विनीता सिंह की रिपोर्ट
धार। राखी की रेशमी डोर जितनी नाजुक होती है। उतनी ही रिश्तों को मजबूत बनाने की ताकत भी रखती है। फिर चाहे यह रिश्ते जन्म से जुड़े हो या दिल से। आज जहां मतलबी दुनिया का दंश भी लोग झेल रहे हैं। वहीं मजहबी एकता की इबारत यह परिवार पेश कर रहा है। 45 वर्ष पहले से कौशल्या प्रजापत ने बोहरा समाज के शब्बीर हुसैन को राखी बांधी थी और आज भी यह दोनों परिवार इस रिश्ते को निभा रहे हैं।
ईद पर प्रजापत का परिवार शबीर हुसैन के घर जाकर खुशियों में उनका सहभागी बनता है तो राखी व भाई दूज जैसे पर्व पर एक भाई का परिवार भी अपनी बहन के घर खुशियों में शरीक होने आता है। आज बेशक शब्बीर हुसैन इस दुनिया में नहीं रहे। इसके बावजूद दोनों परिवार यह रिश्ता निभा रहा है। आज भी रिश्ता कायम शब्बीर हुसैन के पुत्र अली असगर ने बतायाकि बुआ कौशल्या प्रजापत पिता के निधन के बाद भी रिश्ता निभा रही है। राखी का त्योहार हो या फिर भाईदूज या फिर दीपावली समेत अन्य हिन्दू त्योहार। इन पर्व पर हमारा पूरा परिवार बुआ के परिवार के साथ शामिल होता है। यही नहीं बोहरा समाज के कोई भी त्योहार हो तो हमारी बुआ कौशल्या प्रजापत का पूरा परिवार हमारे घर पर खुशियों को बांटने जरूर आता है और त्योहार भी हम सभी मिल-जुलकर मनाते हैं। इसके साथ ही पूरा परिवार भी हर सुख-दुख में एक-दूसरे के परिवार के साथ खड़ा भी रहता है।
अली असगर का कहना है उनके पिता शब्बीर हुसैन व उनके मित्र ताराचंद्र प्रजापत की काफी गहरी दोस्ती थी। दोनों की दोस्ती को 45 साल से अधिक का समय हो गया। दोस्ती के दौरान ही कौशल्या बुआ हमें राखी बांधना शुरू की।
आज पिता नहीं है तो बुआ और उनका पूरा परिवार आज भी यह रिश्ता पूरी शिद्दत से निभा रहा है। हम भी रिश्ते की निजाकत को समझते हैं और हमारे परिवार का कोई भी छोटे से बड़ा कार्यक्रम हो या फिर बुआ के घर में कोई भी छोटे से बड़ा कार्यक्रम होता है तो दोनों परिवार शामिल होते हैं।
84 के दंगों में मदद के दौरान शुरू हुई रिश्तेदारी आज भी जारी है
धामनोद नगर के रहने वाले कैलाशचंद्र पिता मुंगाला मित्तल वर्ष 1983 में व्यापार को लेकर इंदौर रहने चले गए थे। वहां हुकुमचंद कॉलोनी में रहकर छोटा-मोटा काम शुरू किया था। अभी कारोबार ठीक से जमा भी नहीं था कि इंदिरा गांधी हत्याकांड होने से इंदौर में कफ्र्यू लग गया। इस दौरान घरों से बाहर निकलने तक की मनाही होने से हर मध्यम श्रेणी परिवारों के खाने-पीने के राशन की समस्याएं खड़ी होने लगी थी। कफ्र्यू के दौरान आसपास में रहने वाले परिवार एक-दूसरे की मदद के लिए अंदर ही अंदर सहयोग के लिए खड़े रहते थे। इसी दौरान दो मकान छोड़कर रहने वाले शिवशंकर शर्मा का परिवार भी रहता है। इनका मोटर बाईंडिंग का कारोबार था। वहीं धामनोद से व्यापार के सिलसिले में इंदौर गए कैलाशचंद्र मित्तल सामान्य परिवारों में आते थे। मदद के दौरान शिवशंकर शर्मा की पत्नी अनोखीबाई से मुलाकात हुई और अनोखबाई ने कैलाशचंद्र मित्तल को अपना भाई बना लिया। उस समय से बना हुआ भाई-बहन का रिश्ता आज भी उसी मन वचन के साथ निभाया जा रहा है। कड़वाहट नहीं आई आज दोनों भाई बहन की उम्र 70 वर्ष पार कर चुकें हैं। परंतु रिश्ते में किसी भी प्रकार कड़वाहट नहीं पनप पाई है। दोनों परिवारों में कैसा भी सुख दु:ख का काम हो दोनों परिवार आपस में एक-दूसरे के लिए कंधे से कंधा लगाकर खड़े रहते हैं। दंगे समाप्त होने के बाद भले ही कैलाशचंद्रजी मित्तल भले ही इंदौर छोड़ वापस धामनोद आकर बस गए हैं। परंतु रक्षाबंधन वाले दिन बहन-भाई के घर जरुर आती है। 84 के दंगे का वह साल जब भाई ने बहन के घर राखी बंधाई थी। इसके बाद निरंतर बहन-भाई के घर आकर ही राखी बांधने लगी।
Author: samachar
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