प्रमोद दीक्षित मलय
भारत की आजादी के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 से आरंभ किया गया संग्राम अनवरत अहर्निश गतिमान रहा है। स्वातंत्र्य समर की यह जाज्वल्यमान मशाल न कभी बुझने पाई, न डिगने पाई। स्वतंत्र समर में समाज के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़े व्यक्तियों ने अपना योगदान दिया है। चाहे वे किसान, मजदूर, राजनैतिक व्यक्तित्व रहे हों या फिर विद्यार्थी, शिक्षक और पत्रकार। किसी ने अपनी लेखनी से क्रांति के गीत रचे हैं तो किसी ने अपने पावन रक्त से मां भारती का तिलक किया है। देश के अस्तित्व रक्षा के लिए उम्र मायने नहीं रखती। गुलामी की बेड़ियां काटने के लिए किशोर वय क्रांतिकारियों ने भी राष्ट्र चेतना के गौरव अनुष्ठान में अपने जीवन की आहुति समर्पित की है। नाना साहब पेशवा की बेटी मैना हो, उत्कल का किशोर पूनम नेगी या फिर बंगाल का सिंह शावक खुदीराम बोस। किशोर बलिदानियों की इस श्रंखला में सिंध के शहीद हेमू कालाणी का नाम विश्व में बड़े आदर से लिया जाता है।
हेमू कालानी को राष्ट्रप्रेम एवं देशभक्ति के संस्कार बचपन से ही मिले थे। हेमू का जन्म 23 मार्च 1923 को सिंध के सक्खर नामक गांव में पिता पेसूमल कालाणी एवं माता जेठी बाई के कुल परिवार में हुआ था। वह समय भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के चरम का था तो वहीं भारतीयों के विरुद्ध अंग्रेजी शासन द्वारा किए जा रहे अमानवीय यातना एवं दमन का भी। अंग्रेजों के इस कठोर एवं निर्दयी पाशविक व्यवहार से संपूर्ण देश में क्रांति एवं विद्रोह का एक वातावरण बना हुआ था। महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, विनायक दामोदर सावरकर, लाला लाजपत राय, लोकमान्य तिलक जन-जन के दिलों में श्रद्धा एवं शक्ति का केंद्र बन गये थे। महात्मा गांधी जब सिंध की यात्रा पर आए तो जन सैलाब सड़कों पर उतर आया। कराची में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन से भी पूरे सिंधु में स्वतंत्रता के लिए एक प्रेरक वातावरण बना। ऐसे में हेमू का बाल मन भला कैसे अप्रभावित रह सकता था, जिसे आरंभ से ही मां जेठी बाई द्वारा रात्रि में सोने से पहले महान नेताओं की कहानी सुनाई जाती रही हो। सात-आठ वर्ष का बालक अपने हमउम्र साथियों के साथ अपने हाथों में तिरंगा उठा नेतृत्व करते हुए शहर की बस्तियों में गली-गली प्रभात फेरी निकाला करता। संयोग से 23 मार्च 1931 को भगत सिंह एवं साथियों को फांसी की सजा दिए जाने से देशभर में अंग्रेजों के खिलाफ ज्वार उमड़ा। बालक हेमू ने संकल्प लिया कि एक दिन वह भी भगत सिंह की तरह भारत माता की सेवा-साधना में अपने प्राणों कि समिधा समर्पित कर देगा। वह कपड़े से फांसी का फंदा बना साथियों के साथ भगत सिंह की फांसी का खेल खेलता। मां के यह पूछने पर कि हेमू तू केसे खेल खेलता रहता है। वह निर्भय बालक बोलता, “मां ! एक दिन पूरा भारत वर्ष तुम्हारे पुत्र पर गौरव करेगा। मुझे भारत माता को अंग्रेजों से मुक्त कराना है।” मां गर्व से फूल बालक को सीने से लगा चूमने लगती। अब हेमू कालाणी जगह-जगह विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करता, होली जलाकर स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग हेतु सामान्य जन को प्रेरित करता। काल चक्र गतिशील था। 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का ऐलान कर अंग्रेजों के विरुद्ध देशव्यापी संघर्ष छेड़ा। देश भर में जगह-जगह अंग्रेजों के विरुद्ध जनता उठ खड़ी हुई। सिंध भी ललकार कर खड़ा हुआ। पुलिस थानों, चौकियों, चौराहों पर विरोध प्रदर्शन होने लगे। हेमू इन गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेने लगा। वह सिंध में लोकप्रिय हो घर-घर पहचाना जाने लगा। अक्टूबर 1942 में हेमू को जानकारी मिली कि क्वेटा में आंदोलनकारियों को दबाने एवं संसार के लिए सक्खर से एक फौजी दस्ता तमाम घातक हथियारों को लेकर ट्रेन से जाने वाला है। तब हेमू ने साथियों के साथ योजना बना रात के समय पुल के पास रेल ट्रैक की फिश प्लेटें उखाड़ना शुरू किया। रात्रि के शांत वातावरण में हथौड़े की आवाज से ड्यूटी पर तैनात सिपाही मुस्तैद हो गए और पकड़ने को दौड़े। हेमू ने अपने दोनों साथियों को भगा दिया और स्वयं डटे रहे। पकड़े गए। सिपाहियों द्वारा असहनीय शारीरिक दंड दिया गया। साथियों का नाम-पता जानने के लिए निर्मम यातनाएं दी गयीं। लेकिन हेमू ने यही कहा कि मेरे केवल दो साथी थे रिंच और हथोड़ा। मार्शल लॉ कोर्ट ने देशद्रोह के अपराध में हेमू को आजन्म कारावास दिया। आदेश की प्रति सिंध के हैदराबाद सेना मुख्यालय के अधिकारी कर्नल रिचर्डसन के पास अनुमोदन हेतु प्रेषित की गई। कर्नल आदेश प्रति पढ़कर आग बबूला हो गया और हेमू कालानी को अंग्रेजी सत्ता का खतरनाक शत्रु करार देते हुए आजीवन सजा को फांसी की सजा में बदल दिया। यह जानकारी बाहर आते हैं सिंध उबल पड़ा। गणमान्य व्यक्तियों के एक समूह ने वायसराय को पत्र लिखकर फांसी की सजा को आजन्म कारावास में बदलने की प्रार्थना की। लेकिन वायसराय ने शर्त रखी कि हेमू अपने दोनों साथियों के नाम बता दे। लेकिन हेमू ने शर्त अस्वीकार कर बलिदान का पथ चुना। अंततः 21 जनवरी 1943 को 19 वर्ष की अल्प आयु में प्रातः काल 7:55 पर हेमू कालाणी को सक्खर की जेल में फांसी दे दी गई।
देश अपने उस किशोर बलिदानी को भुला नहीं। 18 अक्टूबर 1983 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने माता जेठी बाई की उपस्थिति में हेमू कालाणी पर 50 पैसे का डाक टिकट जारी किया। देश के तमाम शहरों यथा इंदौर, जयपुर, राजनांदगांव, जोधपुर, अजमेर, उल्हासनगर आदि में चौराहों के नाम हेमू कालानी चौक रखे गए। फैजाबाद में एक पार्क का नाम रख , हेमू कालाणी की 15 फीट ऊंची प्रस्तर प्रतिमा स्थापित की गई। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के मुख्य चौराहे कचहरी चौक में प्रतिमा स्थापित कर वार्ड का नाम हेमू कालाणी वार्ड रखा गया। तो दिल्ली में एक विद्यालय का नाम शहीद हेमू कालाणी सर्वोदय बाल विद्यालय रख श्रद्धांजलि अर्पित की गई। स्वाधीनता के युद्ध का यह किशोर नायक करोड़ों भारतीयों के दिलों में हमेशा जीवित जाग्रत रहेगा।
•••
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."