• दुर्गेश्वर राय
वजन कम करने के स्वप्निल प्रयास में ढाई किलोमीटर टहलने के उपरान्त कुर्सी पर बैठकर सामने रखी प्याले से उठ रही भाप को निहारते हुए चाय के तापमान का अंदाजा ही लगा रहा था कि जेब में रखे मोबाइल की घंटी बज उठी। कॉल रिसीव कर प्रणाम ही बोला था कि उधर से मलय सी शीतल आवाज उभरी-
“कैसे हैं आप?”
“जी बहुत बढ़िया।”
“इस बार शैक्षिक संवाद मंच द्वारा कविता पर एक संग्रह प्रकाशित होने वाला है। आप भी अपनी कविता लिखने की तैयारी कर लीजिए।”
“मुझे नहीं लिखना कविता, मैं तो कविता का क भी नहीं जानता।”
“आप परेशान ना होइए बस 22 तारीख की शाम को छह बजे कार्यशाला में जुड़ जाइएगा। उत्तराखंड के जाने माने कवि महेश चंद्र पुनेठा जी आपको कविता का क, वि और ता सब सिखाएंगे।”
मित्रों की कविताएं पढ़ कर मुझे भी कविता लिखने का मन तो बहुत करता था। पर क्या लिखूं, कैसे लिखूं, किस विषय पर लिखूं , कहां से शुरू करूं, किन शब्दों का कहां प्रयोग करूं, बहुत उलझन होती थी। पूरा छंद शास्त्र पढ़ डाला, नियमों को समझा, परखा, याद भी किया, फिर जब कविता लिखने बैठता तो कुछ लिख नहीं पाता। कई बार प्रयास करने के बाद मैंने निर्णय ले लिया था- “मुझे नहीं लिखना कविता।”
पर इस उम्मीद के साथ कि शायद मेरे सवालों का जवाब मिल जाए, मेरी उलझन को समाधान मिल जाए, मैं 22 अप्रैल की शाम छह बजे कार्यशाला में जुड़ गया।
कार्यशाला के विशेषज्ञ संदर्भदाता महेश चंद्र पुनेठा जी के बारे में प्रमोद दीक्षित जी द्वारा बताया गया, “आप भय अतल में, पंछी बनती मुक्ति की चाह तथा अब पहुंची हो तुम जैसे समृद्ध काव्य संकलनों के रचयिता हैं और पेशे से शिक्षक हैं।” तब जाकर मेरी उम्मीद प्रबलित हुई, एक कवि से नहीं बल्कि एक शिक्षक से। अंतःस्थल से उठी एक छोटी सी चिनगारी ने कानों में आकर कहा कि ध्यान से सुनो, समझो और आज के बाद फिर मत कहना,
“मुझे नहीं लिखना कविता।”
अतिथि महोदय ने अपनी बात शुरू की–
“आम धारणा के अनुसार तुकांतता को ही कविता समझा जाता है लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। कविता न तो गद्य में है और न ही छंद में। कविता के मूल ढांचे की बात करें तो यह दो चीजों से मिलकर बनती है- कथ्य और रूप।”
“अच्छा! कविता के लिए छंदशास्त्र जरूरी नहीं है। मैं तो नाहक ही महीनो छंद शास्त्र पढ़ता रहा। लेकिन यह रूप और कथ्य होता क्या है? कौन कविता के लिए अधिक जरुरी है?”
“कथ्य वह विचार है जिसे आप कविता के माध्यम से कहना चाहते हैं। कविता के लिए कथ्य ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। कथ्य ही निर्धारित करता है कि आपकी कविता कैसी होगी। रूप तो कथ्य को बेहतर बनाने के लिए उपयोग किया जाता है। कथ्य और रूप का संबध आत्मा और शरीर जैसा है। कथ्य यदि सटीक हुआ तो रूप में छंदशास्त्र का प्रयोग न भी हो तो भी कविता बड़ी हो सकती है।”
“मतलब कविता लिखने से अधिक कथ्य चुनने पर ध्यान देना चाहिए। परन्तु इस सटीक और बेहतर कथ्य का चुनाव कैसे करें?”
“कथ्य की सटीकता निर्धारित होती है उसके नवीनता से। कविता के कथ्य में आप ऐसा क्या कह रहे हैं जो पहले कभी नहीं कहा गया हो। यदि आप पुरानी बातों को ही दुहरा रहे हैं तो यह अच्छी कविता नहीं मानी जाएगी। कविता में विचार, भाषा और इन्द्रिय बोध की नवीनता होनी चाहिए, मौलिकता होनी चाहिए।”
“और यह नवीनता आएगी कैसे? इसके लिए किन विषयों का चुनाव करें?”
“देखिए, विषय पुराना हो सकता है लेकिन जो बात आप कह रहे हैं वह नया होना चाहिए। नए तरीके से कहा जाना चाहिए। कबीर, केदारनाथ सिंह, त्रिलोचन, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा आदिक जितने बड़े कवि हुए उन्होंने नयी बात को, नए जीवन दर्शन को अपनी कविता का विषय बनाया। कविता कहने की उनकी दृष्टि नयी थी। यह नवीनता आती है जीवन के अनुभवों से। इसके लिए व्यापक जीवन अनुभव का होना जरुरी है। इससे भी अधिक जरूरी है इन अनुभवों को देखने और महसूसने की दृष्टि और इसे अभिव्यक्त करने की क्षमता। भोजन को कितने भी अच्छे पैकेट में बंद कर दिया जाय, वह केवल आपको आकर्षित कर सकता है लेकिन अंततः उसके अन्दर रखे भोजन से ही उसकी गुणवत्ता निर्धारित होती है।”
“ये तो हुई कथ्य की बात। लेकिन आपने कहा कि कविता में छंद का होना जरुरी नहीं है, तो हम कविता और गद्य में अंतर कैसे करेंगे।”
“गद्य अधिक बोलता है। पूरी बात सीधे-सीधे पूर्ण विवरण के साथ बता देता है। जबकि कविता मितभाषी होती है, कम बोलती है लेकिन कह बहुत कुछ जाती है। कभी-कभी दो पंक्ति की कविता इतना कह जाती है जितना कई पन्नों की कहानी नहीं कह सकती। कविता आकार से बड़ी नहीं होती है बल्कि यह संकेतों में बड़ी बात कह जाती है।”
“संकेतो में कह जाती है, ये बात समझ में नहीं आई।”
“शब्दों की तीन ताकत मानी जाती है- अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना। कविता को व्यंजना में कहना अच्छा होता है। अभिधा और लक्षणा शब्दशक्ति अपने-अपने अर्थों का बोध कराके शांत हो जाती है, तब जिस शब्दशक्ति से अर्थ बोध होता है, उसे व्यंजना शब्दशक्ति कहते है। जैसे अज्ञेय की एक कविता है-
साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ–(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डसना
विष कहाँ से पाया?
इस कविता में अज्ञेय साँप की बात ही नहीं कर रहे हैं। वह तो साँप के माध्यम से शहरी लोगों में पनप रहे अमानवीय मूल्यों के जहर की बात कर रहे हैं। यही तरीका है व्यंजना में कविता कहने की। हरिश्चंद पाण्डेय जी की माँ पर एक कविता देखिये-
‘पिता पेड़ हैं
हम शाखाएँ हैं उनकी,
माँ, छाल की तरह चिपकी हुई है
पूरे पेड़ पर
जब भी चली है कुल्हाड़ी
पेड़ या उसकी शाखाओं पर
माँ ही गिरी है सबसे पहले
टुकड़े-टुकड़े होकर।
एक पेड़ के माध्यम से माँ की परिवार में भूमिका को चंद पंक्तियों में कितने शानदार तरीके से कवि ने कह दी है। यहाँ कोई छंद नहीं है, कोई तुकबंदी नहीं है। माँ की भूमिका का यही दर्द, यही संवेदना और यही अंदाज इसे अच्छी कविता बनाता है। देवताओं के अस्तित्व पर हरिश्चंद्र पाण्डेय जी की एक और कविता देखिये-
पहला पत्थर, आदमी की उदरपूर्ति में उठा ।
दूसरा पत्थर, आदमी द्वारा आदमी के लिए उठा ।
तीसरे पत्थर ने उठने से इंकार कर दिया ।
आदमी ने उसे, देवता बना दिया ।
सभ्यता के विकासक्रम में जो चीजें समझ में नहीं आईं उसे हमरे पूर्वजों ने देवता या देवताओं की उत्पत्ति मान लिया। इस बात को कितने सहज तरीके से कवि ने बताया है इस छोटी सी कविता में। कवि जिस अनुभव से गुजर रहा है यदि वही अनुभव पाठक के अन्दर पैदा कर दे तो कविता सफल है। कविता में सब कुछ खोलकर नहीं रखना चाहिए। कविता वह विधा है जो कहने से ज्यादा छुपाती है और पाठकों को भी कुछ जोड़ने का अवसर प्रदान करती है। कविता को उस मोड़ पर छोड़ देना चाहिए जहाँ से पाठक स्वयं सोचे और अपने-अपने तरीके से अनुभूति करें। कविता में शब्दार्थ नहीं बल्कि भावार्थ लिखा जाता है। इसीलिए कविता नए अर्थों के संधान की गुंज़ाइश भी छोड़ जाती है।
एक बात और जरुरी है, कविता बिम्बों में लिखी जानी चाहिए। इससे कविता सम्प्रेषणीय भी होती है और अपीलीय भी।”
“बिम्ब! यह क्या होता है? इसको कविताओं में कैसे समझें?”
“बिम्ब से आशय है, आप शब्दों के माध्यम से एक चित्र खड़ा कर दें। पाठक उन दृश्यों को देखने लगे, उन आवाजों को सुनने लगे, उस गंध को महसूस करने लगे, उस स्पर्श को महसूस करने लगे। यदि आपकी कविता ऐसा कर पाती है तो आपकी कविता सफल है।”
“ये बिम्बों वाली बात समझ में नहीं आ रही है। एक बार और स्पष्ट कीजिये।”
“बिम्ब का निर्माण करने के लिए बहुत बारीक चित्रण करना जरुरी होता है। चित्रण जितना बारीक होगा बिम्ब उतना स्पष्ट होगा। मोहन नागर जी की एक बिम्ब कविता देखिए-
ऐसे नहीं बेटा, धीरे धीरे पंख फैलाओ,
खुद को भारमुक्त करो, अब पाँव सिकोड़ो, थोडा और
शाबाश! अब कूद जाओ
डरो नहीं, मै हूँ न, गिरे तो थाम लूंगी,
चिड़िया अपने बच्चों को उड़ना सिखा रही है,
ऐसा करते समय खुश है
कि उसका बेटा भी एक दिन दूर, बहुत दूर उड़ जाएगा।
और दुखी भी कि पंख उग जाने पर यही बेटा
एक दिन उसे छोड़कर दूर बहुत दूर उड़ जाएगा।
इस कविता में चिड़िया द्वारा किये जा रहे प्रयास को कितने सजीव तरीके से बिम्बित किया गया है और चिड़िया के माध्यम से एक मानवीय बिडम्बना के रूप में ऐसे माता-पिता के दर्द को उकेरा गया है जो उम्र भर बच्चों की सफलता के लिए क्षमता के बाहर जाकर प्रयास करते रहते हैं और जब बच्चे सफल हो जाते हैं तो उन्हें अकेला छोड़ जाते हैं।
इस तरह आप रूपकों और उपमाओं के माध्यम से अपनी बात कहे। लेकिन इन उपमानो में भी नवीनता होनी चाहिए। यदि आप वही लिख रहे है जो पहले के कवि लिख चुके हैं, तो आप नया क्या कर रहे हैं। ऐसी कविता बासी मानी जाएगी, ऐसे उपमान मैले माने जायेंगे। शमशेर बहादुर की कविता ‘उषा’ का अवलोकन करें और अभिव्यक्ति देखिए-
प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे,
भोर का नभ,
राख से लीपा हुआ चौका, अभी गीला पड़ा है,
बहुत काली सिल ज़रा-सी लाल केशर से,
कि धुल गयी हो,
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक,
मल दी हो किसी ने,
नील जल में या किसी की,
गौर झिलमिल देह जैसे हिल रही हो।
और…
जादू टूटता है इस उषा का अब,
सूर्योदय हो रहा है।”
इसमे कोई गहरी बात नहीं है। बस एक दृश्य है जिसे नयी उपमाओं से सजाया गया है। इसी तरह की शेखर जोशी की धान रोपाई पर कविता में धान की बेहनो के माध्यम से विस्थापन के दर्द को बिम्बित किया गया है। ऐसे ही दृश्यों को देखने और उनमे जीवन को महसूस कर अभिव्यक्त करना ही कविता लिखने की सर्वोत्तम कला है। ऐसी ही हरिश्चंद्र पाण्डेय की कविता बैठक का कमरा एक बार अवश्य पढ़े। किस तरीके से बैठक के कमरे की चहल-पहल के पीछे भीतर के कमरों के दर्द के माध्यम से समाज के दो वर्गों अभिजात्य और निम्न वर्ग का अर्थशास्त्र और समाज विज्ञान समझाया गया है।”
“एक बात और, कविता की भाषा कैसी होनी चाहिए कठिन या सरल?”
“क्लिष्ट भाषा कविता के अच्छी की गारंटी नहीं है। भाषा सहज और सरल होनी चाहिए। ऐसी होनी चाहिए कविता। बातें तो बहुत हैं कविता को लेकर, लेकिन मोटे तौर पर कविता की समझ बनी होगी”
कवि श्रेष्ठ पुनेठा जी ने अपनी बात समाप्त की। अचानक मेरे मन में एक जिज्ञासा उभरी- “कविता के बारे में इनता कुछ बताने वाले ने कैसी कविताएं लिखी होंगी।”
लेकिन वाह रे दीक्षित जी! मनोभावों के पारखी! आपने उठा ली पुनेठा जी की किताब और बिखेर दिए कुछ मोती-
1-सूखे पत्ते
तुमसे अच्छे
इतना दमन शोषण,
अन्याय अत्याचार,
फिर भी ये चुप्पी,
तुमसे अच्छे तो सूखे पत्ते हैं।
2- जब नहीं करते हो तुम
कोई शिकायत मुझसे, बहुत दिनों तक,
मन बेचैन हो जाता है मेरा,
लगने लगता है डर,
टटोलने लगता हूँ खुद को,
कि कहाँ गलती हो गयी मुझसे।
3- दुःख की तासीर
पिछले दो तिन दिन से
बेटा नहीं कर रहा है सीधे मुंह बात
मुझे बहुत याद आ रहे हैं
अपने माता-पिता और उनका दुःख
देखो ना कितने साल लग गए मुझे
उस दुःख की तासीर समझाने में।
4- पहाड़ का टूटना
नहीं नहीं मुझे इल्जाम न दो
मैं कहां टूटता हूँ आदमी पर
आदमी टूट रहा है मुझ पर
अचानक कविवर की आवाज उभरी-
“एक कविता का सौन्दर्य सत्यम शिवम् सुन्दरम में निहित है। हमारी कविता सत्य के कितने पक्ष में खड़ी है, जो सत्य हम व्यक्त कर रहे हैं वह कितना कल्याणकारी है। यही कविता का वास्तविक स्वरुप है। यदि कविता मनुष्यता के पक्ष में नहीं है, समाज को जोड़ने का कार्य नहीं करती है, संकीर्णताओं को आगे बढाती है तो वह एक बड़ी कविता कभी नहीं हो सकती है। कबीर, तुलसी, मीरा आदि की कविताएं इसलिए कालजयी हुईं कि इनमे मानवीय मूल्य थे। समाज के अंतिम व्यक्ति की पीड़ा थी। केशव और तुलसी ने एक ही कालखंड में समान विषयों पर लिखा, लेकिन केशव को उतना नहीं पढ़ा गया जबकि तुलसी आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। कविता के इसी मर्म को समझने की जरुरत है।”
पता नहीं यह लेख पढ़ पढकर
आपने कविता को कितना जाना-समझा। लेकिन मैंने इसलिए लिखा
कि पढ़ सकें तब
आप भी और हम भी
जब मन विचलित हो
और ख्याल आए कि
“मुझे नहीं लिखना कविता।”
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(दुर्गेश्वर राय, पेशे से एक शिक्षक हैं लेकिन प्रवृत्ति एकदम साहित्यकारों वाली, गोरखपुर में प्रवास करने वाले श्री राय के विचार हमेशा खोजती जोहती यायावरी लिए होती हैं, शुभकामनाएं – संपादक)
Author: Desk
'श्री कृष्ण मंदिर' लुधियाना, पंजाब का सबसे बड़ा मंदिर है, जो 500 वर्ग गज के क्षेत्र में बना है। यह मंदिर बहुत ही प्रसिद्ध धार्मिक स्थान है।