अन्य कई तो घर में अपने लाडलों का अंतिम सांसों तक इंतजार करते-करते अपना दम तोड़ देते हैं।
सरकार ने माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण व कल्याण के लिए वर्ष 2007 में एक अधिनियम भी बनाया जिसमें समय-समय पर संशोधन भी किए गए हंै। इसके अंतर्गत बुजुर्गों के शोषण को रोकने के लिए विशेष ट्रिब्यूनल (न्यायाधिकरण) बनाए गए हैं।
इस एक्ट के अंतर्गत 60 वर्ष व 80 वर्ष के ऊपर वाले वरिष्ठ नागरिकों व माता-पिता के शोषण के विरुद्ध क्रमश: 90 दिन व 60 दिन के अंतर्गत न्यायाधिकरणों को संज्ञान लेकर फैसला करना होगा। दोषी संतानों को न केवल जुर्माना, बल्कि एक मास तक सजा दिए जाने का प्रावधान भी है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक पुलिस स्टेशन में विशेष पुलिस यूनिट का गठन करना भी आवश्यक है तथा राज्यों को इस संबंध में हेल्पलाइन बनाने के लिए भी निर्देश दिए गए हंै। मगर ऐसे संवेदनशील मामलों को सुलझाने के लिए ऐसे एक्ट कोई ज्यादा कारगर सिद्ध नहीं हो पा रहे हैं, क्योंकि बूढ़े मां-बाप अपने विचलित व कत्र्तव्य-विमुख बच्चों के विरुद्ध कोई भी कार्रवाई नहीं करवाना चाहते। यहां पर इस उक्ति का उल्लेख करना सारगर्भित होगा : एक बार एक प्रेमिका ने अपने प्रेमी से शादी करने के लिए शर्त लगा दी कि वह उसके साथ शादी तभी करेगी जब वह अपनी मां का कलेजा निकालकर लाएगा। प्रेमी ने अपनी प्रेमिका की संतुष्टि के लिए अपनी मां का कलेजा निकाला और ले जाते समय उसे ठोकर लगी और चोटिल हो गया। मां की ममता की आवाज उसके कानों में यही शब्द कहती हुई पाई गई, ‘बेटा उठ, कहीं चोट तो नहीं लगी।’
हर ठंडी होती देह को गरमाहट की दरकार होती है। टीएस एलियट बुढ़ापे के बारे में लिखते हैं कि जाड़ों में ‘विस्मृति की बर्फ ने धरती को ढंके रखा और हमारे भीतर भरते रहा सूखे आलुओं सा थोड़ा-थोड़ा जीवन।’ कंचन इसी मामूली जीवन की आस में हर जाड़े अंतरा आ जाती थीं। यही वो गरमाहट है, जो नबनीता देव सेन की महिला किरदारों में बची हुई दिखती है (शीत साहसी हेमंतलोक/डिफाईंग विन्टर), जो अपने एकालापों और विस्मृतियों के सहारे सर्दियों को चुनौती देती हैं; जहां आग बीते जमाने की बात है जो कभी उनके भीतर हुआ करती थी, बाहर नहीं। निस्तारिणी कहती है, ‘मेरी देह बंदूक थी और मेरी आंखें घोड़ा। मेरी निगाहें निशाना साधती थीं और देह गोलियां दागती थी। इसके बाद तो चाहे कितना ही बड़ा आदमी हो, उसका ढेर हो जाना तय था’।
यह आग पहले भीतर से सुलगाती रहती थी सूखे आलुओं को, उन्हें कम से कम जिंदा रखती थी। विनीत आग का रहस्य जानने के लिए दिल्ली की अदालतों के चक्कर काट रहे हैं। उनका जवाब किसी रहस्य में नहीं है। उनकी कहानी का आगे बढ़ना संदिग्ध है। आग तो बस एक मेटाफर है। कहानी के मेटाफर का अभिधा में बदल जाना विद्रूप रचता है। यह विद्रूप आज चहुंओर है। इसकी शक्ल बस अलग-अलग है। भीतर की आग बीते तीस-चालीस बरस में बाहर आ चुकी है। अब यह जान ले रही है्।
किरदारों की शिनाख्त
अपने इर्द-गिर्द बुजुर्गों से जुड़ी हालिया खबरों को ही देखिए। आगरे में आंख के मशहूर अस्पताल के संस्थापक रहे गोपीचंद अग्रवाल की 87 वर्षीया पत्नी वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर हैं। उनके चार बेटे हैं, करोड़ों की संपत्ति है, फिर भी ये हाल है। ग्रेटर नोएडा में 73 साल की अमिया सिन्हा अपने फ्लैट में मरी पाई गईं। वे सरकारी कर्मचारी हुआ करती थीं और 1985 में ही उनका पति से तलाक हो चुका था। बेटा महज 35 किलोमीटर दूर गाजियाबाद के वैशाली में रहता है, लेकिन चार महीने से उनसे मिलने नहीं गया था। जब वह 3 अप्रैल को अपनी पत्नी और सास के साथ मां से मिलने गया, तो दरवाजा तोड़ना पड़ा। भीतर तीन हफ्ते से सड़ रही लाश बरामद हुई। हरियाणा के बुजुर्ग जगदीश चंद्र आर्य की कहानी भी ऐसी ही है। उनका पोता आइएएस अफसर है और बेटा करोड़पति, फिर भी उन्हें जहर खाकर मरना पड़ा।
मां-बाप की बच्चों के प्रति सहानुभूति, लाड-प्यार व मां की ममता की कोई तुलना नहीं की जा सकती। वो तो बच्चों के लिए अपनी जान भी कुर्बान करने के लिए तैयार रहते हैं, मगर कृतघनता की पराकाष्ठा को लाघंते हुए आजकल के बहुत से युवा-लाडले अपने आदरणीय माता-पिता की अवहेलना व तिरस्कार करते हुए पाए जा रहे हैं। इन अटूट व संवेदनशील संबंधों को सुदृढ़ बनाने के लिए बच्चों व माता-पिता तथा बुजुर्गों को निम्नलिखित आचरण पर चलने की सलाह दी जाती है : 1. बच्चों को अधिक से अधिक समय अपने माता-पिता के साथ व्यतीत करना चाहिए तथा उनके अहसानों को कभी भी नहीं भूलना चाहिए। जो व्यक्ति आपके मल मूत्र को साफ करते थे, उनके प्रति जिम्मेदारियां समझनी चाहिए। 2. उनकी आत्मा व हृदय को मन, वचन, कर्म और धर्म से किसी भी प्रकार की चोट नहीं पहुंचानी चाहिए। 3. उनसे ऊंची आवाज में बात न करें तथा उनकी कभी भी बुराई नहीं करनी चाहिए, और न ही किसी अन्य सदस्य को करने दें। 4. अपने मन को नियंत्रण में रखते हुए उनकी हर अच्छी व बुरी आदत का सत्कार करें। 5. न ही अपनी पत्नी को अपने माता-पिता के सामने और न ही माता-पिता को पत्नी के सामने डांटें। 6. पत्नी व माता-पिता में समन्वय बनाने की कोशिश करें और अपना रोल एक जानदार व्यक्ति के रूप में निभाएं। 7. उनके अनुभव और दुनियादारी की समझ की सीख को दबाव नहीं समझना चाहिए। 8. चाणक्य की इस उक्ति को कभी मत भूलें कि पृथ्वी से भारी तथा आसमान से ऊंचा माता एवं पिता की ममता व स्नेह होता है। जहां एक तरफ बच्चों के अपने माता-पिता के प्रति कुछ कत्र्तव्य हैं, वहीं दूसरी तरफ मां-बाप को भी अपने बच्चों के प्रति अपनी परपक्व जिम्मेदारी समझनी चाहिए।
- जब तक जिंदा हैं, आत्मनिर्भर रहने का प्रयास करें तथा किसी पर निर्भर रहने की आदत को कम करें।
- बच्चों से ज्यादा उम्मीद न लगाएं क्योंकि वे अपनी जिंदगी में बच्चों के कारण वैसे ही बहुत व्यस्त होते हैं। बिना वजह की दखलअंदाजी न करें।
- इच्छा रहित बनें तथा लोभ, लिप्सा व वासना से दूर रहें।
- अधिकार की प्रकृति को कम करें तथा किसी बिना वजह से निंदा न करें। पैसा कमाते-कमाते बुढ़ापा भी गुजर जाएगा तथा आखिर में समझ आएगा कि जो कमाया वह किसी भी काम का नहीं है। जो पुण्य किया उसी का लाभ होगा। बुढ़ापे में चिंतामुक्त होकर अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करें। गीता में लिखा है कि जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है तथा पुनर्जन्म भी निश्चित होता है। इसलिए दिल-दिमाग को चुस्त-दरुस्त रखते हुए स्वस्थ जीवन व्यतीत करें। हमारा जीवन विधाता की दी हुई एक अनमोल भेंट है। कहते हैं कि 84 लाख योनियों में मानव शरीर सबसे बड़ी उपलब्धि है तथा हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम इस जीवन को भरपूर आनंद के साथ जीएं। कहा भी गया है कि ‘जिंदगी अपने दम पर ही जी जाती है, दूसरों के कन्धों पर तो सिर्फ जनाजे उठाए जाते हैं।’ जिंदगी तो एक प्यार का गीत है जिसे हर दिल को गाना पड़ेगा। इसी तरह जिंदगी एक गम का सागर भी है तथा हंसकर उस पार जाना ही पड़ेगा। जिंदगी के चार पड़ाव होते हैं तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास जैसे पड़ावों से गुजरना ही पड़ेगा। संन्यास वाली अवस्था वह अवस्था है जिसमें सांसारिक वृत्तियों से विरक्त होकर आगामी जीवन की ओर जीने के लिए उस प्रभु परमेश्वर की तरफ अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। जिस तरह हम अपने धन का बजट बनाते हैं, उसी तरह हमें अपने आगामी जीवन का बजट भी बनाना चाहिए।
समाज में जब हादसे होते हैं, तो कहानियां थम जाती हैं। कहानियों में हुए हादसे कहानी को पूरा करने के काम आते हैं। राजेश खन्ना की अवतार से लेकर अमिताभ बच्चन की बागबान तक, बॉलीवुड की चालू फिल्मों से लेकर वृद्धों पर लिखे साहित्य तक इसकी तसदीक मिलती है। ‘जज साहब’ की कहानी उनके बेटे की गुमशुदगी के बाद उसकी बरामदगी पर खत्म हो सकती थी क्योंकि उस दिन के बाद जज साहब सुनील यादव की पान की दुकान पर कभी नहीं दिखे। उदय प्रकाश लिखते भी हैं, ‘सोचता हूं कि काश यह इस किस्से का अंत होता। इसी असमंजस जगह पर आकर कहानी खत्म हो गई होती।’ लेकिन, इस कहानी के पूरा होने के लिए जज साहब का बाहर या भीतर की आग में जलना जरूरी था। ऐसा हुआ भी, लेकिन कुछ महीने बाद।
ये वृद्ध इस देश में कहां रहते हैं और कौन हैं? पुराना ज्ञान कहता है, ‘फॉलो द मनी’ यानी उधर देखो जिधर पैसा हो। बुजुर्गों के आश्रय का बाजार बहुत बड़ा हो चुका है। 2050 तक देश में वृद्धों की संख्या 30 करोड़ होगी। मॉर्डर इंटेलिजेंस की इंडिया सीनियर लिविंग मार्केट रिपोर्ट (2022-2027) कहती है कि फिलहाल वृद्धों के आश्रय का बाजार 10.15 अरब डॉलर का है और साल दर साल यह 2028 तक 10 फीसदी की दर से बढ़ेगा। इस क्षेत्र में काम कर रही कंपनियों का आकलन है कि अगले चार-पांच साल में दूसरे दरजे के शहरों में वृद्धावासों की जरूरत तीन गुना से ज्यादा होगी। सबसे ज्यादा वृद्धि का आकलन दक्षिण भारत में है और सबसे कम जरूरत पूर्वी भारत में पड़ेगी। ऐसी संपत्तियों की बिक्री, पट्टे और मिलेजुले उपयोग के मामले में दक्षिण भारत शीर्ष पर है, फिर पश्चिमी भारत और उत्तरी भारत।
रिपोर्ट जिन शहरों के नाम गिनवाती है उनमें भिवाड़ी, कोयम्बटूर, पुडुच्चेरी, बड़ौदा, भोपाल, जयपुर, मैसूर, देहरादून, कसौली, चेन्नै, पुणे, हैदराबाद और बंगलुरू प्रमुख हैं। इन्हीं शहरों में अवयव योजना के तहत केंद्र सरकार 300 करोड़ रुपये अपनी ओर से वृद्धाश्रयों में लगाने जा रही है। वरिष्ठ नागरिकों के लिए समेकित कार्यक्रम के तहत 180 सरकारी परियोजनाएं पहले ही शुरू की जा चुकी हैं। जाहिर है, इन शहरों में यूपी, बिहार, बंगाल, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़ या पूर्वोत्तर के शहर शामिल नहीं हैं। यही वह पूरब का इलाका है जहां बाजार को अपने लिए कच्चा माल नहीं दिख रहा। यानी एक बात और साफ हुई कि मौजूदा पांच-छह फीसदी अकेले रह रहे वृद्धों के अलावा आगे ऐसे ही संभावित असहाय वृद्धों की खेप पैसेवाले, विकसित, औद्योगिक राज्यों से ज्यादा निकलने वाली है। ध्यान रखा जाना चाहिए कि मैक्स के अंतरा वृद्धाश्रम में रहने के लिए डेढ़ से दो लाख रुपया महीने का खर्च लगता है, जहां कंचन अरोड़ा रहती थीं। दिल्ली-नोएडा जैसे शहरों में जो बुजुर्ग अपने घरों में मृत पाए गए उनके मकान की कीमत करोड़ों में नहीं तो लाखों में जरूर होगी। इसके उलट, जहां इतना पैसा अभी तक नहीं पहुंचा है वहां बूढ़ों की रिहाइश में बाजार का मुनाफा नहीं है। इसलिए वहां की सूचनाएं भी नदारद हैं।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."