दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट
बहराइच, ‘खो रहे हैं वो सब एक-एक करके मुझसे, जो लोग मुझे संभाल कर रखने वाले थे’। यह पंक्तियां नगरौर के वृद्धाश्रम में बुढ़ापा काट रहे राष्ट्रपति पदक से सम्मानित बुजुर्ग अवध शरन मिश्र की व्यथा को बयां करती है।
जिन हाथों के नवाचार से जगमग हुई महाराष्ट्र की गलियों ने वर्ष 1994 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा के हाथों पदक दिलाया था। वह हाथ अब दो-दो पैसे के मोहताज तो हैं ही, बिगड़े औलाद ने उनके हुनर के रंग पर ऐसी कालिख पोत दी, कि न तो उद्योग बचा और न ही बुढ़ापे की लाठी औलाद ही काम आई। मुफलिसी में वह अपनों से दूर रहकर बेनाम जिंदगी गुजार रहे हैं।
गोंडा जिले के तरबगंज के रहने वाले 80 वर्षीय अवध शरन मिश्र पेशे से इलेक्ट्रिक इंजीनियर थे। महाराष्ट्र में अपनी मेहनत के बल पर इलेक्ट्रिक फैक्ट्री की नींव डाली। वे बताते हैं कि वर्ष 1990 में इलेक्ट्रिक के क्षेत्र में उन्होंने कई बड़े काम मुंबई में किए थे। तीन दशक पहले उनके नवाचार से अंधेरी समेत कई गलियां जगमग हो उठी थी। वर्ष 1994 में महाराष्ट्र एक कार्यक्रम में आए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने पदक से सम्मानित किया था। राष्ट्रपति के हाथों मिले पदक ने उनकी प्रतिभा को और आकार दिया। 1996 में अचानक उनकी तबियत खराब हो गई। चिकित्सकों ने हार्ट सर्जरी की सलाह दी, अमेरिका में उन्होंने सर्जरी कराई।
चिकित्सकों ने ग्रामीण परिवेश में चार माह बिताने का सुझाव दिया। वे बताते हैं कि उनके एक ही बेटा था। फैक्ट्री की देखभाल की जिम्मेदारी बेटे को सौंप कर वे गांव तरबगंज आ गए। यहीं से उनके पतन की कहानी शुरू हो गई। वे जब महाराष्ट्र लौटे तो फैक्ट्री कर्ज में डूब चुकी थी। बेटा नशे का आदी हो चुका था। फैक्ट्री नीलाम हो गई। कुछ दिन बाद बेटे की भी जीवनलीला समाप्त हो गई। बेटियों की पहले ही शादी कर चुके थे। हताश व निराश होकर वह गांव लौट आए। बैंक खातों में बचे धन की लालच में परिवार के लोगों ने कुछ माह सहारा दिया। इसी दौरान बेटे के गम में पत्नी भी काल के गाल में समा गई।
बेटियों ने समझा बोझ, कर दिया बेघर
बेबस शिव शरन ठौर के लिए बेटियों के घर पहुंचे। कुछ दिन पिता की सेवा की, लेकिन वह भी बूढ़े बाप की परवरिश का बोझ ज्यादा दिन नहीं उठा सकी। लिहाजा दबे पांव वहां से निकले तो खुटेहना एक रिश्तेदार के यहां ठौर लिया, वहां भी वह छले गए। बैंक खातों में जमा ढाई लाख रुपये लेकर एक माह बाद उन्होंने भी बेघर कर दिया।
प्रबंधक से हुई मुलाकात, पहुंचे आरएम
वे बताते हैं कि वर्ष 2018 में वृद्धाश्रम के प्रबंधक दिलीप कुमार द्विवेदी से उनकी मुलाकात हुई तो वह अपने साथ आश्रम ले आए। पिछले चार सालों से आश्रम में रहकर बुढ़ापे की बची जिंदगी को काट रहे हैं। वे बताते हैं कि बेटियां बड़े घरानों में ब्याही हैं। उनके वृद्धाश्रम में रहने की जानकारी बाहर आने पर बदनामी होगी। 80 साल की उम्र में बेघर करने वाली औलादों के बारे में अच्छी सोच रखने वाले शिव शरन के प्रति बेटियों व रिश्तेदारों का रवैय्या समाज में फैल रही विकृति की परिचायक है।
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Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."