अनिल अनूप
प्राकृतिक आपदाओं को रोक पाना भले ही इनसान के हाथ में न हो, लेकिन ऐसी व्यवस्था की जा सकती है कि जनता को कम नुक्सान हो।
हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में तेज़ बरसात और बादल फटने से बाढ़ आती है और प्रतिवर्ष लोग, मवेशी, जंगली जानवर कष्ट के दौर से गुजरते हैं। जमीन, जंगलों, सड़कों और दूसरी सरकारी सम्पत्ति का नुक्सान भी होता है। देश के उत्तर पूर्वी राज्यों में भी बाढ़ का कहर बराबर बरपता है। असम में आई बाढ़ ने यह साबित कर दिया कि प्राकृतिक आपदाओं पर नियंत्रण कर पाना बहुत ही कठिन है। असम में 173 लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं और करीब 30 लाख लोग, प्रदेश के 30 जिलों में बाढ़ और बरसात के कहर से प्रभावित हुए हैं। हिमाचल और उत्तराखंड में आने वाली बाढ़ अपने साथ पहाड़ों का एक बड़ा हिस्सा, जिसमें पेड़ नहीं हैं या अधिक कटान किया गया है, या सड़कों और पन बिजली परियोजनाओं के लिए सुरंगों का निर्माण किया गया है, अपने साथ बहा ले जाती है। पिछले साल किन्नौर, कुल्लू, सोलन, सिरमौर जिलों में न केवल सड़कें बह गई थी, अपितु बड़े पहाड़ भी भूस्खलन का शिकार हुए थे। शिमला के करीब आठ मंजिला इमारत भी जमीन में मिल गई थी। किन्नौर की सांगला घाटी में बरसात के कारण, नालों में बाढ़ आ गई, चट्टानें खिसकने से सड़कों पर यातायात रुक गया और टोंगटोंगचे व सेरिंगचे नाले में आई बाढ़ ने काफी नुक्सान किया। लाहुल स्पीति घाटी में भी बरसात ने कहर ढाया।
मंडी-कुल्लू हाईवे, जो अत्यधिक यातायात के कारण दिन-रात व्यस्त रहता है, कुछ दिन पूर्व चट्टानों के खिसक कर सड़क पर आ जाने से कई घंटे बंद रहा। मंडी-कुल्लू-मनाली हाईवे पर बायीं तरफ पहाड़ हैं जो कई सालों से मजबूती से खड़े थे, लेकिन जैसे ही सड़कों को चौड़ा करने का काम किया जाने लगा, पहाड़ कमज़ोर होने लगे। इन्हीं पहाड़ों का सीना चीर कर चौड़ी सड़कों का निर्माण शुरू हुआ। पहाड़ों में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सुरंगें बनाई गई और बनाई जा रही हैं। पिछले साल भी हिमाचल में मानसून ने तबाही मचाई थी। लोगों के घर, जमीन और सड़कें पानी में बह गई थी। गाडियां भूस्खलन की चपेट में आ गई थी। कितने लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इनमें एक बड़ा हिस्सा पर्यटकों का भी था, जो अपनी जान जोखिम में डालकर हिमाचल के दुर्गम क्षेत्रों में सैर सपाटे के लिए निकले थे। हिमाचल राज्य आपदा प्रबंधन विभाग ने प्रदेश के सभी 12 जिलों के डिप्टी कमिशनर्स को यह आदेश दिया है कि वे मानसून को लेकर चौकन्ने रहें और अपने-अपने जिले के निवासियों को इस के बारे में समय-समय पर सूचना देते रहें। राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के प्रधान सचिव ओंकार शर्मा के अनुसार, ‘इस बार विभाग ने पहाड़ी से पत्थर गिरने, शूंटिग स्टोन और भूस्खलन की घटनाओं को रोकने के लिए अर्ली वार्निंग सिस्टम स्थापित किए हैं, जो जमीन में किसी तरह की हलचल की पहले ही जानकारी देकर आपदा से बचाने में मदद करेगा और किसी भी अनहोनी से पहले ही अलर्ट कर देगा।’ उधर सिरमौर जिले में प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए, 259 पंचायतों के 5180 वालंटियर तैयार करने का निर्णय लिया है जो मानसून के मौसम में मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करेंगे और 20-20 वालंटियर की टुकडि़यां विभिन्न जगहों पर काम करेंगी।
हिमाचल में कुल्लू, मनाली, सोलन, शिमला, किन्नौर और कांगड़ा के कुछ क्षेत्र प्राकृतिक आपदाओं का अधिक शिकार होते हैं। उसकी वजह यहां पर अत्यधिक भवन निर्माण, जंगलों का कटान, नदियों की देखरेख में कमी और नदियों के किनारों पर अंधाधुंध अतिक्रमण है। मनाली और कुल्लू में ब्यास नदी के किनारों पर इतना भवन निर्माण हुआ है कि नदी का दम घुटने लगा है। पलचान से लेकर थलोट तक नदी का पूरा संतुलन बिगड़ गया है। मनाली के अधिकतर होटलों का मैला नदी में गिराया जाता है। नदी से पत्थरों का खनन, नदी को समतल कर देता है, अधिक बरसात के कारण नदी का बहाव अपने साथ सब कुछ बहा ले जाता है। हर साल कितने ही वाहन और पेड़-पौधे तथा पशु नदी में बह जाते हैं। पर्यावरण की सुध न लेना और विकास कार्यों की दौड़ पहाड़ों, नदियों और वातावरण के संतुलन के लिए घातक है। प्राकृतिक आपदाओं को रोक पाना भले ही इनसान के हाथ में न हो, लेकिन ऐसी व्यवस्था की जा सकती है कि जनता को कम नुक्सान हो। बहुमंजिला इमारतों के निर्माण पर रोक लगाना ज़रूरी हो गया है। पहाड़ों पर वृक्षारोपण, पेड़ों की कटाई पर रोक, नदियों के किनारों पर मज़बूत दिवारों का निर्माण, बारिश के पानी का संरक्षण, पहाड़ों पर सरकार की मदद से लोगों को पानी बचाने के तरीकों के बारे में जागृत करना, जल भंडारण के लिए जलाशय बनाने की सलाह देना जरूरी है ताकि बारिशों का पानी संचित किया जा सके।
हिमाचल की भौगोलिक संरचना ऐसी है कि यहां पर भूकंप, बादल फटने से आने वाली बाढ़, नदियों में जलस्तर बढ़ने से बाढ़, पहाड़ के गिरने से भूस्खलन, सड़कों के धंसने से आम जीवन अस्तव्यस्त होने की संभावना बनी रहती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सरकार ने और आपदा प्रबंधन ने इन सब मामलों को गंभीरता से लिया है, लेकिन इन सब उपायों और परियोजनाओं में हिमाचल की जनता की भागीदारी और बढ़ानी होगी। सरकार को रखरखाव और ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए आधुनिक उपकरणों का और प्रयोग करना होगा। बरसात के दिनों में प्रदेश में भारी वाहनों का प्रवेश किसी हद तक नियंत्रित करना होगा। जहां-जहां भूस्खलन की आशंका है, उन सब जगहों को चिन्हित कर उन्हें ट्रबल स्पॉट का नाम देकर, उस क्षेत्र में समस्याओं को निपटाने के व्यापक प्रबंध करने होंगे। आने वाले समय में किन्नौर, कुल्लू, मनाली, शिमला के आसपास ऐसी परियोजनाओं और निर्माण पर कड़ी नज़र रखनी होगी कि वे किसी कानून की अवहेलना तो नहीं कर रहे। भीड़ भरे पहाड़ी क्षेत्रों में इस बात का पता लगाना होगा कि कितने भवन पुराने हो चुके हैं और किन घरों में रहना सुरक्षित नहीं है। उसके आसपास की जमीन की भी परख करनी होगी कि क्या वह जमीन पानी का अकस्मात बहाव सहन कर पाएगी। जब तक पर्यावरण के प्रति जागरूकता और आपसी भागीदारी नहीं होगी, हम प्राकृतिक आपदाओं के कहर का शिकार होते रहेंगे।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."