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November 1, 2024 3:54 pm

दुनिया को शब्दों से हिलाने वाले थे कवि शैलेंद्र….कोई महान शख्सियत अगर दलित हो तो उसकी जाति के उजागर होने में क्या दिक्कत है?

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– अनिल अनूप

दलित प्रतिभापुंज शैलेन्द्र अपने समय के अत्यंत महत्वपूर्ण गीतकार थे, जिनके लिखे गीत न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी मशहूर हैं। उनके गीतों की दम पर ही ”आवारा” जैसी फिल्मों को वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता हासिल हुई। लेकिन उनके योगदान की हमेशा अनदेखी हुई और आज तक केन्द्र या राज्य सरकारों ने उन्हें कोई छोटा-सा पुरस्कार भी नहीं दिया, जबकि वे दादासाहेब फाल्के पुरस्कार और यहाँ तक कि भारत रत्न के हकदार हैं।

बिहार के आरा जिले के धुसपुर गांव के दलित परिवार से ताल्लुक रखने वाले शैलेन्द्र का असली नाम शंकरदास केसरीलाल था।

शैलेंद्र, जो कि एक महान हिंदी गीतकार और कवि थे, का जन्म 30 अगस्त 1923 को रावलपिंडी में हुआ था। उनके परिवार का मूल स्थान बिहार के भोजपुर था, लेकिन उनके पिता की तैनाती रावलपिंडी में होने के कारण उनका परिवार वहां बस गया। 

पिता की बीमारी और आर्थिक तंगी के चलते पूरा परिवार रावलपिंडी से मथुरा आ गया, जहां शैलेन्द्र के पिता के बड़े भाई रेलवे में नौकरी करते थे। मथुरा में परिवार की आर्थिक समस्याएं इतनी बढ़ गयीं कि उन्हें और उनके भाईयों को बीड़ी पीने पर मजबूर किया जाता था ताकि उनकी भूख मर जाये। इन सभी आर्थिक परेशानियों के बावजूद, शैलेन्द्र ने मथुरा से इंटर तक की पढ़ाई पूरी की। परिस्थितियों ने शैलेन्द्र की राह में कांटे बिछा रखे थे और एक वक्त ऐसा आया कि भगवान शंकर में असीम आस्था रखनेवाले शैलेन्द्र ने ईश्वर को पत्थर मान लिया। गरीबी के चलते वे अपनी इकलौती बहन का इलाज नहीं करवा सके और उसकी मृत्यु हो गई।

किसी तरह पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने बम्बई जाने का फैसला किया। यह फैसला तब और कठोर हो गया जब उन्हें हॉकी खेलते हुए देख कर कुछ छात्रों ने उनका मजाक उड़ाते हुए कहा कि ‘अब ये लोग भी खेलेंगे।’ इससे खिन्न होकर उन्होंने अपनी हॉकी स्टिक तोड़ दी। शैलेन्द्र को यह जातिवादी टिपण्णी गहरे तक चुभी।

बम्बई में उन्हें माटुंगा रेलवे कें मेकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में अपरेंटिस के तौर पर काम मिल गया। लेकिन वर्कशॉप के मशीनों के शोर और महानगरी की चकाचौंध के बीच भी उनके अन्दर का कवि मरा नहीं और उन्हें अक्सर कागज-कलम लिए अपने में गुम अकेले बैठे देखा जाता था।

काम से छूटने के बाद वे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के कार्यालय में अपना समय बिताते थे, जो पृथ्वीराज कपूर के रॉयल ओपेरा हाउस के ठीक सामने हुआ करता था। हर शाम वहां कवि जुटते थे। यहीं उनका परिचय राजकपूर से हुआ और वे राजकपूर की फिल्मों के लिये गीत लिखने लगे।

उनके गीत इस कदर लोकप्रिय हुये कि राजकपूर की चार-सदस्यीय टीम में उन्होंने सदा के लिए अपना स्थान बना लिया। इस टीम में थे शंकर-जयकिशन, हसरत जयपुरी अउर शैलेन्द्र। उन्होंने कुल मिलाकर करीब 800 गीत लिखे और उनके लिखे ज्यादातर गीत लोकप्रिय हुए। उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से समतामूलक भारतीय समाज के निर्माण के अपने सपने और अपनी मानवतावादी विचारधारा को अभिव्यक्त किया और भारत को विदेशों की धरती तक पहुँचाया।

उन्होंने दबे-कुचले लोगों की आवाज को बुलंद करने के लिये नारा दिया -”हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा हैष्। यह नारा आज भी हर मजदूर के लिए मशाल के समान है।

शैलेंद्र ने अपने कॉलेज के दिनों में ही कविता में रुचि दिखानी शुरू कर दी थी। वे आज़ादी से पहले नवोदित कवि के रूप में कवि सम्मेलनों में भाग लेते थे और उनकी कविताएं प्रमुख पत्रिकाओं जैसे हंस, धर्मयुग, और साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशित होती थीं।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, वे अपने कॉलेज के साथियों के साथ जेल गए थे, और जेल से छूटने के बाद, उनके पिता ने उन्हें काम करने की सलाह दी।

उनकी बेटी अमला शैलेंद्र के अनुसार, शैलेंद्र को जल्दी ही यह समझ में आ गया कि परिवार का पालन-पोषण करने के लिए उन्हें नौकरी करनी होगी। इस परिस्थिति में, उन्होंने साहित्य को छोड़कर रेलवे की परीक्षा पास की और झांसी में काम करना शुरू किया। बाद में उनकी पोस्टिंग मुंबई में हो गई।

 

मुंबई में रहते हुए, शैलेंद्र का मन रेलवे के काम में नहीं लगता था, और वे अक्सर किसी पेड़ के नीचे बैठकर कविता लिखते थे। उनके साथी उन्हें कहते थे कि काम से ही घर चलेगा, कविता से नहीं। लेकिन यही कविताएं ही शैलेंद्र को उनके भविष्य में सफलता दिलाने वाली साबित हुईं।

शैलेंद्र की सरलता और सहजता के साथ लिखी गई कविताएं और गीत आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं। उनकी मौजुदा 43 साल की उम्र में निधन के बाद भी, उनके गाने और शब्द लोगों की जुबां पर बने हुए हैं, जो उनकी अमर काव्यात्मक प्रतिभा की गवाही देते हैं।

शैलेंद्र, एक प्रभावशाली गीतकार और कवि, ने अपने करियर के दौरान भारतीय संगीत और सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके प्रगतिशील विचार और कविता की गहरी समझ के चलते वे इप्टा (Indian People’s Theatre Association) और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े। 

1947 में, जब भारत आज़ादी और विभाजन के बीच उलझा हुआ था, शैलेंद्र ने एक गीत लिखा, “जलता है पंजाब साथियों…”, जो भारतीय जन नाट्य संघ के एक आयोजन में गाया गया। इस गीत को सुनने के लिए वहां राजकपूर भी मौजूद थे, जो उस समय मात्र 23 साल के थे और अपनी पहली फ़िल्म ‘आग’ बनाने की तैयारी में थे।

राजकपूर ने शैलेंद्र की प्रतिभा को पहचाना और उनसे गीत लिखवाने की इच्छा जताई। अमला शैलेंद्र बताती हैं कि राजकपूर ने शैलेंद्र से यह गीत मांगा, लेकिन शैलेंद्र ने कहा कि वे पैसे के लिए नहीं लिखते। इस समय शैलेंद्र की निजी जिंदगी में शादी के बाद आर्थिक तंगी आ गई थी। 

जब उनकी पत्नी गर्भवती हुईं और आर्थिक ज़रूरतें बढ़ी, तो शैलेंद्र ने राजकपूर से संपर्क किया। उस समय राजकपूर अपनी फ़िल्म ‘बरसात’ में दो और गानों की जरूरत महसूस कर रहे थे। शैलेंद्र ने इस फ़िल्म के लिए “हमसे मिल तुम सजन, तुमसे मिले हम” और “पतली कमर है, तिरछी नज़र है” जैसे गाने लिखे।

इस सहयोग के बाद, शैलेंद्र और राजकपूर का साथ अगले 16-17 वर्षों तक बना रहा। शैलेंद्र ने ‘बरसात’ से लेकर ‘मेरा नाम जोकर’ तक राजकपूर की सभी प्रमुख फ़िल्मों के गीत लिखे। 

राजकपूर शैलेंद्र को ‘कविराज’ कहकर बुलाते थे। फ़िल्म ‘आवारा’ का गाना “आवारा हूं, आवारा हूं, गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं” बहुत लोकप्रिय हुआ। अमला शैलेंद्र बताती हैं कि इस गाने की लोकप्रियता का एक उदाहरण तब देखने को मिला जब तुर्कमेनिस्तान के एक परिवार के सदस्य ने इस गाने को रूसी भाषा में गाया। इसी तरह, रूसी साहित्यकार अलेक्जेंडर सोल्ज़ेनित्सिन की किताब ‘द कैंसर वार्ड’ में एक नर्स इस गाने को गाकर एक मरीज की तकलीफ़ कम करती है।

शैलेंद्र ने धर्मयुग के 16 मई, 1965 के अंक में ‘मैं, मेरा कवि और मेरे गीत’ शीर्षक से एक आलेख लिखा, जिसमें उन्होंने बताया कि “आवारा” के गीत को शुरू में राजकपूर ने अस्वीकार कर दिया था। लेकिन फ़िल्म की पूरी होने के बाद, उन्होंने फिर से गीत सुनने को कहा और इसे फ़िल्म के मुख्य गीत के रूप में शामिल किया।

शैलेंद्र ने अपनी कविताओं में जीवन के अनुभवों को बखूबी उतारा और साथ ही फ़िल्मी धुनों का भी ध्यान रखा। एक बार, जब राजकपूर की टीम के संगीतकार शंकर-जयकिशन के साथ उनके मतभेद हो गए, तो शैलेंद्र ने एक नोट भेजा जिसमें लिखा था, “छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते, तुम कभी तो मिलोगे, कहीं तो मिलोगे, तो पूछेंगे हाल।” इस नोट ने उनके मतभेदों को समाप्त कर दिया और दोनों के बीच की साझेदारी बनी रही।

1963 में, शैलेंद्र के समकालीन कवि साहिर लुधियानवी ने फ़िल्म फेयर अवार्ड लेने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि शैलेंद्र का गाना “मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे” उनके अनुसार साल का सबसे अच्छा गाना था। 

फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी पर आधारित फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ के निर्माण के दौरान शैलेंद्र को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। यह फ़िल्म वित्तीय रूप से असफल रही और कहा जाता है कि इसी कारण उनकी मृत्यु हुई। हालांकि, अमला शैलेंद्र इस बात से इनकार करती हैं कि फ़िल्म की असफलता उनके निधन का कारण थी। उनका कहना है कि शैलेंद्र ने कभी पैसे की चिंता नहीं की और वे फ़िल्म उद्योग के सबसे अधिक भुगतान पाने वाले लेखकों में से एक थे। शैलेंद्र का मानना था कि फ़िल्म की असफलता से उनकी मृत्यु का कोई संबंध नहीं था।

शैलेंद्र, जिन्होंने भारतीय सिनेमा को अमूल्य गीत दिए, का निधन 14 दिसंबर 1966 को महज 43 साल की उम्र में हुआ। उनकी मृत्यु का कारण लिवर सिरोसिस था, जिसे अत्यधिक शराब पीने के चलते माना जाता है। दिलचस्प बात यह है कि उनका निधन उसी दिन हुआ जब राजकपूर का जन्मदिन मनाया जाता है।

राजकपूर, जो शैलेंद्र के करीबी मित्र और सहयोगी थे, ने नार्थकोट नर्सिंग होम में अपने दोस्त की मौत के बाद गहरा शोक व्यक्त किया। उन्होंने कहा, “मेरे दोस्त ने जाने के लिए कौन सा दिन चुना, किसी का जन्म, किसी का मरण. कवि था ना, इस बात को ख़ूब समझता था।” राजकपूर ने इस टिप्पणी से शैलेंद्र की कवि-प्रवृत्ति और उनके गहरे संवेदनशीलता को दर्शाया।

अमला शैलेंद्र ने यह भी खुलासा किया कि फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ के निर्माण के दौरान शैलेंद्र को कई लोगों से धोखा मिला था। उनके करीबी रिश्तेदारों और दोस्तों ने उन्हें वित्तीय रूप से ठगा, जिससे वे भावनात्मक रूप से आहत हो गए थे। अमला कहती हैं कि कई लोग, जिनकी पहचान ज़्यादातर उनके जान-पहचान के दायरे में थी, ने शैलेंद्र को लूटा। यह स्थिति उनके लिए बहुत ही कठिन और पीड़ादायक थी।

फिल्म ‘तीसरी कसम’ को बाद में एक कल्ट फ़िल्म माना गया और इसके लिए शैलेंद्र को राष्ट्रपति स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया। प्रसिद्ध निर्देशक ख़्वाजा अहमद अब्बास ने इस फ़िल्म को सैलूलाइड पर लिखी कविता के रूप में वर्णित किया, जो शैलेंद्र के निर्माण के प्रति उनकी गहरी प्रशंसा को दर्शाता है।

शैलेंद्र के जाने के बावजूद, वे भारतीय फ़िल्मों को 800 से अधिक गीतों के रूप में अमूल्य धरोहर दे गए हैं। ये गीत उनकी याद को हमेशा जीवित बनाए रखेंगे और उनकी रचनात्मकता और काव्यात्मक प्रतिभा को हमेशा लोगों के दिलों में बनाए रखेंगे।

 

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."