दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश के चित्रकूट, बुंदेलखंड क्षेत्र के साथ ही मध्य प्रदेश के विंध्य इलाके में शिवकुमार पटेल उर्फ ददुआ ने तीन दशकों तक राज किया। पाठा के जंगलों के इस बेताज बादशाह की परछाई तक को कभी पुलिस छू नहीं सकी थी। बिना उसके आशीर्वाद के ग्राम पंचायत से लेकर लोकसभा तक के चुनाव नहीं लड़े जा सकते थे। उसने बंदूक की नाल की जोर पर जंगल में वोट की फसल उगाई। लेकिन सियासत में अति महत्वकांक्षा उसे ले डूबी। और स्पेशल टास्क फोर्स ने उसे मार गिराया था।
पिता का बदला लेने को थामी बंदूक
देश की आजादी के कुछ सालों के बाद चित्रकूट के देवकली गांव में जन्मे ददुआ ने 1975 में पहली लाश गिराई। इसके बाद उसके कदम आगे ही बढ़ते चले गए। 2007 में एनकाउंटर तक ददुआ के ऊपर लूट, डकैती, हत्या, अपहरण जैसे करीब ढाई सौ मामले दर्ज थे। साल 1972 में पड़ोस के गांव रायपुर के जमींदार ने शिव कुमार के पिता को नंगा करके पूरे गांव में घुमाया और फिर कुल्हाड़ी मार कर उनकी हत्या कर दी। शिव कुमार को इस बात की जानकारी लगी तो उसका खून खौल गया। उसने कुल्हाड़ी उठाई और रायपुर जाकर उस जमींदार जगन्नाथ और उसके 8 लोगों को काट डाला। एक ही दिन में 9 कत्ल करके शिव कुमार पटेल बागी बन गया और पुलिस आती उससे पहले ही चित्रकूट के बीहड़ों की तरफ भाग गया।
अपराध की दुनिया में ददुआ ने अपना एक गैंग तैयार कर लिया। साल 1986 में ददुआ ने रामू का पुरवा नामक गांव में मुखबिरी के शक में 9 लोगों के सीने में गोली उतार दी थी। 1992 में मड़ैयन गांव में 3 लोगों की हत्या के बाद गांव को जला डाला था। उसने राजनीति की तरफ रुचि लेनी शुरू कर दी। कुर्मी पटेल और आदिवासी कार्ड की बदौलत गंगा और यमुना के मैदानी इलाकों में उसने अपनी पैठ बना ली थी। वह तेंदू पत्ते के व्यापार में भी सक्रिय था।
ददुआ का आतंक शुरू, तेंदू पत्ता ठेकेदारों का जीना हराम कर दिया गया
ददुआ की गैंग ने जिस बीहड़ को अपना अड्डा बनाया था, वहां तेंदू के पत्ते का लाखों करोड़ों रुपए का व्यापर होता था। व्यापारी ठेका लेते थे। मजदूर लगाकर तेंदू पत्ते तुड़वाते और उन्हें बीड़ी समेत कई चीजें बनाने के लिए बेचा जाता। ददुआ ने इन्हीं ठेकेदारों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। पहले किडनैपिंग करता फिर फिरौती मांगता। पैसा ना मिलने पर जान से मार देता। ददुआ ने ठेकेदारों के अंदर इतना खौफ भर दिया कि मांगने से पहले उस तक पैसा पहुंचाया जाने लगा था।
गरीबों ने अपना मसीहा मान लिया, उसके पास फरियाद लेकर जाने लगे
ददुआ बीहड़ के आसपास बसे गांवों में आया-जाया करता था। उसको जानकारी मिली कि तेंदू पत्ता तोड़ने वाले मजदूरों को पूरे पैसे नहीं मिलते। उसने ठेकेदारों से कहकर सबकी मजदूरी बढ़वा दी। लोगों के बीच उसका भरोसा बढ़ा। लोग उसके पास अपनी फरियाद ले कर जाने लगे। उसने कई गरीब बेटियों की शादी करवाई। गरीबों की जमीन हड़पने वालों को उनकी जमीन वापस दिलाई। लाचार लोगों की पैसे से लेकर हर तरह की मदद करने लगा। अमीरों को लूटता और गरीबों में बांटता। लोग उसे अपना मसीहा मानने लगे।
मुखबिरों को ऐसे मारता था कि देखने वाले की रूह कांप जाए
गरीबों के लिए ददुआ जितना कोमल दिल का इंसान था। मुखबिरों और पुलिस के लिए उतना ही निर्दयी। ददुआ के टाइम में मुखबिरी का मतलब मौत होता था। ददुआ सबसे कहा करता था, “जिस दिन मेरी मुखबिरी करने का ख्याल भी दिल में आये समझ लेना तुम्हारी मौत हो चुकी है।”
‘मोहर पड़ेगी या गोली पड़ेगी छाती पर’
चित्रकूट, बांदा, हमीरपुर, फतेहपुर, प्रतापगढ़, प्रयागराज, मिर्जापुर, कौशांबी की करीब 10 लोकसभा सीटों और दर्जनों विधानसभा की सीटों पर ददुआ का बोलबाला था। कहा जाता है कि वह चुनाव में फरमान जारी करके वोटिंग का आदेश देता था। ‘मोहर लगेगी … पर, वरना गोली पड़ेगी छाती पर’ जैसे ददुआ के फरमान लोगों की जुबान पर आज तक दर्ज हैं। इसमें … की जगह संबंधित पार्टी या प्रत्याशी का नाम होता था। गरीबों के लिए ददुआ एक मसीहा था। शोषित और वंचित समाज में उसकी इमेज रॉबिनहुड की रही।
जंगल में दौड़ाई हाथी और साइकल
बांदा के नेता रामसजीवन सिंह सांसद और विधायक भी चुने गए। वह ददुआ को बेटे जैसा स्नेह देते थे। अपने राजनीतिक गुरु के कहने पर ददुआ ने मायावती के पक्ष में माहौल तैयार किया। सैकड़ों गांवों में उसकी तूती बोलती थी। वह बसपा नेताओं के करीब आ गया। कहा जाता है कि उसे खुलेआम पार्टी का संरक्षण प्राप्त था। लेकिन बाद में बसपा नेता दद्दू प्रसाद से अनबन हो गई और उन्होंने मायावती से शिकायत कर दी। राजनीतिक महत्वकांक्षा से ददुआ ने भी पाला बदल लिया और 2004 में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी को सपोर्ट कर दिया। उसे शिवपाल का खास माना जाता था। जिस ददुआ ने पहले चंबल के जंगलों में हाथी दौड़ाई थी, उसने अब साइकल चलवा दी।
मौत से बचा तो बनवा दिया मंदिर
ददुआ हमेशा पुलिस से दो कदम आगे ही रहता था। अपराध की दुनिया में आने के बाद 1992 में पहली बार ददुआ पुलिस के चंगुल में फंसा था। फतेहपुर के नरसिंहपुर कबरहा में गन्ने खेत में ददुआ को पुलिस फोर्स ने घेर लिया था। बचने की कोई संभावना नहीं थी लेकिन किस्मत साथ दे गई। ददुआ बच निकला। चार साल बाद 1996 में वहां मंदिर बनवा दिया। मंदिर आज भी है। बेटे ने विधायक बनने के बाद भव्य मंदिर में पिता ददुआ और मां की मूर्ति लगवाई। यह मूर्ति आज भी विराजमान है।
भाई, बेटे, बहू, भतीजे बैठे कुर्सी पर
ददुआ खुद खादी नहीं पहन पाए। लेकिन परिवार का राजनीतिक करियर सेट कर गए। भाई बालकुमार पटेल 2009 में मिर्जापुर से सांसद बने। बेटा वीर सिंह पटेल 2012 में चित्रकूट के कर्वी से विधायक भी चुना गया। बहू ममता पटेल जिला पंचायत अध्यक्ष चुनी गईं। वहीं भतीजा राम सिंह पटेल भी पट्टी से विधायक बना।
22 जुलाई 2007 को ददुआ पुलिस और एसटीएफ की मुठभेड़ में ढेर हो गया। चित्रकूट और बुंदेलखंड के गांव-गलियों में ददुआ के किस्से आज भी चबूतरे की बैठक का किस्सा हैं।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."