देहव्यापार की गलियों में ज़िंदगी ठहरती नहीं… रास्ता खोजती है


देश के रेडलाइट एरिया में परिवारों, बच्चों और रोज़मर्रा की जद्दोजहद पर एक संवेदनशील फीचर



✍️ अनिल अनूप का विशेष आलेख


भारत के अलग-अलग शहरों में फैले रेडलाइट एरिया—कोलकाता का सोनागाछी, मुंबई का कमाठीपुरा, दिल्ली का जीबी रोड,
बनारस की शिवडी, आगरा की किन्नारी बस्ती, ग्वालियर की छोटी मोरी और न जाने कितनी अनाम गलियाँ—इन सबके नाम आते ही
आमतौर पर दिमाग में एक ही दृश्य उभरता है: धुंधली रोशनियों के बीच खड़ी स्त्रियाँ, तंग गलियाँ, और रात के शोरगुल में
घुली हुई एक बेचैन चुप्पी। लेकिन इन गलियों को सिर्फ देह के कारोबार की जगह मान लेना, वहाँ बसती असली ज़िंदगी के साथ
नाइंसाफी है।

इन सड़कों के भी अपने सुबह–शाम हैं, अपने त्योहार हैं, अपने झगड़े और अपनी हँसी भी। यहाँ
जीवन के कई स्तर बिखरे होते हैं—माँ के साथ रहने वाले बच्चे, बूढ़े माता-पिता, पुराने बाशिंदे,
पान–सिगरेट वाले, चाय वाले, रिक्शावाले और वे युवा, जो इसी बस्ती की कोख से जन्मे और यहीं बड़े हुए। यह दुनिया सिर्फ
एक पेशे की दुनिया नहीं, बल्कि एक पूरा सामाजिक ढाँचा है, जो रोज़ संघर्ष करता है, टूटता है,
सँवरता है और फिर अगले दिन जी उठता है।

यह फीचर उन्हीं परिवारों और बच्चों की कहानी समझने की कोशिश है—जो देहव्यापार की गलियों में रहते हुए भी अपने भीतर
एक अलग, जिद्दी-सी उम्मीद सँजोए हुए हैं; जो चाहते हैं कि उनका कल आज से थोड़ा बेहतर हो, भले ही ज़मीन अभी भी वही
जर्जर सीढ़ियों और सीलन भरी दीवारों वाली क्यों न हो।

1. रेडलाइट एरिया—पाप की नहीं, परतों वाली सच्चाइयों की बस्ती

आम धारणा यह है कि रेडलाइट एरिया मतलब केवल कोठों की कतार, सजी-धजी औरतें और रात में आने-जाने वाले ग्राहक। पर जो
लोग वर्षों से इन इलाकों के बीच जी रहे हैं, वे जानते हैं कि रेडलाइट एरिया वास्तव में एक जीवित बस्ती
है—जहाँ तीन-तीन पीढ़ियाँ एक ही छत के नीचे साँस ले रही हैं। यहाँ बच्चे स्कूल भी जाते हैं, दुपहरिया में चाय भी
चढ़ती है, कपड़े भी धुलते हैं और किसी के घर में शादी या नामकरण हो तो पूरी गली शामिल होती है।

इन बस्तियों में:

  • किराने की दुकानें हैं, जहाँ उधारी में राशन मिल जाता है,
  • हलवाई की भट्टी है, जहाँ से सुबह की चाय और पकौड़े निकलते हैं,
  • टीन या टीन-छप्पर वाले कमरे हैं, जिनमें खाना भी पकता है और लोग वहीं सोते भी हैं,
  • बुज़ुर्ग माँ–बाप हैं, जो अपने बच्चों के बच्चों को संभालते हैं,
  • और औसतन 8×10 के कमरों में तीन–चार पीढ़ियाँ साथ रहने को मजबूर हैं।

कई घरों में एक ही दीवार के इस पार कामकाजी कमरा और उस पार परिवार का कमरा होता है।
यही द्वंद्व इन बस्तियों की सबसे बड़ी विडंबना है—एक ही छत के नीचे परिवार और व्यवसाय दोनों
चलते हैं। रात की वही गली, जो देर रात तक ग्राहकों के कदमों से गूँजती रहती है, सुबह बच्चों के स्कूल जाने की
जल्दी, साइकिलों की खड़खड़ाहट और चाय के भाप भरे गिलासों से भर जाती है। यहाँ दर्द और दिनचर्या अलग-अलग नहीं,
बल्कि एक-दूसरे में घुले हुए हैं।

2. बच्चे—इस दुनिया के सबसे अनसुने और अदृश्य चेहरे

रेडलाइट एरिया के बच्चे इस दुनिया के सबसे बड़े, सबसे मौन पीड़ित हैं। वे अपने माता-पिता का पेशा नहीं चुनते, लेकिन
उनके घर का पता ही उनके भविष्य का बोझ बन जाता है। उनके लिए “आप क्या करते हैं?” से ज़्यादा
खतरनाक सवाल होता है—“आप कहाँ रहते हैं?”

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(क) पहचान का बोझ: “कहाँ रहते हो?”—सबसे चुभने वाला सवाल

स्कूल में फार्म भरते समय, किसी प्रतियोगिता के रजिस्ट्रेशन में या किसी नए दोस्त से परिचय के दौरान, जैसे ही बच्चा
सोनागाछी, जीबी रोड या कमाठीपुरा का नाम लेता है, माहौल अचानक बदल जाता है। सहपाठियों की नज़रें बदल जाती हैं, कई
बार शिक्षक भी उसकी ‘पृष्ठभूमि’ को लेकर फुसफुसाने लगते हैं। एक साधारण-सा सवाल उसके आत्मसम्मान पर भारी पत्थर की
तरह गिरता है।

नतीजा यह होता है कि बहुत-से बच्चे अपना सही पता छिपाने लगते हैं, किसी रिश्तेदार के पते पर नाम लिखवाते हैं या
धीरे-धीरे स्कूल ही छोड़ देते हैं। वे यह समझ जाते हैं कि उनकी सबसे बड़ी “गलती” यह है कि वे उन गलियों में पैदा हुए
हैं, जिनके नाम समाज ने पहले ही दोषी ठहरा दिए हैं।

(ख) रात की आवाज़ें और मासूम मन

इन बस्तियों में रात कभी पूरी तरह शांत नहीं होती। बच्चे अपनी माँ के कामकाजी घंटों में—

  • बाहर के शोर और ठहाकों,
  • गंदे मज़ाकों,
  • नशे में धुत्त लोगों की ऊँची आवाज़ों,
  • झगड़ों, गालियों और कभी-कभी चीखों,
  • और अजनबी पुरुषों की लगातार आवाजाही

को रोज़ देखते-सुनते बड़े होते हैं। यह सब उनके मन पर गहरी छाप छोड़ता है। कई बच्चे उम्र से पहले ही बड़े हो जाते हैं—
वे जल्दी समझ जाते हैं कि दुनिया उतनी मासूम नहीं जितनी किताबों में लिखी है। कुछ बच्चे व्यवहारिक, कठोर और बहुत
सजग हो जाते हैं; कुछ भीतर से डरपोक, असुरक्षित और आत्मविश्वास से रहित। उनकी नींद, उनके सपने और उनके खेल इस
वातावरण की कीमत चुकाते हैं।

(ग) लड़कियों की दोहरी लड़ाई

इन बस्तियों में पली-बढ़ी लड़कियों पर हमेशा एक अदृश्य छाया रहती है—कि वे भी बड़ी होकर माँ की जगह ले लेंगी।
दलाल, एजेंट और नशे के धंधों से जुड़े लोग ऐसे ही घरों की टोह में लगे रहते हैं, जहाँ माँ अकेली है, पिता नहीं या
परिवार बेहद कमज़ोर है। कई बार लड़की की उम्र और उसकी सुरक्षा के बीच सिर्फ माँ की चेतन निगाहें खड़ी होती हैं।

इसी डर से अनेक महिलाएँ अपनी बेटियों को होस्टल, आश्रम या दूर के रिश्तेदारों के पास भेज देती हैं। वे जानती हैं कि
अगर बेटी इन गलियों से भावनात्मक रिश्ता बना लेगी, तो उसे बाहर निकालना लगभग असंभव हो जाएगा। बेटियाँ उनकी नज़रों
में सिर्फ बच्चियाँ नहीं, बल्कि भविष्य की ऐसी कहानी हैं जिसे वे हर हाल में बदल देना चाहती हैं।

3. वे लोग भी, जिनका पेशे से कोई लेना-देना नहीं

समय के साथ कई रेडलाइट एरिया केवल देहव्यापार की जगह नहीं रहे, बल्कि आम बस्तियों की तरह भी विकसित
हो गए हैं। यहाँ ऐसे परिवार भी रहते हैं—

  • जो कभी दिहाड़ी मजदूर या ठेला चलाने वाले थे,
  • जो यहीं पैदा हुए और कहीं और जाने की क्षमता नहीं जुटा सके,
  • या जिन्हें शहर के दूसरे हिस्सों से निकाल दिया गया और सस्ता कमरा सिर्फ इन्हीं गलियों में मिला।

इन परिवारों का देहव्यापार से सीधा संबंध नहीं,
लेकिन उनके बच्चे भी “गंदी बस्ती” के बच्चे कहलाते हैं। स्कूल, नौकरी और रिश्तों में उनके साथ वही दूरी बरती जाती
है जो सेक्स वर्कर के परिवारों के साथ होती है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वे इस इलाके से बाहर जाना चाहते हैं,
लेकिन किराए, सुरक्षा और पहचान के डर से बाहर जा नहीं पाते।

4. रहन-सहन—तंग कमरे, साझा गलियाँ और ‘गोपनीयता’ का अभाव

रेडलाइट एरिया के कमरे अक्सर शहर के सबसे महँगे और सबसे तंग किरायों में गिने जाते हैं। 8×8 या 10×10 का एक ही कमरा—

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  • परिवार का बेडरूम है,
  • रसोई है,
  • बच्चों का खेलने और पढ़ने की जगह है,
  • और कई बार माँ का कार्यस्थल भी वही है।

निजता यहाँ लगभग नहीं के बराबर है। कई महिलाएँ जब ग्राहकों से मिलती हैं, तो बच्चों को पड़ोसन के कमरे में या छत पर
सुला दिया जाता है। गंदा पानी, जाम नालियाँ, हवा के कम आवागमन और भीड़-भाड़ के कारण बीमारियाँ तेजी से फैलती हैं।
ऐसे माहौल में बच्चों का शारीरिक ही नहीं, मानसिक स्वास्थ्य भी दाँव पर लगा रहता है।

5. क्या इस माहौल से बाहर निकलना संभव है? — कठिन ज़रूर, पर असंभव नहीं

पिछले कुछ वर्षों में सरकारी योजनाएँ, अदालतों के निर्देश और विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों के प्रयास मिलकर इन बस्तियों
में बदलाव की छोटी-छोटी दरारें खोल रहे हैं। संघर्ष अभी भी गहरा है, लेकिन उम्मीद की लौ बुझी नहीं
है।

(क) शिक्षा—सबसे बड़ा रास्ता, सबसे बड़ा संघर्ष

रेडलाइट एरिया के बच्चों के लिए स्कूल तक पहुँचना ही एक बड़ी जीत है और स्कूल में टिके रहना उससे भी बड़ी लड़ाई।
अनेक एनजीओ ‘ब्रिज स्कूल’, ‘नाइट क्लास’ और ‘ड्रॉप–इन सेंटर’ चलाते हैं, जहाँ बच्चों को मूलभूत शिक्षा के साथ-साथ
खेल, परामर्श और सुरक्षित माहौल दिया जाता है।

जिन बच्चों पर गली का माहौल बहुत भारी पड़ने लगता है, उन्हें दूर के आवासीय स्कूलों या छात्रावासों में भेजने की
कोशिश की जाती है। यहीं से निकलकर कई बच्चे नर्सिंग, कंप्यूटर, पर्यटन, फैशन डिजाइन और सामाजिक कार्य जैसे क्षेत्रों
तक पहुँच रहे हैं। वे साबित कर रहे हैं कि पता भले रेडलाइट एरिया का हो, लेकिन मंज़िल कहीं भी हो सकती
है

(ख) महिलाओं का पुनर्वास—कहने में आसान, करने में बेहद कठिन

“वैश्यावृत्ति छोड़ दो” कहना जितना आसान है, छोड़ने के बाद जीना उतना ही कठिन है। सवाल सिर्फ इतना नहीं कि “काम छोड़ो”,
बल्कि यह भी कि फिर कहाँ जाओगी, क्या करोगी, कौन तुम्हें कमरा देगा, कौन नौकरी देगा? यही वह दीवार है जो
बहुत-सी महिलाओं को चाहकर भी इस धंधे से बाहर निकलने नहीं देती।

पुनर्वास की कोशिशों में कौशल विकास प्रशिक्षण—सिलाई, ब्यूटीशियन, फूड प्रोसेसिंग, हैंडीक्राफ्ट—स्वयं सहायता समूहों
के ज़रिए छोटे व्यापार, सरकारी योजनाओं के तहत आवास, राशन कार्ड और बैंक खाते जैसी चीज़ें शामिल हैं। लेकिन सबसे बड़ा
अवरोध समाज का रवैया है, जो उन्हें उनकी पिछली पहचान से ही परखता है। यही वजह है कि बहुत-सी महिलाएँ “नई शुरुआत”
के सपने को दिल में ही दबाकर उसी कमरे में लौट आती हैं, जहाँ से वे निकलना चाहती थीं।

6. समाज की नज़रों में बस्ती, इंसान नहीं

हमारे समाज की त्रासदी यह है कि वह रेडलाइट एरिया को “अपराध की जगह” मानकर देखता है और उन लोगों को भी अपराधी की
नज़र से देखने लगता है, जो वास्तव में किसी गहरे आर्थिक–सामाजिक अन्याय का परिणाम हैं। जिस बच्चे ने अपने जन्मस्थान
का चुनाव ही नहीं किया, उसे उसी चुनाव की सज़ा दी जाती है।

“यहाँ हम सबकी पहचान मिट जाती है; हर आदमी को बस एक ही नज़र से देखा जाता है—गलत नज़र से।”

यह शिकायत यहाँ रहने वाले अनेक बुज़ुर्गों और छोटे दुकानदारों की है, जो दशकों से इन गलियों में हैं, पर जिन्हें आज
भी “इज्ज़तदार मोहल्लों” में जगह नहीं मिलती।

7. संघर्ष के बीच ऊष्मा भी है—इन गलियों की मानवीय चमक

रेडलाइट एरिया को हम अक्सर केवल अँधेरे, हिंसा और शोषण की कहानियों से जोड़ते हैं, लेकिन यहाँ मानवता और
अपनत्व के छोटे-छोटे उजाले भी हैं, जिन्हें बाहरी दुनिया बहुत कम देखती है।

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  • महिलाएँ एक-दूसरे के बच्चों को संभालती हैं, किसी की ड्यूटी लंबी हो तो दूसरी बाई बच्चे को अपने कमरे में सुला लेती है,
  • किसी का बच्चा बीमार पड़ जाए तो पूरी गली दवा और पैसे जुटाने में लग जाती है,
  • त्योहारों में सभी घर मिलकर लड्डू और प्रसाद बाँटते हैं,
  • और किसी लड़की पर ज़ुल्म की आशंका हो तो पाँच–छह औरतें मिलकर दीवार बन जाती हैं।

यह दुनिया जितनी कठोर दिखती है, भीतर से उतनी ही कोमल और संवेदनशील भी है। यहाँ का सामुदायिक ताना-बाना, कई बार
तथाकथित “सम्मानित मोहल्लों” से कहीं ज़्यादा मजबूत दिखाई देता है।

8. हर माँ की एक ही प्रार्थना—बच्चा इस अँधेरे से दूर रहे

धर्म, जाति या भाषा चाहे जो हो, इन गलियों की ज्यादातर माँओं के दिल में एक ही प्रार्थना जलती है—उनका बच्चा उनकी
तरह न जिए। वे उम्मीद करती हैं कि उनकी संतानों का भविष्य इन गलियों की विरासत नहीं, बल्कि इन गलियों से बाहर की
किसी उजली दुनिया से तय हो।

बहुत-सी महिलाएँ अपनी पूरी कमाई का बड़ा हिस्सा बच्चों की पढ़ाई, होस्टल और सुरक्षित रहने पर खर्च कर देती हैं। कई
अपने बच्चों को नानी–नाना या दादा–दादी के पास भेज देती हैं। एक माँ के शब्द इन गलियों की सच्चाई को निचोड़ कर सामने
रख देते हैं—

“मेरी रात मुझे खा जाए, कोई बात नहीं,
पर मेरी बेटी की सुबह उजली होनी चाहिए।”

यही ख्वाहिश उन्हें हर दिन फिर से उठकर खड़ा करती है। यह लड़ाई रोटी की नहीं, इज़्ज़त और आने वाले कल की है।

9. कानून—सुरक्षा से ज़्यादा उलझन

भारतीय क़ानून देहव्यापार को न पूरी तरह वैध मानता है और न पूरी तरह अवैध। वयस्क महिला अपनी इच्छा से काम कर सकती है,
लेकिन कोठा चलाना, दलाली, नाबालिग को रखना और सार्वजनिक रूप से ग्राहकों को बुलाना अपराध की श्रेणी में आता है। यह
कानूनी अस्पष्टता अक्सर इन महिलाओं और उनके परिवारों के लिए सुरक्षा की जगह डर और असुरक्षा लेकर
आती है। वे न तो पूरी तरह अधिकार ले पाती हैं, न पूरी तरह सुरक्षा।

10. भविष्य—धीरे-धीरे बदलती तस्वीर

चुनौतियाँ बहुत गहरी हैं, लेकिन तस्वीर पूरी तरह नाउम्मीद भी नहीं। पिछले वर्षों में शिक्षा, पुनर्वास, स्वयं सहायता
समूहों, कानूनी सहायता और मानसिक स्वास्थ्य पर काम ने कई परिवारों के अंदर परिवर्तन के छोटे-छोटे बीज बो दिए हैं।

आज यही बस्तियाँ ऐसे बच्चों को देख रही हैं, जो कंप्यूटर सीख रहे हैं, नर्सिंग कर रहे हैं, प्रतियोगी परीक्षाओं की
तैयारी कर रहे हैं। संभव है कि आने वाले वर्षों में यही पीढ़ी पहली ऐसी पीढ़ी साबित हो, जो इन गलियों से बाहर निकलकर
अपनी स्वतंत्र और सम्मानजनक पहचान स्थापित करेगी।

देहव्यापार की गलियों में ज़िंदगी ठहरती नहीं—वह रास्ता खोजती है

भारत के रेडलाइट एरिया केवल अँधेरे या “पाप” की कहानियाँ नहीं हैं। वे मजबूरियों, संघर्षों, मानवीय रिश्तों और बदलते
सामाजिक समीकरणों की जीवित प्रयोगशाला हैं। यहाँ हर लड़की, हर बच्चा, हर बुज़ुर्ग एक लंबी लड़ाई में लगा है—
अपनी पहचान और अपने भविष्य की लड़ाई में।

इन गलियों की सबसे बड़ी सच्चाई यही है कि यहाँ ज़िंदगी ठहरती नहीं। वह हर रात के बाद अगली सुबह का इंतज़ार करती है,
हर बंद दरवाज़े के बीच कहीं न कहीं एक छोटी-सी खिड़की तलाशती है। संकरी और भीड़भरी इन गलियों में रहने वाले लोगों के
सपने खुले आसमान की ओर उठते हैं—और शायद यही सपने किसी दिन इन गलियों से बाहर, एक नई दुनिया का रास्ता भी बना देंगे।

1 thought on “<h1 style=" color:#8B0000; font-size:38px; font-weight:900; text-align:center; letter-spacing:1px; text-shadow:1px 1px 4px #00000055; margin-top:0; margin-bottom:10px; "> देहव्यापार की गलियों में ज़िंदगी ठहरती नहीं… रास्ता खोजती है </h1>”

  1. केवल कृष्ण पन्गोत्रा

    आपकी लेखनी को सैल्यूट भाई अनूप जी

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