–अनिल अनूप
{ कमबख़्त दिल भी क्या चीज़ है जो मचलता हुआ ही अच्छा लगता है। उसका ठहरना गज़ब ढहा जाता है। ये दिल मानने को राज़ी नहीं कि आप (राहत इंदौरी) कहीं और अपना मकां तलाशने निकल गए हैं। ये दिल ही तो है जो बार बार कह रहा है कि काश आप उठते और कहते,
अभी गनीमत है सब्र मेरा, अभी लबालब भरा नहीं हूं मैं
वो मुझको मुर्दा समझ रहा है उसे कहो मरा नहीं हूं मैं
जाहिल..जाहिल..जाहिल..। बहुत चर्चा में रहा इन दिनों यह शब्द। सुना था..काला अक्षर भैंस बराबर होने की वजह से कुछ लोग जाहिल होते हैं और कुछ पढ़े-लिखे होकर भी जाहिल बने रहते हैं। कोरोना संकट ने ऐसे कुछ जाहिलों को बेपरदा कर दिया। सड़कों से लेकर सोशल मीडिया तक कुछ पढ़े-लिखे अपनी जहालत दिखाते रहे। कुछ मेडिकल टीम पर हमले या बीमारी को छिपाकर इस महासंकट को बढ़ाते रहे। इस बीच कुछ इल्म वालों ने कहा, अगर किसी समाज में जहालत के ऐसे विषाणु या जरासिम आ जाएं तो उन्हें पहले खुद अपने घर की सफ़ाई करना चाहिए।
बात एकदम सही लगी। चूंकि जहालत दिखाने वाले दूसरे कुछ समुदायों की तरह मुस्लिम समाज के लोग भी रहे, इसलिए इस विषय में मशहूर शायर और शिक्षाविद् डॉ. राहत इंदौरी से फोन पर मैने कोरोना काल में बात की। बरसों तक कॉलेज में प्रोफेसर रहे डॉ. राहत इंदौरी ने क्या कहा, बता रहे हैं राहत साहब से मुस्लिम समाज को लेकर बात से पहले उनकी लिखी एक बहुत पुरानी ग़ज़ल के 2 शेर भी याद आ गए।
वो पांच वक्त नज़र आता है नमाज़ों में
मगर सुना है शब को जुआ चलाता है
ये लोग पांव से नहीं ज़हन से अपाहिज हैं
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है }
मेरा पहला सवाल था…संकट के समय भी जहालत? यह जहालत कैसे दूर होगी?
डॉ. राहत इंदौरी कहने लगे, समाज से जहालत को दूर करने का काम फटाफट क्रिकेट की तरह नहीं है, जो 20 ओवर में ख़त्म हो जाएगा। यह तो बरसों पुराने जरासिम हैं। मुआशरा आज जिस अंधेरे में पहुंचा है। उस जहालत के पीछे बहुत सी वजहे हैं। अगर अपने अंदर झांकें तो हम समझ सकते हैं कि ऐसा क्यों हुआ? यह गुमराह होने और अच्छी बातों को न समझने की सलाहियत का भी मामला है।
बरसों तक इस मामले में ध्यान ना दिए जाने की वजह से ऐसा हुआ है। बेशक इसमें हमारे रहनुमाओं की भी बड़ी भूल है या उनकी तंग-नज़र खुदगर्ज़ी है। मगर जैसे मैंने कहा, यह फटाफट क्रिकेट नहीं है कि मैच ख़त्म होते ही काम हो जाएगा। यह लगातार किया जाने वाला काम है। यह काम तो समाज और इसके ज़िम्मेदार लोगों को हर दिन करना पड़ेगा। ताकि हम जिस तरह के समाज की कल्पना करते हैं, वो सही मायनों में साकार हो सके।
मगर हम एक अच्छे समाज के रूप में अपना आचरण कब बदलेंगे?
देखिए अचानक आई आपदाओं या महामारियों के वक्त भी इंसानी सुलूक बदल जाता है। आप पहले की महामारियों यानी प्लेग (ब्लैक डेथ) या इन्फ्लुएंजा के दौर को भी देख लीजिए..तब शासन फिरंगियों का था..मगर उस वक्त भी अवाम और निज़ाम में एक किस्म की रस्साकशी और तनातनी थी। उस वक्त भी आज के डॉक्टर्स, नर्सेस, मेडिकल स्टाफ़, पुलिस और समाजसेवियों की तरह समाज के सच्चे हीरो लोगों की मदद में जुटे थे। जबकि माहौल खऱाब करने वाले ग़ैर ज़िम्मेदार लोग अफवाहें फैलाने या समाज को दिग्भ्रमित करने का काम कर रहे थे। अपने दिमाग़ का संतुलन खो बैठे थे। बेशक हम अब पढ़े-लिखे समाज हैं। मुस्लिमों में भी शिक्षा का जबरदस्त प्रचार हुआ है। प्रतिशत बढ़ा है।
हम अब पहले जैसी स्थिति में नहीं हैं। फिर भी हमें ज़्यादा सजग और सावधान रहने की ज़रूरत है। सीखते रहने की ज़रूरत है। हमें एक राष्ट्र के रूप में भी बहुत सी बातों को जानने, समझने और सीखने की ज़रूरत है। वैसा ही आचरण की ज़रूरत है। हालात के हिसाब से अपने किरदार का सही रूप पेश करना हम सभी की ज़िम्मेदारी है। जानकारी ना होने पर भी कुछ लोग असंयमित व्यवहार करने लगते हैं। उस समय उन्हें सही मार्गदर्शन देने की ज़रूरत है। माहौल को भड़काना ठीक नहीं है। ऐसे मामलों में समझदार लोगों और पढ़े-लिखे लोगों की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है।
क्या हमारे ग़ैर ज़िम्मेदार होने में कोई मज़हबी रूकावट है? क्या तालीम में कुछ कमी रह गई है?
बच्चा पैदा होते ही हम उसके कान में आज़ान दे देते हैं। मज़हबी लिहाज से यह अच्छी बात है। परंतु इसके साथ-साथ हमारा मज़हब इल्म और तालीम (ज्ञान और शिक्षा) की बात भी कहता है। तालीम हमारे मज़हब में हर औरत और मर्द पर फर्ज़ है। मतलब जैसे कि नमाज़ फर्ज़ है। उसी तरह से इल्म फर्ज़ है। सभी जानते हैं कि पवित्र कुरआन में कहा गया है कि इल्म हासिल करने के लिए अगर आपको चीन जाना पड़े तो ज़रूर जाइए।
बच्चों को हम रोज़ा, नमाज़, हज, ज़कात जैसे अरकान के बारे में तो बता देते हैं, पर यह क्यों भूल जाते हैं कि भाई इल्म भी उसमें एक बुनियादी चीज़ है। मगर दुनियावी इल्म को हम भूल जाते हैं। दीनी इल्म पर ही सारा ध्यान देने लगते हैं। अगर ऐसा न हो तब दुनियावी जानकारी से महरूम एक जाहिल नस्ल पैदा हो जाती है। आप परेशान हो जाते हैं उन्हें अपने बीच देखकर जो कोरोना संकट के दौरान डॉक्टरों पर पत्थर फेंकने लगते हैं। बदसुलूकी करते हैं।
शुक्र इस बात का है कि हमारी सोसाइटी में जाहिल या गुमराह हुए लोगों की संख्या ऐसी नहीं है कि जिन्हें कंट्रोल ना किया जा सके। समाज को आगे बढ़ाने और अच्छा काम करने वाले लोग ऐसे लोगों से बहुत ज़्यादा हैं। मगर जिनमें कहीं कोई कमी या ख़राबी है। उनमें सुधार लाना और इसकी कोशिशें ज़रूरी हैं। ऐसे लोगों के लिए क़ानून अपनी जगह तो है ही। राहत साहब समाज को इल्म की हैसियत बताते हुए कहते हैं…
तूफ़ानों से आंख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो
वे कहते हैं, जब हम खुद ही जागरूक हो जाएंगे, रोशन हो जाएंगे तो फिर हमारे किरदार की खुशबू भी अलग होगी। उसमें गलतियों की गुंजाइश नहीं होगी क्योंकि जब किसी भी सोसाइटी में एक बार रोशनी पैदा हो जाती है तब अंधेरों का ठहरना मुश्किल हो जाता है। मेरी तो एक ही सलाह है खूब पढ़िए, इल्म हासिल की कीजिए। अपने समाज, अपने वतन का नाम रोशन कीजिए। अपनी सलाहियतों की एक मिसाल पेश कीजिए। कई क्षेत्रों में भारत के मुस्लिमों ने यह मिसाल कायम की है।
आपने कहा, अक्सर महामारियों या अचानक आई आपदाओं के वक्त इंसान का दिमाग़ी संतुलन खो जाता है। ऐसे में क्या करना चाहिए?
एक ग़ज़ल में मैंने कहा है…
आंख में पानी रखो, होठों पर चिंगारी रखो
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो
हमें जैसे भी हालात हों उसके हिसाब से खुद को ढालना आना चाहिए। हालात चाहें दुख के हों या सुख के। उसका इस्तकबाल करना चाहिए।
राहत इंदौरी (rahat-indori) मुशायरे के बादशाह थे, जहां जाते महफिल लूट लेते। उनमें कबीर जैसा फक्कड़पन और उनके जैसी ही निष्कंप दृढ़ता थी। वह खुले मंच से ललकार सकते थे, दहाड़ सकते थे, इशारों- इशारों में नहीं खुलेआम चुनौती दे सकते थे कि आती-जाती सरकारों से उन्हें क्या लेना। उनकी आवाज लोगों की आवाज बन जाती, अल्फाज जेहन में तैरने लगते। वह ऊर्दू के शायर थे लेकिन कोशिश हमेशा यही रहती कि उनकी बात हर किसी के दिल तक पहुंचे।
वह खुलकर कहते कि गजलें पहले इशारों में कही जाती थीं लेकिन उनके शेर में ऐसा कुछ नहीं है कि जो समझ में न आए। कोरोना और हार्ट अटैक ने मंगलवार को उनकी जान ले ली, मौत ने उन्हें ‘जमींदार’ कर दिया।
राहत इंदौरी बॉलीवुड गीतकार और उर्दू भाषा के मशहूर कवि थे। वो उर्दू भाषा के पूर्व प्रोफेसर और चित्रकार भी रहे। इस खबर के माध्यम से हम आपको बताएंगे राहत कुरैशी के राहत इंदौरी बनने और देश दुनिया में नाम कमाने की पूरी कहानी। साथ ही राहत इंदौरी के जीवन से जुड़ी हर खास जानकारी।
उनका जन्म 1 जनवरी 1950 को इंदौर में हुआ था। उनका पूरा नाम राहत कुरैशी था। उनके पिता का नाम रफतुल्लाह कुरैशी और मॉ का नाम मकबूल उन निसा बेगम है। वो इनकी चौथी संतान थे। उनकी 2 बड़ी बहनें हैं जिनका नाम तकीरेब और तहज़ीब है। उनका एक बड़ा भाई है जिसका नाम अकील और एक छोटा भाई है जिसका नाम आदिल है। उनकी शिक्षा दीक्षा भी मध्य प्रदेश में ही हुई थी।
आरंभिक शिक्षा देवास और इंदौर के नूतन स्कूल से प्राप्त करने के बाद इंदौर विश्वविद्यालय से उर्दू में एम.ए. और ‘उर्दू मुशायरा’ शीर्षक से पीएच.डी. की डिग्री हासिल की। उसके बाद 16 वर्षों तक इंदौर विश्वविदायालय में उर्दू साहित्य के अध्यापक के तौर पर अपनी सेवाएं दी और त्रैमासिक पत्रिका ‘शाखें’ का 10 वर्षों तक संपादन किया। पिछले 40-45 वर्षों से वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मुशायरों की शान बने हुए थे।
परिवार
राहत इंदौरी उर्फ राहत कुरैशी ने दो शादियां की थी। राहत इंदौरी के पिता रफ्तुल्लाह कुरैशी थे तो मां का नाम निशा बेगम था। उन्होंने पहली शादी 27 मई 1986 को सीमा राहत से की। सीमा से उनको एक बेटी शिबिल और 2 बेटे जिनका नाम फैज़ल और सतलज राहत है, हुए हैं। उन्होंने दूसरी शादी अंजुम रहबर से साल 1988 में की थी। अंजुम से उनको एक पुत्र हुआ, कुछ सालों के बाद इन दोनों में तलाक हो गया था।
राहत कुरैशी कैसे बने शायर राहत इंदौरी
राहत इंदौरी के शायर बनने की कहानी भी दिलचस्प है। वो अपने स्कूली दिनों में सड़कों पर साइन बोर्ड लिखने का काम करते थे। बताया जाता है कि उनकी लिखावट काफी सुंदर थी। वो अपनी लिखावट से ही किसी का भी दिल जीत लेते थे लेकिन तकदीर ने तो उनका शायर बनना मुकर्रर किया हुआ था। एक मुशायरे के दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर जां निसार अख्तर से हुई। बताया जाता है कि ऑटोग्राफ लेते वक्त राहत इंदौरी ने खुद को शायर बनने की इच्छा उनके सामने जाहिर की।
तब अख्तर साहब ने कहा कि पहले 5 हजार शेर जुबानी याद कर लें फिर वो शायरी खुद ब खुद लिखने लगेंगे। तब राहत इंदौरी ने जवाब दिया कि 5 हजार शेर तो मुझे पहले से ही याद है। इस पर अख्तर साहब ने जवाब दिया कि फिर तो तुम पहले से ही शायर हो, देर किस बात की है स्टेज संभाला करो। उसके बाद राहत इंदौरी इंदौर के आसपास के इलाकों की महफिलों में अपनी शायरी का जलवा बिखेरने लगे। धीरे-धीरे वो एक ऐसे शायर बन गए जो अपनी बात अपने शेरों के जरिए इस कदर रखते थे कि उन्हें नजरअंदाज करना नामुमकिन हो जाता। राहत इंदौरी की शायरी में जीवन के हर पहलू पर उनकी कलम का जादू देखने को मिलता था। बात चाहे दोस्ती की हो या प्रेम की या फिर रिश्तों की, राहत इंदौरी की कलम हर क्षेत्र में जमकर चलती थी।
शायरी और गजल इशारे का आर्ट
डॉ. राहत इंदौरी उर्दू तहज़ीब के वटवृक्ष सरीखे थे। लंबे अरसे से श्रोताओं के दिल पर राज करने वाले राहत इंदौरी की शायरी में हिंदुस्तानी तहजीब का नारा बुलंद था। कहते थे कि शायरी और गजल इशारे का आर्ट है, राहत इंदौरी इस आर्ट के मर्मज्ञ थे। वे कहते थे कि अगर मेरा शहर जल रहा है और मैं कोई रोमांटिक गजल गा रहा हूं तो अपने फन, देश, वक़्त सभी से दगा कर रहा हूं।
शायरी लिखने से पहले वह एक चित्रकार बनना चाहते थे और जिसके लिए उन्होंने व्यावसायिक स्तर पर पेंटिंग करना भी शुरू कर दिया था। इस दौरान वह बॉलीवुड फिल्म के पोस्टर और बैनर को चित्रित करते थे। यही नहीं, वह पुस्तकों के कवर को डिजाइन करते थे। उनके गीतों को 11 से अधिक बॉलीवुड ब्लॉकबस्टर फिल्मों में इस्तेमाल किया गया। जिसमें से मुन्ना भाई एमबीबीएस एक है। वह एक सरल और स्पष्ट भाषा में कविता लिखते थे। वह अपनी शायरी की नज़्मों को एक खास शैली में प्रस्तुत करते थे, इसलिए उनकी अलग ही पहचान थी।
राहत इंदौरी को शेर कहने के तरीके के लिए याद किया जाएगा। उनकी आवाज इतनी बुलंद थी कि मंच पर आते ही लोगों को खामोश कर देती। स्थिर होने में थोड़ा समय लगता लेकिन एक बार शुरू हो जाते तो महफिल उनकी हो जाती। वह शेर पढ़ते तो झूमकर पढ़ते, आसमान की तरफ देखते, ऐसा लगता कि वह अवाम ही नहीं खुदा से बातें कर रहे हैं। वह सत्ता ही नहीं खुदा को भी ललकार रहे हैं। वह इतराते, मुस्कुराते, शर्माते, अलहदा अंदाज में उनकी आवाज तेज होती जो अगले मिसरे में धीमी हो जाती।
कोई एक शब्द होता जिस पर जोर देते, उस शब्द के साथ एक खुस्की आती जिसमें कई तरह के बिंब निकलते जैसे विरोध के, बगावत के, चुनौती के, व्यंग्य के, मौज के, उसके बाद ही लग जाता कि अब कुछ ऐसा कहने वाले हैं जिसमें बड़ा संदेश होगा और आखिरी मिसरे तक आते-आते महफिल उनकी हो जाती। हर शेर के पीछे एक दर्द होता, एक कहानी होती।
उनका एक शेर है
मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना
लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना
हर महफिल में उनसे इस शेर की डिमांड होती थी। उनका अंदाज ऐसा होता कि जो इससे सीधे नहीं जुड़ते उन्हें इस बात का एहसास होता कि आखिर ऐसा कहने की नौबत ही क्यों आई?
मैं मर जाऊं—-कम से कम 3 बार कहते, और शब्दों के टोन में उतार चढ़ाव इतना नपा तुला होता कि सुनने वाला मन में सोचता कि ऐसा क्यों? फिर पूरी बात। ‘मैं मर जाऊं मेरी अलग पहचान लिख देना’ यहां महफिल को समझ में आ जाता कि किसे जवाब दिया जा रहा है। आखिरी वाक्य एक आदेश, एक चुनौती, एक जवाब के तौर पर कहते ‘मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना’। इसके बाद चेहरे पर संतोष का भाव होता, आंखों में चमक होती। जवाब उनका न होकर पूरे जनमानस का हो जाता।
राहत इंदौरी से पूछा, उम्रदराज होकर रोमांटिक शायरी कैसे लिखते हैं? दिल जीत लेगा जवाब
राहत इंदौरी कहते कि उनके लहजे को गाली, गुस्सा, नारा, शोर और चीख कहा जाता है। लेकिन उनका यह अपना अंदाज था और इससे समझौता करने वाले नहीं थे। ऐसा कहने वालों को जवाब देते हुए उन्होंने लिखा था…
जहां-जहां से टूटा है जोड़ दूंगा उसे
मुझे वो छोड़ गया ये कमाल है उसका
इरादा मैंने किया था कि छोड़ दूंगा उसे
पसीने बांटता फिरता है हर तरफ सूरज
कभी जो हाथ लगा तो निचोड़ दूंगा उसे
बातचीत करते हुए राहत इंदौरी ने कहा था कि 30 साल तक शायरी पढ़ाता रहा लेकिन मैं भी इसे समझ नहीं पाया। जितना समझ पाया उसके मुताबिक गजल पढ़ने के लिए, पढ़ाने के लिए, लिखने के लिए, समझाने के लिए आदमी को थोड़ा दीवाना, थोड़ा सा उत्साही, थोड़ा पागल, थोड़ा आशिक और थोड़ा बहुत बदचलन होना चाहिए। अपना बड़प्पन दिखाते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि वह बड़े शायर इसलिए नहीं हो पाए क्योंकि गजल के लिए जो शर्तें हैं उस पर वह खरे नहीं उतरे।
‘मायानगरी में शब्द मर गए हैं’
राहत इंदौरी ने फिल्मों के लिए गाने लिखे, वहां उन्होंने 20 साल काम किया। उन्होंने बताया था कि मर्डर और मुन्ना भाई एमबीबीएस उन्होंने लिखी। लेकिन बाद में उन्होंने वह नगरी छोड़ दी क्योंकि उनका मानना था कि मायानगरी में शब्द मर गए हैं और वह मुर्दों के साथ जिंदा नहीं रहना चाहते। उनका मानना था कि गानों में शायरी भले न हो शायरी की खुशबू जरूर हो।
उनके कई शेर आंदोलनों की आवाज बने
2019 में सरकार नागरिकता संशोधन कानून लेकर आई। पूरे देश में इसके खिलाफ आवाज उठी। एक समुदाय विशेष के लोगों को लगा कि यह उनके खिलाफ है, कई जगह धरने प्रदर्शन होने लगे। आंदोलनाकारियों के हाथ में तख्तियां होती थीं जिस पर राहत इंदौरी का मशहूर शेर होता।
‘लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में
यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है,
जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं, ज़ाती मकान थोड़ी है,
सभी का ख़ून है शामिल यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है!
आपका मुझे एक इंटरव्यू याद आ रहा है, जब आपने अपनी ज़िंदगी के फलसफे को बयान किया था। तब बताया था कि सन 70 के आसपास इंदौर के किसी इलाके में एग्जिबिशन लगी थी। जहां आप मुशायरे में पहली बार स्टेज पर पहुंचे थे। वहां तक पहुंचने के लिए आपने जुगाड़ लगाया। हां आपने जुगाड़ लफ़्ज़ ही कहा था। उस वक़्त के टॉपर शायर खुमार बाराबंकी, कैफ़ भोपाली, बेकल उत्साही, वगैरा वगैरा तमाम लोग थे। तब उन्हें लगा कि ये लड़का कुछ अलग है। शायद वो नहीं जानते होंगे कि जिसे आज वो राहतउल्ला कुरैशी समझकर सुन रहे हैं, एक रोज़ वो दुनियाभर में डॉक्टर राहत इंदौरी नाम से मशहूर हो जाएगा।
आपने सियासत और मोहब्बत दोनों पर बराबर हक और रवानगी के साथ शेर कहे। आपका ख़ास अंदाज़ में ग़म-ए-जाना यानी प्रेमिका के लिए शेर कहना युवाओं पर इश्क़ की पिचकारी छोड़ता था। आप महफिलों की जान होते थे। आप कहते थे –
फूलों की दुकानें खोलो, खुशबू का व्यापार करो
इश्क़ खता है तो, ये खता एक बार नहीं, सौ बार करो
राहत इंदौरी ने कहा था कि जो साहित्य और अदब लिख रहे हैं वह ध्यान रखें कि आपका सोचा हुआ, आपका बोला हुआ, आपका लिखा हुआ एक-एक लफ्ज समाज के काम आए।
राहत इंदौरी का जन्म आजादी के 3 साल बाद 1950 में हुआ। कपड़ा मिल में कर्मचारी के बेटे राहत इंदौरी को बचपन से पेंटिंग और शेरो-शायरी का शौक था। इंदौर में स्कूली शिक्षा लेने के बाद उन्होंने उर्दू साहित्य में एमए और पीएचडी की।
इंदौर के एक कॉलेज में उन्होंने 30 साल तक अध्यापन का कार्य किया। आज वह हमारे बीच नहीं हैं लेकिन जब उर्दू की बात होगी, तहजीब की बात होगी, शेरो-शायरी और साहित्य की बात होगी, अपने लेखन से अपनी शायरी से लोगों के लिए लड़ने वालों की बात होगी, राहत इंदौरी को जरूर याद किया जाएगा।
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Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."