सुरेन्द्र प्रताप सिंह की रिपोर्ट
खेलने-कूदने की उम्र में शादी, बच्चा और फिर विधवा। 6 महीने तक ना कहीं जा सकतीं, ना ही किसी से मिल सकतीं। एक कैदी जैसी जिंदगी। यहां तक कि अपने दुधमुंहे बच्चे को भी दुलार-प्यार नहीं कर सकतीं।
अगर दोबारा शादी की, तो ना समाज में इज्जत मिलती है ना पति की संपत्ति में अधिकार। ऊपर से कलंकी, मनहूस का ठप्पा। ना किसी की शादी में जा सकतीं, ना पूजा-पाठ कर सकतीं, ना भाई को राखी बांध सकतीं।
राजस्थान में इसे कोना प्रथा कहा जाता है। भीलवाड़ा, पाली, राजसमंद सहित कई जिलों में सैकड़ों बाल विधवाएं खंडहर सी जिंदगी जीने को मजबूर हैं।
पाली जिले का ददाई गांव। चटक लाल रंग की ओढ़नी और नीले रंग का घाघरा पहनी ऊषा देवी (बदला हुआ नाम) रुआंसी आवाज में कहती हैं- मेरे पास बताने को कुछ बचा ही नहीं, क्या बात करेंगे आप?
कुछ देर खामोश रहने के बाद ऊषा बोलना शुरू करती हैं- ‘10-12 साल की थी तब शादी हो गई। तब मुझे यह भी नहीं पता था शादी क्या होती है, पति क्या होता है? ससुराल गई तो सास ने पहले ही दिन रसोई घर में घुसा दिया।
खाना पकाते कभी हाथ जलता तो कभी नमक-तेल ज्यादा होने पर सास की मार पड़ती। रोती, चीखती और फिर खुद ही चुप भी हो जाती। ना कोई सुनने वाला था ना ही कोई बचाने वाला था। मायके जाने की बात कहती तो और मार पड़ती। पति थोड़ी मदद करते थे, लेकिन वे भी अपने घरवालों के सामने लाचार थे।
एक साल बाद वे गोवा कमाने चले गए। तब पेट में बच्चा था। मुझे लगा कि अब दिन बदलेंगे, पति पैसे भेजेंगे। कुछ महीने बाद बेटा हुआ। पति काफी खुश थे। जल्द ही वे उसके लिए ढेर सारे खिलौने लेकर आने वाले थे, लेकिन कुछ दिन बाद ही मनहूस खबर आ गई। एक सड़क हादसे में पति की मौत हो गई। उनकी लाश यहां आई।
इसके बाद तो मेरी जिंदगी नर्क हो गई। गांव की औरतें आईं और सबने मिलकर सिंदूर मिटा दिया। चूड़ियां तोड़ दीं। सुहाग का जोड़ा उतरवा दिया। नाक की नथनी निकलवा दी। रंगीन प्रिंटेट कपड़े उतरवा दिए।
पति मेरे लिए लाल रंग की ओढ़नी लेकर आए थे। बहुत पसंद थी मुझे। उस पर नगीने लगे थे, कढ़ाई की गई थी। वो भी उन महिलाओं ने मुझसे छीन ली। बताइए पति की निशानी भी अपने साथ नहीं रख सकती क्या?’
ऊषा बताती हैं, ‘जब पति की मौत हुई, तब मैं 14 साल की थी। मुझे एक कमरे में भेज दिया गया। 6 महीने तक उसी में रहने की हिदायत दी गई। ना कोई मुझसे मिलने आता न बात करता। अकेले बैठे-बैठे दिन भर रोती रहती।
सुबह घर के लोगों के जागने से पहले कमरे से बाहर निकलती और नहा-धोकर फिर कमरे में चली आती। खाने में रुखा-सूखा जो मिलता वो खा लेती। दिन में टॉयलेट आती तो रोककर बैठी रहती या फिर कमरे में ही करती। दिन में टॉयलेट न जाना पड़ जाए, इस डर से पानी पी नहीं पीती।
4 महीने के बेटे को भी सास ने ले लिया। उनका कहना था कि तुम्हारी मनहूस छाया इस पर नहीं पड़नी चाहिए। बच्चे के रोने की आवाज सुनती, तो मन मचल के रह जाती। मन करता कि बाहर निकलकर उसे गोद में उठा लूं, लेकिन सास से डर जाती। 6 महीने तक ऐसे ही रो-रोकर गुजारा किया। इसके बाद भैया के साथ बेटे को लेकर मायके आ गई।’
6 महीने तक क्यों रहना पड़ा एक ही कमरे में?
जवाब मिलता है- जिनके पति मर जाते हैं, उन्हें 6 महीने तक ऐसे ही रहना होता है। उस वक्त ना कोई विधवा से मिलता है और ना बात करता है। 6 महीना पूरा होने के बाद उसे मायके भेजा जाता है। वहां से वापस लौटने के बाद ही वह दूसरी महिलाओं की तरह रह सकती है।
दोबारा शादी क्यों नहीं करतीं?
ऊषा सपाट लहजे में जवाब देती हैं- नहीं, घर वाले कहते हैं नाते चली जाओ। नाते? हां, हमारे यहां माना जाता है कि लड़की को एक ही बार हल्दी लगती है और एक ही बार फेरे पड़ते हैं, लेकिन पुरुषों के लिए ऐसा नहीं है। इसलिए दोबारा शादी नहीं होती।
अगर कोई शादी करता है तो वो शादी के नाम पर सौदा होता है। कोई पुरुष आता है और ससुराल-मायके वालों को रुपए देकर लड़की अपने साथ लेकर चला जाता है। वह उससे अपने घर के काम कराता है। बच्चे पैदा करता है, लेकिन पत्नी का अधिकार नहीं देता है। इसलिए मैं दोबारा शादी नहीं कर रही। मेरे बेटे की देखभाल कौन करेगा। पता नहीं दूसरा पति उसे अपनाएगा कि नहीं।’
17 साल की ऊषा बताती हैं, ‘अब मैं ससुराल और मायके दोनों के लिए बोझ हूं। यहां लोग मुझसे परेशान हो जाते हैं तो ससुराल चली जाती हूं और वहां लोग परेशान होते हैं, तो वापस यहां आ जाती हूं। कुछ दिन पहले देवर की शादी थी। मेरा बहुत मन था वहां जाने का, लेकिन मुझे जाने नहीं बुलाया गया। सब कहने लगे कि तुम मनहूस हो, शुभ काम में बाधा डालने मत आओ।
हमारे यहां रक्षाबंधन के दिन सारी लड़कियां सजती हैं। अपने भाइयों को राखी बांधती हैं, लेकिन मुझे भाई को राखी नहीं बांधने दिया गया। मां कहने लगी कि तुम उसे राखी बांधोगे तो अपशकुन हो जाएगा। मैं क्या करती, मन मारकर चुप रह गई।’
इस बीच उनकी मां खोली बाई आती हैं। उन्होंने भर-भर हाथ चूड़ियां पहनी हैं। प्रिंटेड ओढ़नी-घाघरा पहना है। नाक में नथ है। उन्हें देखने के बाद विधवा और सुहागन में फर्क साफ समझ में आ जाता है।
17 साल की विधवा बेटी को देखकर क्या बीतती होगी?
जवाब मिलता है- बुरा लगता है, लेकिन क्या करें। अच्छा घर-वर देखकर ब्याह किया था, लेकिन इसका नसीब ही खोटा निकला। नाते भेजने के लिए कहती हूं तो मना कर देती है। बताइए हम कब तक इसका ख्याल रखें।’
ददाई से 95 किलोमीटर दूर रेबारियों के ढाणी गांव की नीलम देवी (बदला हुआ नाम) 7 साल की थीं तब उनकी शादी हुई थी। 16 साल की उम्र में वो विधवा बन गईं। अभी एक साल पहले ही उनके पति की मौत हुई है।
हाल ही में वो कोना प्रथा के तहत 6 महीने एकांत में रहकर आई हैं। उन्हें देखकर लगता नहीं कि वो 17 साल की हैं। वक्त और हालात ने उन्हें अपनी उम्र से बड़ा बना दिया है।
नीलम अपनी कहानी सुनाती हैं- सात साल की तब मेरी शादी हुई। मेरी शादी मोसेर के तहत हुई थी। हमारे यहां अगर किसी की मौत होती है, तो उनके मृत्युभोज के दिन नाना और दादा पक्ष के घर में जो लड़के-लड़की होते हैं, उनकी शादी करा दी जाती है। मेरी भी शादी उसी तरह हुई थी। पांच साल बाद जब 12 साल की हुई तो ससुराल आ गई।
पति 6 भाइयों में सबसे छोटे थे। मजदूरी करके के घर का खर्च चलाते थे। उनके साथ कभी-कभी मैं भी काम करने जाती थी। ताकि पैसे की दिक्कत नहीं हो। 15 साल की हुई तब तक दो बच्चों की मां बन चुकी थी।
एक दिन पति काम से लौटे तो अचानक उनका पेट दर्द करने लगा। हम उन्हें डॉक्टर के पास ले जाते, इससे पहले ही उनकी मौत हो गई। अचानक सब कुछ छिन गया।’
नीलम कुछ देर खामोश हो जाती हैं। फिर उठकर कमरे में चली जाती हैं। वहां से पति की एक तस्वीर निकाल कर लाती हैं। तस्वीर दिखाते हुए कहती हैं, ‘एक साल हो गए पति के मरे हुए। बताइए अकेले इस बच्चे को कैसे पालूंगी? पहले मजदूरी करने भी चली जाती थी, लेकिन अब वो भी नहीं जा पाती। लोग गलत नजर से देखते हैं। गंदी-गंदी बातें बोलेते हैं।’
आप दोबारा शादी करेंगी?
नीलम कहती हैं, ‘ऐसे पुरुष के साथ मैं अपने बच्चे को लेकर कैसे रह सकती, जो मुझे पत्नी ही नहीं मानेगा।’
जिन लड़कियों को शादी का मतलब नहीं पता उन्हें विधवा का मतलब होना सिखाया जाता है
बाल विवाह के खिलाफ मुहिम चलाने वाली सोशल वर्कर और एडवोकेट डॉ. कृति भारती बताती हैं, ‘राजस्थान में पूरे साल कम उम्र में लड़कियों की शादी करा दी जाती हैं, लेकिन सरकार कभी-कभार ही अलर्ट होती है। घर वाले रात में खेतों में जाकर शादियां करा देते हैं। घर-परिवार में किसी की मौत होती है तो आनन-फानन रिश्ता ढूंढा जाता है और मृत्युभोज वाले दिन परिवार के बच्चों की शादी कर दी जाती है।
बच्चों की शादी का फैसला मां-बाप नहीं, बल्कि गांव के बड़े लोग करते हैं। वे कह देते हैं- तेरी छोरी की शादी, फलाने के छोरे के साथ होगी। उसके बाद लड़का क्या कर रहा है। लड़की के क्या सपने हैं, इनसे कोई लेना-देना नहीं। गौना होने के बाद अगर लड़का मर जाता है, तो उन लड़कियों को विधवा का मतलब बताया जाता है, जिन्हें शादी का भी मतलब नहीं पता होता है।’
सरकारी आंकड़ों में बाल विधवाओं का जिक्र नहीं – राजस्थान महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष
राजस्थान महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष लाड कुमारी जैन बताती हैं, ‘कानून बन गया, लेकिन मानसिकता नहीं बदली। बाल विधवाएं, बाल विवाह का प्रमाण हैं। इस तरह के मामलों में सरकार की सख्ती नहीं है। इसलिए सरकारी आंकड़ों में भी बाल विधवाओं का जिक्र नहीं है।
कानून में रीमैरिज का प्रावधान है, लेकिन राजस्थान के पिछड़े इलाकों में लोग री-मैरिज को कलंक मानते हैं। बाल विधवाओं की दोबारा शादी नहीं करते। इसके पीछे सबसे बड़ी जगह गरीबी और लोगों में जागरूकता की कमी है।’
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."