संजय कुमार शर्मा की रिपोर्ट
उमरिया/मध्य प्रदेश। ‘मैं वन संपदा से भरपूर मध्य प्रदेश का जिला उमरिया हूं। भगवान राम वन जाते समय मेरे ही कई हिस्सों से होकर निकले। तब से मर्यादा पुरुषोत्तम के साथ बना जुड़ाव आज भी सतत है। यही कारण है कि उनकी लीलाओं के मंचन का लंबा और स्वर्णिम इतिहास मेरे दामन की गौरवशाली उपलब्धि है।
वर्ष 1900 में पहली बार मैं अपने यहां हुई रामलीला का साक्षी बना और यह 122 वां वर्ष है, जब एक बार फिर हम रामलीला का मंचन देखेंगे। मेरे उत्साही श्रद्धालुओं ने शुरुआत में लीला का मंचन स्वयं किया, बाद में दूसरी मंडलियों से भी कराया लेकिन आपात स्थितियों को छोड़कर कभी भी बाधा उत्पन्न नहीं होने दी। प्रारंभ के दिनों में जिन्होंने रामलीला का मंचन खुद किया, वे तो अब स्वयं भगवान की चरणधूली में समा चुके हैं लेकिन आयोजकों का दायित्व आज की पीढ़ी भी बिल्कुल विरासत की तरह संभाल रही है।
मुझे आज भी अच्छी तरह याद है, आयोजन के प्रारंभिक वर्षा में मेरे यहां रामलीला का आयोजन दिन में हुआ करता था। उस समय प्रकाश व्यवस्था के लिए बिजली जैसी सुविधा थी नहीं और वन प्रांत होने के कारण रात में जंगली जानवरों का भय भी रहता था। इसलिए पुराने पड़ाव पर मंच बनाकर दिन में ही रामलीला का आयोजन होता था। इसमें महिलाएं, बच्चे और कुछ पुरुष इसका आनंद उठा लेते थे लेकिन व्यापारी इस पुण्य से वंचित रह जाते थे।
धर्म में गहरी आस्था रखने वाले व्यापारी वर्ग ने इसका आयोजन रात को कराने का बीड़ा उठाया। समस्या यह थी कि रात में आयोजन के दौरान प्रकाश व्यवस्था के लिए मशालें जलानी होंगी तो उसका खर्च कौन उठाएगा। तब व्यापारियों ने किसी एक पर इसका भार न डालकर स्वयं सब व्यापारियों पर धर्मदा कर लगा दिया। इससे एकत्र होने वाले धन से रामलीला के आयोजन और रात में मशाल जलाने का खर्च पूरा होने लगा। मशालों में सरसों का तेल जलाया जाता था जिससे अच्छी रोशनी हो जाती थी। कई मशालें एक साथ जलने के कारण जंगली जानवरों का खतरा भी नहीं रहता था और मशाल की लौ के कारण उत्पन्न होने वाली गर्मी लोगों को ठंड से राहत भी देती थी।
कई मंडलियां बनी
मैं इस बात का भी साक्षी हूं कि उमरिया जिले में रामलीला की कई मंडलियां बनी जिसमें सभी वर्ग के लोगों ने मिलकर हिस्सा लिया और इस परंपरा को जारी रखा। पहले जब मेरे यहां रामलीला प्रारंभ हुई तो लाल हरवंश प्रताप सिंह ने इसकी नींव रखने में अहम भूमिका का निर्वहन किया। उनके बाद रणविजय प्रताप सिंह और उनके बाद नरेंद्र प्रताप सिंह व अजय सिंह ने परंपरा को बनाए रखा। प्रारंभिक वर्षों में खलेसर, बरसपुर और पिपरिया की मंडली बनी जिनमें स्थानीय लोगों ने ही विभिन्न चरित्रों को मंचित किया। प्रारंभिक वर्षों में ग्राम सरसवाही के मेंदनी सिंह, अवध महराज, भइया दयाल तिवारी, जलज महाराज सहित कई लोगों ने अहम भूमिका निभाई।
राष्ट्रीय रामलीला का गौरव
मेरे लिए यह गर्व का विषय है कि मेरे प्रांगण में राष्ट्रीय रामलीला का आयोजन भी हो चुका है। वर्ष 2000 में जब मैंने रामलीला मंचन के सौ साल पूरे किए थे, तब यहां राष्ट्रीय रामलीला का आयोजन किया गया। इसमें कई प्रदेशों की रामलीला मंडलियां यहां आईं और सबने अपनी-अपनी शैली में रामलीला का मंचन किया। इनमें वृंदावन (उत्तर प्रदेश), ओडिशा, राजस्थान और महाराष्ट्र की मंडलियां शामिल थीं। मैं इस बात पर भी उत्साहित हूं कि तीन वर्ष बाद जब मेरे यहां रामलीलाओं के मंचन का 125वां वर्ष होगा, तब भी राष्ट्रीय स्तर का आयोजन करने की तैयारी के लिए आयोजन अभी से जुट गए हैं।
सजीव चित्रण हमारी विशेषता
मैं आज आत्मविभाेर हूं और भगवान राम की लीलाओं की चर्चा में डूबा हूं। क्यों न डूबूं? मेरे यहां भगवान की लीला होती ही इतनी सजीव है। आप सुनकर आश्चर्य करेंगे कि मेरे यहां होने वाली रामलीला में जब भगवान राम का विवाह जनक सुता से होता है तो वह लीला पूरी तरह सजीव हो जाती है। नगर के लोग दो हिस्सों में बंट जाते हैं। कुछ वर पक्ष के हो जाते हैं, तो कुछ वधुपक्ष के। नगर में सजीव बारात निकलती है और सजीव द्वारचार होते हैं। पांव पखारने का नेग हो या कोई दूसरा, बिल्कुल उस तरह होता है जैसे हमारे भारतीय समाज के विवाह में होता है। नगर के लोग कन्यादान और पांव पखारी के नेग में खुलकर दान करते हैं। सब रामलीला मंडली का इतना सम्मान करते हैं कि उन्हें अपने यहां भाेजन कराने के लिए समय-सारणी तय करनी पड़ जाती है। इसे यूं समझिये कि नंबर लगाना पड़ता है।’
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."