मोहन द्विवेदी
जिस तरह एक पक्की नींव ही मजबूत भवन का निर्माण करती है, ठीक उसी प्रकार शिक्षक विद्यार्थी रूपी नींव को सुदृढ़ कर उस पर भविष्य में सफलता रूपी भवन खड़ा करने में सहायता करता है। एक शिक्षक ही है, जो मनुष्य को सफलता की बुलंदियों तक पहुंचाता है और जीवन में सही और गलत को परखने का तरीका बताता है। यूं तो एक बच्चे के जीवन में उसकी मां पहली गुरू होती है, जो हमें संसार से अवगत कराती हैं। और दूसरे स्थान पर शिक्षक होते हैं, जो हमें सांसारिक बोध कराते हैं। जिस प्रकार एक कुम्हार मिट्टी को बर्तन का आकार देता है, ठीक उसी प्रकार शिक्षक छात्र के जीवन को मूल्यवान बनाता है। शिक्षक से हमारा संबंध बौद्धिक और आंशिक होता है। प्रत्येक वर्ष डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती के उपलक्ष्य में शिक्षक दिवस मनाया जाता है।
इस दिन आजाद भारत के पहले उपराष्ट्रपति व दूसरे राष्ट्रपति डा सरवपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर, 1888 को तमिलनाडु के तिरुतानी गावं में हुआ था। उन्होंने 1952 से 1962 तक भारत के राष्ट्रपति के रूप में कार्य किया। वह 1931 से 1936 तक आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति और 1939 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में भी काम किया। डा. राधाकृष्णन को 1954 में भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया। विश्व भर में शिक्षक दिवस 5 अक्तूबर को मनाया जाता है, लेकिन भारत में यह 5 सितंबर को मनाया जाता है। तमिलनाडु के तिरुतनी में जन्में सर्वपल्ली राधाकृष्णन का परिवार सर्वपल्ली नामक गांव से ताल्लुक रखता था। उनके परिवार ने गांव छोडऩे के बाद भी गांव के नाम को नहीं छोड़ा। सर्वपल्ली राधाकृष्णन बचपन से ही एक मेधावी छात्र थे और छात्रवृत्ति के माध्यम से ही उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। महज 18 साल की उम्र में उन्होंने एथिक्स ऑफ वेदांत पर अपनी एक किताब लिखी और 20 साल की उम्र में वह मद्रास प्रेजिडेंसी कालेज में फिलोसोफी विभाग में प्रोफेसर बन गए। उन्होंने दर्शन शास्त्र में न केवल डिग्री ली, बल्कि लेक्चरर भी बने।
इसलिए मनाया जाता है टीचर्स डे
डॉक्टर राधाकृष्णन चाहते थे कि उनका जन्मदिन देशभर के शिक्षकों को याद करने के लिए मनाया जाए, ताकि शिक्षकों के योगदान को सम्मान मिल सके। यही कारण है कि साल 1962 से प्रत्येक वर्ष हम सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं। दरअसल उनके जन्मदिन को कुछ छात्र बड़े धूमधाम से मानना चाहते थे, लेकिन जब ये बात डा. राधाकृष्णन को पता चली तो उन्होंने अपने जन्मदिन को मानाने की जगह इसे शिक्षक दिवस के रूप में मानाने की बात कही। तभी से 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाने की शुरुआत हुई। हर व्यक्ति के जीवन में शिक्षकगण एक अहम् भूमिका निभाते हैं ये विद्यार्थियों को एक सही दिशा देते हैं परिवार के बाद टीचर ही हैं, जो हमे दुनिया को देखना और समझना सिखाते हैं शिक्षकों की दी हुई सीख आजीवन काम आती है।
ऐसा कहते हैं और सही कहते हैं कि यदि गुरु श्रेष्ठ मिल जाए तो शिष्य श्रेष्ठतम बन सकता है। सचिन तेंदुलकर कहते हैं, ‘मैं खुद को काफी भाग्यशाली समझता हूं कि मुझे आचरेकर सर जैसे निस्वार्थ इनसान से क्रिकेट सीखने का मौका मिला।’ चंद्रगुप्त मौर्य को चाणक्य जैसा गुरु मिला, तो वह नंद वंश को उखाड़ कर मगध का राजा बन गया था। जहां माता-पिता बच्चों का लालन-पालन करते हैं, वहीं अध्यापक उसे तराशने का काम करता है। मैं अध्यापक हूं और जाहिर है छात्र भी रहा हूं। हर वर्ष जब अध्यापक दिवस आता है तो खुद को अध्यापक के रूप में देखता हूं और ऐसा करते-करते नैपथ्य में अपने छात्र जीवन का एक चलचित्र जेहन में उभर आता है। इस अवसर पर विलियम आर्थर वार्ड का ये कथन भी याद हो आता है, ‘औसत दर्जे का अध्यापक बताता है, बढिय़ा अध्यापक व्याख्या करता है, श्रेष्ठ अध्यापक प्रदर्शन करता है और महान अध्यापक प्रेरित करता है।’ मैं अध्यापन के इस मापदंड में कहां हूं, ये तो मेरे छात्र ही बेहतर बता सकते हैं।
हां, मुझे अपने छात्र जीवन से जुड़े वे अध्यापक व उनके प्रेरक कथन व प्रसंग स्मरण हो आते हैं जिनकी कक्षाओं से होकर गुजरा हूं और जिनकी कही गई बातें आज भी मेरे मानस पटल पर अंकित हैं। उनकी बातें तब प्रेरणा का सबब बनी और आज भी मुझे रोमांचित करती हैं। एक कुशल अध्यापक तरह-तरह से अपने छात्र के कौशल को संवारने का प्रयास करता है।
शिक्षा जो आधारभूत स्तम्भ है, समय-समय पर नीतियां निर्धारित कर इसे सुधारने के प्रयास करने के लिए नए-नए प्रयोग शिक्षाविदों के द्वारा किए जाते रहे हैं। इसी के तहत एक प्रयोग ये भी किया गया कि पहली कक्षा से लेकर आठवीं कक्षा तक सभी बच्चों को पास करने का प्रावधान रखा गया है। वास्तव में यह इसलिए किया गया ताकि बच्चे में ये भावना न आए कि वह फेल हो गया है। उसके साथी अगली कक्षा में चले गए हैं, क्योंकि यह माना गया कि बच्चे फेल होने पर आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते थे, उसी मृत्यु दर में सुधार लाने के लिए किया गया यह प्रयोग क्या सही मायने में सफल रहा? कोई छात्र या कोई व्यक्ति जीवन में परिस्थितयों के आगे घुटने टेक कर बैठ जाए और आत्महंता बन जाए, ऐसे छात्र को मानसिक रूप से मजबूत बनाना चाहिए या उसे फेल होने पर भी अगली कक्षा में जाने का अवसर दिया जाना चाहिए। इस पर भी विचार करना अनिवार्य हो जाता है क्योंकि विद्यालयों में छात्र केवल किताबी ज्ञान के लिए नहीं आते हैं, वे और भी बहुत कुछ सीखते हैं। यदि कोई बच्चा पढ़ाई में पिछड़ रहा है तो किसी न किसी अन्य गतिविधि में तो अपनी विशेषता भी रखता होगा जिसे पहचान कर उसे आगे बढ़ाया जाना एक उचित समाधान हो सकता है। यदि बच्चों को फेल किए बिना अगली कक्षा में भेज दिया जाता है तो वास्तव में बच्चों में सुधार की गुंजाइश पूरी तरह से समाप्त हो जाती है। ‘भारत, मैं अपनी मंजिल पर पहुंच गया हूं और आप भी’, हाल ही में चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर पहुंचने वाले दुनिया में पहला देश बने भारत को जब चंद्रयान-3 ने यह संदेश भेजा तो भारत का परचम विश्वपटल पर लहरा गया।
इस गौरवान्वित क्षण को हासिल करने के पीछे की संघर्ष गाथा और सफलता-असफलता, आत्मबल और साहस की कहानी पर दृष्टिपात अगर करें तो श्रेय उन शिक्षकों को अवश्य जाता है जिनसे शिक्षित होकर आज उनके छात्र हर असफलता को सीख बना कर लगातार प्रयास करते हुए इस सफलतम मुकाम को हासिल कर पाए। हमें छात्रों को समझाना होगा कि फेल होने का अर्थ है एक नए ढंग से सुधारात्मक और सकारात्मकता के साथ आगे बढऩा। आज के समय में शिक्षक द्वारा बच्चों को मारना तो बड़े दूर की बात है, यदि वह बच्चों में सुधार के लिए उन्हें डांट भी दे तो अभिभावकों का कोपभाजन बनने के लिए तैयार रहना पड़ता है। इतने पर यदि स्कूल का मुखिया भी अभिभावकों का ही पक्षधर हो तो शिक्षक की गरिमा उसके मान-सम्मान, यहां तक कि शिक्षक के आत्मसम्मान को भी कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया जाता है। सहनशीलता की चरम सीमा का अतिक्रमण तब होता है जब एक शिक्षक को यह आदेश दिया जाता है कि शिक्षक को छात्रों का सम्मान करना चाहिए, भले ही छात्र शिक्षक का सम्मान न करें। जो ऐसा नहीं करता है, वह अहंकारी शिक्षक माना जाता है या ये कहा जाता है कि अमुक अध्यापक में बहुत ईगो है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."