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November 23, 2024 6:54 am

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बाजीगरों के बीच जुए का यह ऐसा खेल है जिसे सुनकर आप दंग रह जाएंगे ; लाखों का होता है वारा न्यारा 

18 पाठकों ने अब तक पढा

दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट 

गालिब की गजलों और मीर की रुबाइयों का मर्म समझने वाले उनकी तारीफ में कसीदे पढऩे से नहीं थकते, लेकिन शहर-ए-गोरखपुर में गालिब की गजलों व मीर की रुबाइयों पर हर रोज लाखों की बाजी लगती है और वारे-न्यारे होते हैं। बाजीगरों के बीच जुए का यह खेल मुअम्मा के नाम से चर्चित है। इसमें जीतते तो कुछ लोग ही हैं लेकिन हारने वालों की तादात बड़ी होती है।

इस खेल का संजाल पूर्वांचल में गोरखपुर से लेकर गाजीपुर तक फैला है, लेकिन इसका संचालन दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों से होता है। बिना किसी लिखा-पढ़ी के चलने वाले खेल में पूरी ईमानदारी बरती जाती है। यही वजह है कि बेहद संगठित ढंग से चलने वाले इस खेल की चर्चा कभी आम नहीं हुई।

अरबी अल्फाज ‘मुअम्मा’ का हिंदी में अर्थ होता है ‘पहेली’। मुअम्मे का खेल भी पहेली की ही तरह है। एक पर्चे पर पांच शायरों की गजलों, नज्मों या रुबाइयों की दो-दो पंक्तियां उर्दू में छपी होती हैं। दोनों पंक्तियों में एक या दो शब्द की जगह खाली छोड़ दी जाती है। मुअम्मा खेलने वाले को खाली स्थान पर सही शब्द भरना होता है। हर पंक्ति में खाली स्थान भरने के लिए दो विकल्प दिए होते हैं। सही विकल्प का चयन कर खाली स्थान को भरना होता है। जीतने के लिए सारे जवाब अनिवार्य रूप से सही होने चाहिए।

मुअम्मे का खेल हर रोज होता है। पूर्वांचल में इस खेल का संचालन गोरखपुर और गाजीपुर से होता है। गोरखपुर में मुअम्मा राजघाट, कोतवाली और तिवारीपुर इलाके में पान व परचून की कई दुकानों पर मिलता है। जिस दुकान से मुअम्मा खरीदा जाता है, उसी दुकान पर जमा करना होता है। इस समय लोकल मुअम्मा (वह कागज, जिसमें पहेली दी जाती है) 20 रुपये में तो बाहरी (दिल्ली और मुंबई से छपकर आने वाला) मुअम्मा 50 रुपये में कोई भी खरीद सकता है। मुअम्मा जमा करने के साथ ही दांव पर लगाई जाने वाली धनराशि भी जमा करनी होती है।

मुअम्मा खरीदने और बेचने का क्रम दिन भर चलाता है। मुअम्मा जमा करने के दौरान ही इसका भाव तय होता है। जैसे एक का दो, तीन, चार या इस तरह की कोई रकम। बाजी लगाने वाले को मुअम्मा जमा करते समय ही दांव पर लगाई जाने वाली रकम भी जमा करनी होती है। परिणाम आने पर तय भाव के अनुसार भुगतान मिल जाता है। जैसे किसी ने एक का दस भाव तय किया और सौ रुपये जमा किए तो परिणाम उसके पक्ष में आने पर उसे सौ रुपये का दसगुना भुगतान मिलेगा। कोई भी विकल्प गलत होने पर जमा की गई रकम गंवानी पड़ती है। जुए के इस खेल में फायदे में कम ही लोग होते हैं, अधिकतर को नुकसान का सामना करना पड़ता है।

वैसे तो लोकल मुअम्मे का मुख्य केंद्र गोरखपुर और गाजीपुर ही है। यहां से संचालित होने वाले इस खेल के खिलाड़ी मऊ, आजमगढ़, जौनपुर, आंबेडकरनगर, वाराणसी, इलाहाबाद और फैजाबाद आदि जिलों में भी बड़ी संख्या है। लोकल मुअम्ममे का परिणाम लोकल स्तर पर ही घोषित किया जाता है लेकिन बाहरी मुअम्मे का परिणाम दिल्ली और मुंबई से घोषित होता है। मोबाइल क्रांति से पहले बाहरी मुअम्मे का परिणाम दूसरे दिन आता था, लेकिन अब प्रत्येक दिन का परिणाम उसी दिन आ जाता है। स्थानीय मुअम्मे के खिलाडिय़ों की संख्या भी कम नहीं है लेकिन अभी भी क्रेज बाहरी मुअम्मे का ही है। इसीलिए मुअम्मा खरीदते समय दुकानदार यह अवश्य पूछता है कि लोकल मुअम्मा चाहिए या बाहरी।

लाहौर से शुरू हुआ था मुअम्मा का खेल

कभी इस खेल के शौकीन रहे कोतवाली इलाके नखास निवासी 90 वर्षीय आरिफ खान बताते हैं कि आजादी से पहले लाहौर से छपने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘मस्त कलंदर’ में सबसे पहले वर्ष 1936 में इसकी शुरुआत हुई थी। इस पत्रिका के संपादक पृथ्वी राज थे। आजादी के बाद देश का बंटवारा हो गया और यह पत्रिका बंद हो गई। बाद में दिल्ली से प्रकाशित होने वाली फिल्मी खबरों की पत्रिका ‘शमा’ में मुअम्मा शुरू किया गया। इसका संपादन युसूफ देहलवी करते थे। कुछ वर्षों बाद इस पत्रिका के भी बंद हो जाने के बाद खेल के प्रति लोगों की दीवानगी को देखते हुए पहले दिल्ली और बाद में मुंबई से कुछ लोगों ने पर्चे वाले मुअम्मे की शुरुआत की।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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