सुधीर मिश्र की रिपोर्ट
मुनीर नियाज ने लिखा है
ज़रूरी बात कहनी हो, कोई वादा निभाना हो
‘उसे आवाज़ देनी हो उसे वापस बुलाना हो,
हमेशा देर कर देता हूं मैं
संसद और विधानसभाओं में औरतें को 33 परसेंट सीटें देने के मामले में कुछ ऐसा ही लग रहा है। यह गलते पिछली सरकारें के वक्त से चली आ रही है। आबादी में पचास फीसदी वालों को अव्वल तो सिर्फ 33 प्रतिशत दे रहे हैं और बरसों से मामले को लगातार लटकाए हुए भी हैं। मर्दों की वहुमत वाली संसद हो या फिर पुरुषवादी सोच वाला समाज। महिलाओं को कुछ देने में लगातार देर ही कर रहा है। यह देरी अमेरिका, यूरोप और दुनिया के दूसरे देशों में भी हुई थी और हम भी उसी चीज से गुजर रहे हैं।
‘वहरहाल संसद ने सब कर दिया है। महिलाओं को आरक्षण देने वाला विल पास हो गया है। शायद 2029 की लोकसभा में महिलाओं की नए आरक्षण के हिसाब से नुमांइदगी हो। उससे पहले नई जनगणना और नए परिसीमन का पेंच फंसा हुआ है। करीब पांच साल का वक्त है । औरतों के समाज को नेतृत्व के लिए खुद को तैयार करने के लिए। वात सिर्फ सांसद-विधायक बनने की नहीं है। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री जैसे पदों पर भी ज्यादा से ज्यादा औरतें होनी चहिए। इसके लिए मुकम्मल तैयारी की जरूरत है। सबसे वड़ी जरूरत वहनापे की है। मतलब! बनी बनाई धारणाओं और सदियों से घर-गृहस्थी संभालने से उपजी मानसिकता में पॉजिटिव ‘वदलाव करने की।
‘तीन चार दिन पहले ही यह जानने के लिए सोशल मीडिया पर सिर्फ महिलाओं के लिए एक सवाल छोड़ा। सवाल था कि वह अपने आस-पास या परिचय में किस ऐसी महिला को जानती हैं जिनमें वह विधायक या सांसद के गुण देखती हों। आमतैर पर मेरी प्रोफाइल पर काफी ज्यादा प्रतिक्रियाएं आती हैं पर इस सवाल पर कुछ गिने चुने कमेंट ही आए। कुछ महिलाओं का कहना था कि जब वक्त आएगा तब बताएंगे। उनका कहना था कि अभी न तो ढोल है और न कपास, फिर काहे के लिए जुलहों में लडटमलटड कर रहे हैं। तीन चार ने खुद की दावेदार पेश कर दी । एक महिला ने कहा कोई भी महिला खुद को दूसरे से कम नहीं समझती।
बात हंसी में कही गई थी, फिर तुलसीदास जी का एक दोहा याद आ गया- इहां न पच्छपात कछु राखऊं, वेद पुरान संत मत भाषडं, मोह न नारि नारि कें रूपा, पन्नागारि यह रीति अनूपा, ।
मतलब, तुलसीदास जी कहते हैं कि मैं विना पश्षपात के वेद, पुराण और संतों का मत बताता हूं कि यह विलक्षण रीति है! कि एक सत्र दूसरी स्त्री पर मोहित नहीं होती । यह कथन और धारणाएं मध्य युगीन हैं । उस वक्त! ज्यादातर स्त्रियां घरों में संयुक्त परिवारों में रहती थीं। पुरुष बाहर काम करते थे। घरों के भीतर प्रभुत्व के संघर्ष में महिलाएं ही आमने सामने होती थीं । इतिहास सैकड़ों हजारों साल का है तो काफी बातें विरासत में भी आती हैं लेकिन अब वक्त वदल रहा है। महिलाओं को राजनीति करनी है तो उन्हें वह सबकुछ सीखना होगा जो पुरुष सियासत में रहने के लिए करते हैं। व्यवहारिक नेतृत्वशीलता पर ही आगे वढ़ने का मौका होगा। वहनापे पर जोर देना होगा। इस लड़ाई में उनके सामने होंगी प्रभावशाली राजनीतिज्ञों, व्यूरेक्रेट्स और ताकतवर परिवारों की महिलाएं।
जैसा कि पंचायत या नगर निगमों के चुनावों में देखा जाता है। प्रधानपति और पार्षद पति जैसे नए विशेषण! लोकल सरकारों की शोभा बने हुए हैं । नए महिला नेतृत्व को सबसे पहले समाज, राज्य और देश! को इसके लिए तैयार करना होगा कि कोई सांसद पति या विधायक पति उनके नाम पर सत्ता न संभाले। इसके लिए महिलाओं को अपने बीच से नेतृत्व की तलाश अभी से शुरू करनी होगी । उसमें यह तैयारी तो की ही जा सकती है । महिलाओं को नई उम्मीदों के लिए शुभकामनाओं के साथ राहत इंदौरी का यह शेर और वात खत्म कि-
न हम-सफ़र न किसी हम-नशी से निकलेगा
हमारे पांव का कांटा हमीं से निकलेगा
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."