मायावती की रैली से मिला नया जोश — 16 अक्टूबर को तय होगी बीएसपी की अगली ‘सोशल इंजीनियरिंग’ रणनीति

लखनऊ में मायावती की बसपा महारैली में उमड़ी ऐतिहासिक भीड़, कांशीराम स्मारक स्थल पर समर्थकों का जनसैलाब

 

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संजय सिंह राणा की रिपोर्ट

भीड़ ने दी संजीवनी — बीएसपी को मिला आत्मविश्वास

लखनऊ में हाल ही में आयोजित मायावती की रैली में जुटी भारी भीड़ ने बीएसपी (बहुजन समाज पार्टी) को नई ऊर्जा दी है। लंबे समय से तकलीफ झेल रही पार्टी, राजनीतिक रूप से कमजोर एवं निष्क्रिय मानी जा रही थी। लेकिन इस जनसमर्थन ने कार्यकर्ताओं को मनोबल दिया है। यह रैली इस बात का संकेत है कि बीएसपी फिर से सक्रिय होना चाहती है और अपने पुराने दावों को पुनर्जीवित करना चाहती है।

इस रैली से पहले ही पार्टी का संगठन गांव-गांव तक जा चुका था। बूथ स्तर की बैठकों और क्षेत्रीय संरचनाओं के माध्यम से लोगों को जुटाया गया। रिपोर्टों के अनुसार, रैली के लिए मार्च महीने से ही तैयारियां चल रही थीं।

रैली में केवल समर्थक ही नहीं, बल्कि विभिन्न जातियों — दलित, पिछड़ा, मुस्लिम, ब्राह्मण, क्षत्रिय — के लोग भी शामिल दिखे। यह विविध समुदायों का “गुलदस्ता” एक संदेश के रूप में पहले से ही तैयार था, जिसे अब पार्टी निचले स्तर पर लागू करना चाहेगी।

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16 अक्टूबर : दिशा निर्देश की तारीख

बीएसपी के नेताओं का मानना है कि रैली के बाद असली काम 16 अक्टूबर की राज्य स्तरीय बैठक में शुरू होगा। इस बैठक में पार्टी नए निर्देश जारी करेगी — कौन-कौन से नेता क्या जिम्मेदारियाँ संभालेंगे, कौन क्षेत्रीय “सेक्टर” बनाएगा, किस तरह सोशल इंजीनियरिंग लागू होगी आदि।

पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष विश्वनाथ पाल ने कहा है कि “मायावती जब कुछ कहेंगी, वह तुरंत जमीन पर लागू हो जाता है।” रैली में जुटी भीड़ को बूथ लेवल आंदोलन, गांव-गांव संपर्क, क्षेत्रीय शक्तिकेंद्र बनाने की रणनीति बता दी गई है। ये सभी कार्य 16 अक्टूबर की बैठक के फैसलों पर निर्भर होंगे।

“निराश हो रहे कैडर को इस भीड़ ने बल दिया है… 16 अक्टूबर की बैठक में सोशल इंजीनियरिंग से जुड़े टास्क दिए जाएंगे।” — पार्टी सूत्र

सोशल इंजीनियरिंग : पुराना फार्मूला, नया प्रयोग

बीएसपी के इतिहास में “सोशल इंजीनियरिंग” का फार्मूला कांशीराम द्वारा परिकल्पित था — जिसमें दलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक और उच्च जातियों को जोड़कर एक व्यापक सामाजिक गठबंधन तैयार किया जाए। वर्तमान रैली में मायावती ने उसी फार्मूले का प्रतीकात्मक संकेत मंच से दिया — अपनी कुर्सी के साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, पिछड़ा और मुस्लिम वर्गों का गुलदस्ता।

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पार्टी अब सक्रिय रूप से इस मॉडल को निचले स्तर तक उतारना चाहती है। बूथ समिति, सेक्टर प्रमुख, जिला संयोजक, क्षेत्रीय मीटिंग — ये माध्यम होंगे इस फार्मूले को जनसमर्थन तक ले जाने के। यदि 16 अक्टूबर की बैठक सफल होती है, तो आगामी विधानसभा चुनावों में यह बीएसपी के लिए बड़ी रणनीति बन सकती है।

रैली का संदेश : विपक्षी रणनीति को चुनौती

रैली के दौरान मायावती ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि जो विपक्षी पार्टियाँ “PDA” (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) का जो माडल चला रही हैं, वह भ्रमित करने वाली राजनीति है। उन्होंने कहा कि यह सिर्फ नाम है, उसकी संकल्पना बदलती रहती है।

इस रैली ने सिर्फ बीजेपी और सपा को ही नहीं, बल्कि पूरे यूपी की राजनीतिक रणनीति को प्रभावित किया है। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इस जनसमर्थन से सपा और भाजपा दोनों को अपनी योजनाएँ दोबारा देखने पर मजबूर होना पड़ेगा।

चुनौतियाँ और सवाल

बीएसपी पिछले 13 वर्षों से सत्ता से दूर है। वर्तमान में उसके पास विधानसभा या लोकसभा में कोई प्रभावशाली उपस्थिति नहीं है। किस तरह यह रैली का जोश निचले स्तर तक पहुंचाए — यानी बूथ स्तर पर संगठन मजबूत हो पाए — यह एक बड़ा चुनौती पैकेज है।

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सोशल इंजीनियरिंग को लागू करते समय जातिगत संवेदनशीलताओं को कैसे संभालेंगे और किस तरह विरोधी दलों की आलोचनाओं का सामना करेंगे, यह रणनीति की कसौटी होगी।

युवाओं का असर और टीम अवतरण

रैली में देखा गया कि युवा कार्यकर्ताओं की भारी उपस्थिति थी। बाजारों, कॉलेजों और गाँवों से आए युवक-युवतियाँ आनन-फानन में जुटे — यह संकेत है कि बीएसपी ने अपनी अगली पीढ़ी की ओर देखना शुरू कर दिया है।

मायावती ने मंच पर अपने भतीजे आकाश आनंद (Akash Anand) को प्रमुख भूमिका देने का इशारा किया है — यह संकेत राजनीतिक उत्तराधिकार और संगठनात्मक बदलाव की दिशा दर्शाता है।

लखनऊ की रैली ने बीएसपी को “मौका” और “संकेत” दोनों दिया है — मौका है पुनरुद्धार का, संकेत है रणनीति बदलने का। यदि 16 अक्टूबर की बैठक में सही दिशा निर्देश निकले, तो आगामी विधानसभा चुनाव के लिहाज से यह बीएसपी के लिए महत्वपूर्ण सफलता बिंदु बन सकती है।

इस रैली के बाद राजनीतिक वातावरण कहीं हलचल में है। क्या बीएसपी उस हलचल की अगुवाई करेगी? या इस जोश को वो धरातल पर नहीं उतार पाएगी? 16 अक्टूबर की बैठक इसकी चाबी है — और अगला कदम तय करेगी बसपा की नई राजनीति।

 

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