दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट
अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की हत्या के बाद पूरे देश में सियासी उबाल है। सत्तारूढ़ दल के कुछ नेता अतीक की हत्या को ‘आसमानी न्याय’ तो ‘पाप और पुण्य’ का हिसाब बता रहे हैं। विपक्ष इस मुद्दे पर सरकार पर हमलावर है। हालांकि, चार दशक तक सियासत के संरक्षण में अपराध का साम्राज्य चलाने वाला अतीक ऐसा सियासी मोहरा था, जिसे हर दल ने अपनी जरूरत के हिसाब से सियासत की बिसात पर चला। उसकी मौत भी सियासत में नफा-नुकसान की कसौटी पर कसी जा रही है। 1989 में पहली बार इलाहाबाद पश्चिमी से निर्दलीय जीत कर विधानसभा पहुंचे अतीक की राह 1991 में राम लहर में भी नहीं रुकी। चकिया सहित कई क्षेत्रों में तब बूथ कैप्चरिंग की चर्चा आम थी।
गेस्ट हाउस कांड और सपा से नजदीकी
सियासत में अतीक के पर्दे के पीछे तो कई रहनुमा थे लेकिन पहली बार खुलकर उसके सिर पर हाथ रखा तबके सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने। वजह बनी गेस्ट हाउस कांड। 1995 में सपा-बसपा गठबंधन टूटने के बाद लखनऊ के मीराबाई गेस्ट हाउस में मायावती के ऊपर जानलेवा हमला हुआ। इसके आरोपितों में सबसे अहम नाम अतीक अहमद का था। मायावती ने चुनावी मंचों से भी अतीक के ऊपर अपनी हत्या की साजिश का आरोप लगाया था। गेस्ट हाउस कांड से अतीक मुलायम के करीब आया और 1996 में वह सपा से चुनकर आया।
इसके बाद अतीक पूर्वांचल के कई क्षेत्रों में अल्पसंख्यक वोटरों की लामबंदी के हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाने लगा। 2002 में अतीक की मुलायम से कुछ खटकी और उसने सोनेलाल पटेल की अगुआई वाले अपना दल का दामन थाम लिया। अतीक के डर और क्षेत्र में सियासी पकड़ का असर यह था कि अपना दल के टिकट पर भी उसने जीत का सिलसिला कायम रखा। सोनेलाल खुद हार गए लेकिन उनकी पार्टी से अतीक सहित दो चेहरे विधानसभा पहुंचे। चुनाव के पहले मुलायम से खटके रिश्ते सत्ता के समीकरण में फिर सहज हो गए। मुलायम को सीएम बनने के लिए संख्या बल चाहिए था और अतीक उसमें फिट बैठा।
हार, हत्या और सरपरस्ती
अतीक के जुल्म और अपराध और उससे जुड़े मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही थी लेकिन उसके सियासी सरंक्षण पर कोई असर नहीं पड़ा। 2004 में सपा ने अतीक को फूलपुर से चुनाव लड़ाया और वह संसद पहुंच गया। अतीक के सांसद बनने के साथ ही इलाहाबाद में सियासत और अपराध का नया किस्सा लिखा गया। इलाहाबाद पश्चिम से उसकी विधायकी की सीट खाली हुई और उपचुनाव हुआ।
इस सीट पर अतीक ने अपने भाई अशरफ को चुनाव लड़ाया और उसके सामने बसपा से ताल ठोंकी अतीक के ही पुराने सहयोगी राजू पाल ने। नतीजा राजू पाल के पक्ष में गया और अशरफ हार गया। हार से बौखलाए अतीक और अशरफ ने एक साल के भीतर राजू पाल की इलाहाबाद की सड़कों पर दौड़ा-दौड़ाकर हत्या कर डाली। हत्या का आरोपित होने के बाद भी सत्तारूढ़ सपा ने अतीक के भाई को उपचुनाव लड़ाया और वह विधायक बन गया।
अतीक के सियासी आका बदलते रहे लेकिन उसे अपना दम दिखाना नहीं छोड़ा। 2009 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर उसने अपना दल के टिकट पर प्रतापगढ़ लोकसभा से ताल ठोंक दी। सपा ने वहां के बाहुबली रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भइया के रिश्तेदार अक्षय प्रताप सिंह को लोकसभा का टिकट दिया। कहा जाता है कि एक प्रभावी नेता ने ही अतीक को वहां से चुनाव लड़ने को कहा था। हालांकि, अतीक के लड़ने का फायदा कांग्रेस को हुआ। कांग्रेस की रत्ना सिंह ने एक लाख से अधिक वोट बटोरे और अतीक सपा की हार की वजह बन गया।
मोदी लहर में भी पहुंचा जीत के करीब
2012 में अतीक इलाहाबाद पश्चिम से अपना दल के टिकट पर विधानसभा चुनाव हार गया, लेकिन सत्ता का दिल ‘जीतने’ में सफल रहा। सपा की की सत्ता में वापसी हुई और अतीक अहमद की सपा में। वह जमानत पर जेल से बाहर आ गया। 2014 में सपा ने अतीक को श्रावस्ती लोकसभा से चुनाव लड़ाया। मोदी लहर में भी वह जीतने में कामयाब हो जाता लेकिन उसकी राह रोक दी पीस पार्टी के रिजवान जहीर ने। उनको 1 लाख से अधिक वोट मिले और वह 85 हजार वोट से हार गया।
2016 में अतीक ने कानपुर कैंट से विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी। हजारों गाड़ियों का काफिला लेकर जब वह कानपुर पहुंचा तो वहां लोगों की आंखें फटी रह गईं। इसी बीच प्रयागराज के शुआट्स कॉलेज में उसके समर्थकों का बवाल सियासी मुद्दा बना। 2017 के विधानसभा चुनाव के पहले अखिलेश-शिवपाल के बीच पार्टी में कब्जे की जंग तेज हुई तो अतीक भी निशाने पर आया। बवाल के बाद टिकट कटा। हाई कोर्ट की फटकार के बाद पुलिस को फरवरी 2017 में आखिरकार अतीक को गिरफ्तार करना पड़ा और इसके बाद उसे मौत ने ही जेल की सलाखों से ‘आजाद’ किया।
उपचुनाव की बिसात पर जब ‘बिछा’ माफिया
2017 में यूपी की सत्ता में भाजपा आई और योगी आदित्यनाथ सीएम बने। अतीक के खिलाफ चल रहे अभियान के बीच समीकरण बदले। फूलपुर से सांसद केशव प्रसाद मौर्य डिप्टी सीएम बने। 2018 में उनकी लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुआ। पहली बार जीत इस सीट को उपचुनाव में बचाने का दबाव था। सपा-बसपा करीब 27 साल की दुश्मनी भुलाकर एक हो चुके थे। ऐसे में फलपुर उपचुनाव में नामांकन के आखिरी दिन एंट्री हुई अतीक अहमद की। देवरिया जेल में बंद अतीक ने निर्दलीय पर्चा दाखिल कर दिया। जेल में रहते हुए उसके सभी कागज तैयार करवाए गए।
सपा ने इसे भाजपा की मदद की कोशिश के तौर पर पेश किया। सत्ता में बैठे भाजपा के कुछ स्थानीय चेहरों से अतीक के ‘रिश्तों’ की चर्चा भी तेज हुई। अतीक की पत्नी और बेटे ने जमकर प्रचार किया, अपीलें बांटी गईं। अतीक ने 48 हजार वोट जरूर हासिल किए लेकिन वह नतीजा ‘बदलने’ के लिए काफी नहीं था। दुस्साहस में अतीक ने जेल में ही बैठे-बैठे एक व्यापारी का अपहरण करवा लिया। इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से उसको यूपी से बाहर गुजरात की साबरमती जेल भेज दिया गया।
औवेसी से माया तक नरम हुए, पर…
2019 के लोकसभा चुनाव में अतीक अहमद ने बनारस भी पर्चा भरा लेकिन बाद में उसने कदम पीछे खींच लिए। यूपी में अपनी जमीन बनाने में जुटे असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने 2021 में अतीक की पत्नी को अपनी पार्टी में शामिल करवा लिया। हालांकि 2022 के विधानसभा चुनाव में अतीक के परिवार से कोई भी सियासी मैदान में नहीं उतारा।
माना जा रहा था कि सरकार की कार्रवाई और उसके आर्थिक साम्राज्य पर कसे शिकंजे के चलते कदम पीछे खींचे गए थे। विधानसभा चुनाव के बाद अल्पसंख्यकों को जोड़ने में लगी मायावती का रुख अतीक परिवार पर नरम हुआ। उन्होंने उसकी पत्नी शाइस्ता परवीन को पार्टी में शामिल करवाया, मेयर के टिकट का भी आश्वासन दिया लेकिन उमेश पाल हत्याकांड के चलते समीकरण बदल गए।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."