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November 1, 2024 4:09 pm

वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से, मैं एतबार न करता तो और क्या करता? 

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अंजनी कुमार त्रिपाठी

किसी शायर ने कहा है- जो देखता हूं वही बोलने का आदी हूं मैं अपने शहर का सब से बड़ा फसादी हूं ‘बड़े-बूढ़े समझाते थे कि कहे-सुने पर मत जाना। जब तक अपनी आंखों से न देखो और खुद अपने कानों से मत सुनो, किसी वात कल मत कर डा तक यह बात सही भी थी, लेकिन अब डीपफेक, फेक न्यूज और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के जमाने में आंखों देखा, कानों सुना भी झूठ हो सकता है। झूठ और सच का ऐसा घालमेल हैं कि यह फैसला कर पाना ही मुश्किल हो रहा है कि जो सूचना सामने है, वह वाकई सच है भी या नहीं। 

नए साल में सबसे बड़ी चुनौती यह पहचानने की होगी कि सच क्‍या है और झूठ क्या। खासतौर से जनसंवाद करनेवाले माध्यमों में । आम लोगों को छोड़िए, सूचनाओं के कारोबार से जुड़े राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय एक्सपर्ट भी परेशान हैं। नया खतरा फेक न्यूज नहीं है। उससे भी बड़ा खतरा यह है कि अब लोग असली चीज को भी गलत मान सकते हैं, क्योंकि नकली माल इतना असली होकर बाजार में आ रहा है। 

फेक न्यूज से जुड़ी एक अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में एक एक्सपर्ट ने प्रतिभागियों के सामने तीन तस्वीरें रखीं और उनसे पूछा कि बताइए इनमें से कौन सी झूठी है । सभी प्रतिभागियों ने अपनी-अपनी समझ के हिसाब से अलग-अलग तस्वीरों को फेक बताया। बाद में एक्सपर्ट ने बताया कि इनमें से कोई भी तस्वीर झूठी नहीं थी । बस उन्होंने फेक शब्द लगाकर सवाल पूछ लिया था और इसी से इतने काबिल लोगों के दिमाग में यह वात आईं ही नहीं कि यह तस्‍वीरें असली भी हो सकती हैं। 

आप अक्सर देखते होंगे कि प्रभावशाली लोगों के भ्रष्टाचार और गलत आचरण के विडियो-ऑडियो सामने आते हैं तो वह अब धड़ल्ले से उसे डीपफेक बोलकर निकल जाते हैं। हो सकता है कि कुछ डीपफेक हों भी पर यह तो एक्सपर्ट एजेंसी ही बता सकते हैं कि सच या झूठ क्या है। 

हाल ही में दिल्‍ली के एक बड़े नेता से जुड़ी झूठी सोशल मीडिया पोस्ट पर एक दूसरे राजनीतिक दल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर दी और खबरें छप भी गईं। इसी तरह दक्षिण भारत के एक बड़े नेता का 2019 का एक भाषण अचानक ताजा बताकर राजनीतिक दलों ने मीडिया के आगे पेश कर दिया। जब तक सामने आता, तब तक खबरें छप भी गईं। बड़े-बड़े नेताओं और विशेषज्ञों ने उन्हें सोशल मीडिया पर पोस्ट करके और आगे बढ़ा दिया। इसमें उत्तर भारत में रहनेवालों के बारे में ऐसा कुछ कहा गया था, जिससे उनकी मानहानि हो। सवाल यह है कि अब सच क्या है और झूठ क्या है, इसे समझा कैसे जाए। यहां बात आम लोगों की नहीं, वहां तो पहले से ही तरह-तरह की अफवहें आसानी से फैलती रही हैं। सवाल पुलिस, जांच एजेंसियों, न्यायपालिका, राजनीति और मीडिया का है। अगर लोकतंत्र को चलानेवाले इन चार खंभों को सच और झूठ का फैसला करने में मुश्किल हुई तो फिर हमारे तंत्र की नींव कमजोर होगी। 

आर्टिफिशल इंटेलिजेंस अब किसी की भी आवाज और विडियो की ऐसी मिक्सिंग और एडिटिंग करता है कि एक्सपर्ट के लिए भी पहचानना मुश्किल हो जाता है कि यह फेक है। साइबर क्राइम करनेवालों के लिए झूठ के यह उपकरण घातक हथियार में तब्दील होते जा रहे हैं और अफसोस कि इनकी काट करने वाला तंत्र अभी बहुत कमजोर है । ऐसे में अगर प्रभावशाली लोग जान बूझकर झूठ और सच को मिलाने लगेंगे तो धीरे-धीरे आम लोगों के बीच ऐसा माहौल बनने लगेगा कि लोग सच को भी सच न मानें। बहरहाल सच को न पहचान पाने के इस मौसम में वसीम बरेलवी का यह शेर और बात खत्म कि- 

वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से मैं एतबार न करता तो और क्या करता,

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."