
लखनऊ महारैली : बसपा के पुनरुत्थान का संकेत
संजय सिंह राणा की रिपोर्ट
9 अक्टूबर 2025 को लखनऊ में मायावती की महारैली ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में नई हलचल मचा दी। भारी जनसमर्थन और युवा उपस्थिति के कारण यह रैली सिर्फ राजनीतिक आयोजन नहीं बल्कि शक्ति प्रदर्शन बन गई। मायावती ने मंच से दो टूक कहा कि बसपा 2027 का विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेगी, जिसने राजनीतिक हलकों में नई चर्चा को जन्म दिया।
इस रैली का असर खास तौर पर बुंदेलखंड क्षेत्र में देखने को मिल रहा है — जहाँ बसपा का एक समय मजबूत आधार था लेकिन बीते कुछ चुनावों में भाजपा का दबदबा बना रहा।
बुंदेलखंड में रैली का राजनीतिक उछाल
बुंदेलखंड उत्तर प्रदेश का वह इलाका है जहाँ दलित, पिछड़े, किसान और युवा मतदाता बड़ी भूमिका निभाते हैं। मायावती की रैली ने इन वर्गों को फिर से सक्रिय कर दिया है।
झांसी, बांदा, महोबा, चित्रकूट और हमीरपुर जैसे जिलों में बसपा के पुराने कार्यकर्ता अब दोबारा संगठित होने की कोशिश कर रहे हैं।
रैली में भीड़ का बड़ा हिस्सा स्थानीय कार्यकर्ताओं और युवाओं का था, जिससे संगठन को नई ऊर्जा मिली। बसपा के अंदर यह चर्चा चल रही है कि रैली के बाद बूथ स्तर पर पुनर्गठन और जमीनी नेतृत्व का पुनर्संयोजन किया जाएगा।
संगठनात्मक बदलाव की संभावना
बसपा की केंद्रीय समीक्षा बैठक में तय हुआ है कि आगामी महीनों में
निष्क्रिय जिलाध्यक्षों और सेक्टर प्रभारियों को बदला जाएगा,
नए और युवा चेहरे संगठन में जोड़े जाएंगे,
महिलाओं व छात्र समूहों को पार्टी ढांचे में सक्रिय भागीदारी दी जाएगी।
मायावती ने खुद स्पष्ट किया कि अब “समारोह नहीं, संघर्ष का समय है” — यह संदेश बताता है कि पार्टी केवल भाषणों तक सीमित नहीं रहना चाहती, बल्कि 2027 के चुनाव तक मजबूत भू-स्तरीय संगठन खड़ा करने की दिशा में बढ़ रही है।
भाजपा : सत्ता में रहते हुए भी सतर्क
बुंदेलखंड में भाजपा की स्थिति मजबूत रही है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में क्षेत्र में बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे, डिफेंस कॉरिडोर, और किसान योजनाओं से विकास की छवि बनी है।
लेकिन मायावती की रैली ने भाजपा को भी सतर्क किया है। अब भाजपा को अपने दलित और पिछड़ा मतदाताओं के बीच संदेश देना होगा कि उसकी नीतियाँ सिर्फ घोषणाएँ नहीं बल्कि जमीनी बदलाव हैं।
यदि बसपा इन समुदायों को भावनात्मक और सामाजिक रूप से जोड़ने में सफल होती है तो भाजपा को 2027 के चुनाव में त्रिकोणीय संघर्ष का सामना करना पड़ सकता है।
सपा : ओबीसी और युवा मतदाताओं में चुनौती
समाजवादी पार्टी के लिए मायावती की सक्रियता चिंता का विषय है।
सपा लंबे समय से ओबीसी और मुस्लिम समीकरण पर निर्भर रही है, पर अब मायावती यदि युवा और गैर-यादव पिछड़े वर्ग को आकर्षित करती हैं, तो सपा की नींव डगमगा सकती है।
रैली में मायावती के द्वारा सपा पर निशाना साधना यह दिखाता है कि बसपा ने इस बार मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में भाजपा के साथ-साथ सपा को भी टार्गेट पर लिया है।
सपा को अब सिर्फ मोदी-विरोधी राजनीति के बजाय अपने स्थानीय नेतृत्व और गांव स्तर के मुद्दों पर दोबारा ध्यान केंद्रित करना होगा।
कांग्रेस : कमजोर ढांचे में हिचकोले
कांग्रेस पहले ही बुंदेलखंड में लगभग अप्रभावी हो चुकी है।
रैली के बाद कांग्रेस ने मायावती पर भाजपा के साथ “सॉफ्ट समझौते” का आरोप लगाया, लेकिन हकीकत यह है कि कांग्रेस की संगठनात्मक जमीन कमजोर है।
यदि कांग्रेस अब भी सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति करती रही तो उसका बचा-खुचा समर्थन भी बसपा और सपा के बीच बंट जाएगा।
कांग्रेस के लिए ज़रूरी है कि वह स्थानीय नेताओं और जातीय संतुलन के सहारे नए सिरे से संगठन पुनर्निर्माण करे।
बुंदेलखंड में स्थानीय दलों और आंदोलनों की भूमिका
बुंदेलखंड में सिर्फ राष्ट्रीय दलों का असर नहीं होता।
यहाँ स्थानीय किसान संगठनों, बौद्ध संघों, युवा सामाजिक मोर्चों और स्वतंत्र प्रत्याशियों का भी प्रभाव है।
मायावती की रैली ने इन छोटे समूहों को भी प्रेरित किया है।
यदि बसपा इन स्थानीय शक्तियों से सामंजस्य बना लेती है, तो वह सिर्फ एक दल नहीं बल्कि क्षेत्रीय जनआंदोलन का रूप भी ले सकती है।
क्या यह जोश वोटों में बदलेगा?
मायावती की लखनऊ महारैली ने बुंदेलखंड की राजनीति में नई चर्चा जरूर पैदा की है।
लेकिन यह असर तभी स्थायी हो सकता है जब बसपा रैली के जोश को संगठन, रणनीति और स्थानीय मुद्दों से जोड़े।
भाजपा अब भी मजबूत है, पर वह चुनौती को हल्के में नहीं ले सकती।
सपा को अपनी विचारधारा और जमीनी कार्यकर्ताओं में फिर से जान डालनी होगी,
और कांग्रेस को पूरी तरह से पुनर्गठन की आवश्यकता है।
बुंदेलखंड की राजनीति इस समय संभावनाओं के संक्रमण बिंदु पर खड़ी है।
यदि मायावती अपने संगठन को सही दिशा देती हैं, तो आने वाले चुनावों में बसपा की वापसी की कहानी यहीं से शुरू हो सकती है।
