दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट
कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा उत्तर प्रदेश में करीब 125 किमी का सफर कर हरियाणा चली गई है। देखें तो यूपी में ये यात्रा कुल जमा ढाई दिन रही। विपक्षी नेताओं के यात्रा में आने की तमाम बातें हुईं लेकिन वो ट्वीट कर शुभकामनाएं देने तक ही सीमित रहे।
राहुल की इस भारत जोड़ो यात्रा का भले ही यूपी का बाकी हिस्से में कुछ भी असर रहे लेकिन इन 3-4 दिन में पश्चिमी यूपी की राजनीति में काफी कुछ बदला है। कम से कम जयंत चौधरी ने यात्रा के सहारे अखिलेश यादव को एक मजबूत संदेश जरूर दे दिया है।
पश्चिमी यूपी की जुबान में ही कहें तो अखिलेश के पेंच कसते हुए उनको बता दिया है कि वेस्ट में अगुवाई अब हम करेंगे। जयंत को लेकर जब हम ये कह रहे हैं तो इसकी कुछ मजबूत वजह हैं। इसे एक-एक कर समझना होगा, जिसमें अखिलेश और राहुल गांधी की तनातनी, जयंत-चंद्रशेखर की दोस्ती, कांग्रेस से जयंत और चंद्रशेखर के रिश्ते सब देखने होंगे।
यात्रा की शुरुआत से पहले ही अखिलेश-राहुल में लड़ाई
भारत जोड़ो यात्रा दिल्ली में ब्रेक के बाद 3 जनवरी को यूपी में आनी थी, इससे पहले ही राहुल और अखिलेश भिड़ गए। शुरुआत हुई अखिलेश यादव की ओर से। प्रेस कॉन्फ्रेंस में यात्रा में जाने पर सवाल हुआ तो कह दिया ये कांग्रेस भी भाजपा जैसी ही है।
राहुल ने अखिलेश को जवाब दिया कि समाजवादी पार्टी यूपी में एक ताकत है लेकिन उसके पास पूरे देश के लिए कोई एजेंडा नहीं है। अखिलेश और भड़के, एमपी से लेकर महाराष्ट्र तक समर्थन याद दिलाकर राहुल को घेर लिया। अखिलेश ने देश नहीं दुनिया भर के समाजवादी नेता राहुल को गिना दिए और कहा कि समाजवादी हर जगह हैं।
खैर ये तनातनी कम हुई जब राहुल की ओर से अखिलेश और मायावती को चिट्ठी लिखकर यात्रा में आने के लिए कहा गया। इन दोनों नेताओं ने भी एक शिष्टाचार के तहत जवाब दिया। राहुल को धन्यवाद कहा और यात्रा के लिए शुभकामनाएं दी। इस सबके बावजूद राहुल और अखिलेश में दो दिन जो बयानबाजी चली उसने साफ कर दिया कि सपा की कांग्रेस से पटरी बैठने वाली नहीं है। मायावती सिवाय एक शिष्टाचार के तहत दिए जवाब के अलावा खामोश रहीं। इस सबके बीच जो तगड़ा दांव खेला, वो थे जयंत चौधरी।
जयंत ने राहुल को कहा तपस्वी फिर नेताओं को उतार दिया
जयंत चौधरी इस यात्रा पर क्या कहते हैं, इस पर सबकी निगाहें जमी हुई थीं। इसकी वजह यात्रा के जिले थे। लोनी से होकर बड़ौत, बागपत, शामली कैराना तक राहुल का जो रूट था, वो जयंत के दादा और पिता की आठ दशकों से सबसे मजबूत राजनीतिक जमीन रही है।
राहुल की यात्रा यूपी में दाखिल हुई और अब तक खामोश जयंत का ट्वीट आया। ये ट्वीट अखिलेश और मायावती की तरह सिर्फ शिष्टाचार निभाने के लिए नहीं था, उससे काफी कुछ संदेश छुपा था। जयंत ने ट्वीट में लिखा- भारत जो़ड़ो यात्रा के तपस्वियों आपको सलाम।
यात्रा 4 जनवरी को बागपत से शामली के लिए चली तो जयंत का अगला दांव दिखा। उन्होंने अपने विधायकों, पदाधिकारियों को आरएलडी के झंडों के साथ राहुल के स्वागत में उतार दिया। शामली विधायक प्रसन्न चौधरी, थानाभवन एमएलए अशरफ अली, पुरकाजी के विधायक अनिल कुमार 5 जनवरी की सुबह 6 बजे यात्रा के स्वागत में ऐलम में खड़े थे।
जयंत चौधरी के इस तरह से समर्थन की कांग्रेस ने भी तारीफ की। जयराम रमेश ने उनको धन्यवाद कहा। यूपी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अजय लल्लू ने तो यहां तक कह दिया कि जयंत बाहर हैं इसलिए मौजूद नहीं हैं लेकिन जिस तरह उनके नेता हमारे साथ आए, उसके लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं।
कांग्रेस और आरएलडी के बीच ये जुगलबंदी तब देखने को मिली जब राहुल गांधी और अखिलेश यादव में 4 दिन पहले तीखी बयानबाजी हो चुकी थी। साफ है कि जयंत ने अखिलेश को एक मैसेज भेज दिया कि हम आपसे अलग जाकर भी फैसले ले सकते हैं।
अब बात जयंत और चंद्रशेखर की जुगलबंदी की
बीते महीने हुए खतौली उपचुनाव के वक्त जयंत चौधरी की पार्टी आरएलडी को भीम आर्मी के चंद्रशेखर ने समर्थन दिया। चुनाव में अखिलेश प्रचार के लिए नहीं पहुंचे थे लेकिन चंद्रशेखर गांव-गांव घूमे। आरएलडी जीती और जीत के बाद मदन भैया चंद्रशेखर से मिलने उनके घर भी पहुंचे। वहीं गठबंधन के सीनियर पार्टनर अखिलेश यादव से मदन भैया नहीं मिले।
खतौली उपचुनाव के बाद चंद्रशेखर जयंत के साथ चौधरी चरण सिंह को उनकी जयंती पर श्रद्धांजलि देने दिल्ली आए। यहां उनसे जयंत के साथ राजनीतिक गठबंधन पर बात हुई तो चंद्रशेखर ने कहा कि वो अपने बड़े भाई के साथ आए हैं।
बात अखिलेश और चंद्रेशेखर के रिश्तों की करें तो 2022 विधानसभा में गठबंधन ना होने पर चंद्रशेखर ने जमकर अखिलेश पर भड़ास निकाली थी। खतौली उपचुनाव में आरएलडी के समर्थन पर भी चंद्रशेखर ने खुलकर ये कहा कि उनकी अखिलेश यादव से नहीं जयंत चौधरी से ही बात हुई है।
ये भी याद दिला दें कि हाल ही में जयंत और चंद्रशेखर साथ में राजस्थान पहुंचे थे। राजस्थान में आरएलडी के साथ कांग्रेस का गठबंधन है। जयंत के मंच पर यहां सचिन पायलट भी थे और अशोक गहलोत भी।
अब अगर हम चंद्रशेखर और कांग्रेस के रिश्तों पर बात करें तो चंद्रशेखर प्रियंका गांधी को कभी बहन के अलावा कुछ और कहकर बात नहीं करते हैं। 2017 में चंद्रशेखर पर मुकदमों और पुलिस की पिटाई के बाद प्रियंका उनसे मिली थीं। प्रियंका की मदद और उनसे मिली मदद को चंद्रशेखर आज भी याद करते हैं।
इस सबके बताने के पीछे मकसद यही है कि जयंत चौधरी की आरएलडी, चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी और कांग्रेस के बीच एक तालमेल कितनी आसानी से हो सकता है। यही सब जयंत इशारे में अखिलेश तक पहुंचा देना चाहते हैं।
अब तक गठबंधन में अखिलेश की ही चलती रही है
अखिलेश और जयंत के बीच संदेश की बात समझने से पहले इस गठजोड़ के इतिहास में झांकना जरूरी है। सपा और आरएलडी के बीच गठजोड़ की शुरुआत 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद हुई, जब दोनों ही दल बुरी तरह से हार गए। 2018 के कैराना के उपचुनाव में पहली बार मिलकर लड़े। आरएलडी ने सीट मांगी और सपा ने दे भी दी लेकिन सीट के साथ कैंडिडेट भी दिया। चुनाव निशान रालोद का लेकिन चुनाव लड़ीं सपा की तबस्सुम हसन। तबस्सुम जीतीं तो गठजोड़ चल निकला।
2019 के लोकसभा में सपा और रालोद के साथ मायावती भी आ गईं। रालोद 5 लोकसभा सीटें चाहती थीं। सपा काफी दिन तक 2 से आगे नहीं बढ़ी फिर 3 सीटें तय हुईं। खैर जयंत ही झुके और तीन सीटों पर मान गए।
2022 का विधानसभा चुनाव आया तो सपा-आरएलडी साथ लड़े। गठबंधन में एक बार फिर अखिलेश यादव की ही चली। यूपी चुनाव में सपा की तरफ से आरएलडी को लड़ने के लिए कुल 26 सीटें दी गईं।
अखिलेश के प्रभाव को ऐसे समझा जा सकता है कि मथुरा की छाता और मांट जैसी रालोद की मजबूत सीटें सपा के खाते में चली गईं। मेरठ की सिवालखास, मुजफ्फरनगर की मीरापुर, खतौली, पुरकाजी, सदर सीटें आरएलडी को दीं लेकिन कैंडिडेट अपने दे दिए। जयंत ने सब स्वीकार कर लिया। चुनाव में बीजेपी फिर से जीती तो अखिलेश कमजोर पड़े।
हाल ही में हुए खतौली उपचुनाव के बाद माहौल बदला है। चुनाव में जयंत ने अकेले दम पर भाजपा से ये सीट छीन ली जबकि सपा रामपुर जैसा गढ़ भाजपा से हार गई। खतौली के नतीजों और चंद्रशेखर के साथ से जयंत उत्साह में दिख रहे हैं। जयंत अब 2019 या 2022 के चुनाव की तरह समझौते के मूड में नहीं हैं।
निकाय चुनाव और 2024 के लिए गठबंधन में ज्यादा जगह बनाने की कोशिश में जयंत
उत्तर प्रदेश 2023 की शुरुआत के साथ ही पूरी तरह से चुनावी मोड में जा चुका है। राज्य में साल की पहली तिमाही में निकाय चुनाव होने हैं। निकाय चुनाव जैसे ही खत्म होंगे तो लोकसभा की तैयारियां शुरू हो जाएंगी।
निकाय चुनाव के लिए पश्चिम में रालोद-सपा में रस्साकशी पहले ही चल रही है। खासतौर से मेरठ की सीट पर जहां रालोद के कई उम्मीदवार हैं तो सपा से अखिलेश के करीबी अतुल प्रधान अपनी पत्नी को लड़ाने की बात कह चुके हैं।
2024 के लोकसभा में भी मुजफ्फरनगर, बिजनौर, मथुरा, कैराना ऐसी सीटें हैं, जिन पर सपा और आरएलडी दोनों ही लड़ना चाहते हैं।
निकाय चुनाव और लोकसभा से पहले जयंत ने जिस तरह से चंद्रशेखर को साथ मिलाया है और अब कांग्रेस की यात्रा को खुला समर्थन दिया। उसने कम से कम अखिलेश यादव को साफ संकेत दे दिया है कि इस बार आपकी ही नहीं चलेगी, हमारी भी चलेगी और नहीं चलेगी तो कांग्रेस-रालोद-आजाद समाज पार्टी का एक गठजोड़ बनते देर नहीं लगेगी।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."