Explore

Search
Close this search box.

Search

November 22, 2024 12:11 pm

लेटेस्ट न्यूज़

“लट्ठमार दिवारी” ; सौहार्द्रता का प्रतीक यह परंपरा अजीब तो है ही कम रोचक भी नहीं है….

13 पाठकों ने अब तक पढा

दुर्गा प्रसाद शुक्ला की खास रिपोर्ट 

बुंदेलखंड की धरती अपने इतिहास और संस्कृति की थाती समेटे है तो परंपराओं को भी जीवंत रखे हुए हैं। इन्हीं में से एक सदियों पुरानी लट्ठमार दिवारी भी है, दीपावली के बाद परेवा पर गोवर्धन पूजा के बाद 12 गांवों में 12 साल तक कठिन व्रत उठाने वाली टोली लोगों का मनोरंजन करती है। कहते हैं कि द्वापर काल से जारी इस पंरपरा का निर्वहन यदुवंशी करते आ रहे हैं। 

क्या है अनूठी परंपरा और व्रत

बुंदेलखंड में दीपावली के बाद लट्ठमार दिवारी नृत्य प्रतियोगिता सौहार्द्र का संदेश देती है। परेवा पर यदुवंशियों की टोली गांवों में मौनिहा दिवारी नृत्य करके मनोरंजन करती हैं। ढोल-नगड़िया की धुन पर टाेली में शामिल मौनिहा एक-दूसरे पर पूरे प्रहार के साथ लाठी मारते हुए दिवारी नृत्य कला का करतब दिखाते हैं। सामने नृत्य करने वाले के लाठी के प्राहर से खुद को बचाने के साथ नृत्य करना ही इसकी खास बात है। यह नृत्य कला देखने के लिए महिलाएं, बेटियां भी घरों से बाहर निकलती हैं। 

मोर पंख लगा पैरों में घुंघरु पहनते हैं मौनिहा

दिवारी नृत्य करने वालों को मौनिहा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वह कठिन मौन व्रत रखते हैं। 12 साल तक वो किसी से बात नहीं करते हैं और न ही कुछ बोलते हैं। दीपावली पर मौनिहा की टोली गांवों में निकलती है, जिसमें हर मौनिहा कमर पर मोर पंख और लाल-पीले वस्त्र पहनता है और पैरों में घुंघरू बांधे होते हैं।

सभी देव स्थानों का करते हैं भ्रमण

मौनिहा की टोली गांवों में सभी देव स्थानों पर लाठियों के जरिए दिवाली खेलते हुए भ्रमण करते हैं। टोली में शामिल बुजुर्ग दिवारी गीत गाते हैं और इसी बीच ढोल व नगड़िया की धुन में सभी मौनिया नृत्य करते हैं और लट्ठमार दिवारी खेलते हैं। दिवारी खेलने से पहले वे एक दूसरे से हाथ मिलाते हैं या बड़ों के पैर छूते हैं। बुंदेलखंड के महोबा, हमीपुर, चित्रकूट, बांदा आदि जनपदों के गांवों में परंपरा का निर्वहन होता है।

द्वापर युग से चली आ रही परंपरा

बड़ोखर खुर्द गांव निवासी लोकनृत्य कला मंच के संयोजक रमेश पाल बताते हैं कि जैसा कि पूर्वजों से सुनते आ रहे है कि दिवारी नृत्य कला की परंपरा द्वापर युग से जारी है। यदुवंशी इस परंपरा को तबसे निभाते आ रहे हैं। दिवारी नृत्य करने वालों की टोली 12-12 गांवों में जाकर 12 साल तक नृत्य करती हैं। एक टोली जब इसे शुरू करती है तो उसे मौन साधना के साथ 12 साल तक 12 अलग-अलग गांव में प्रति वर्ष हर दीपावली में भ्रमण करना होता है। इसके बाद मौन व्रत का पारायण कराया जाता है और फिर अगली टोली इस व्रत को धारण करती है।

दिवारी नृत्य के पीछे यह है मान्यता

बड़ोखर खुर्द के दिवारी लोकनृत्य कलाकार बुजुर्ग गया प्रसाद यादव कहते हैं कि श्रीकृष्ण यमुना नदी के किनारे बैठे हुए थे, तभी उनकी सारी गाय खो जाती हैं। गायों को न पाकर भगवान श्रीकृष्ण दुखी होकर मौन हो गए. इसके बाद भगवान कृष्ण के सभी ग्वाल दोस्त परेशान होने लगे। ग्वाल-बालों ने सभी गायों को तलाश लिया और उन्हें वापस लेकर आए, तब भगवान कृष्ण ने अपना मौन तोड़ा। इसी मान्यता के साथ श्रीकृष्ण के भक्त गांव-गांव से मौन व्रत रखकर आते हैं और दिवारी नृत्य करते हैं।

samachar
Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

लेटेस्ट न्यूज़