दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट
कानपुर। बाजार और त्योहार के बीच खास रिश्ता है। शहर का एक ऐसा बाजार है जो 250 साल से मिठास बांट रहा है, वो मिठास भी ऐसी है कि जिसका दीवाना बच्चों से लेकर बूढ़े तक हैं। इतना ही नहीं इसकी मिठास का जादू ऐसा रहा है कि कभी अंग्रेज भी इस बाजार में हाथी, घोड़ा और चिड़िया खरीदने आते थे। जी हां, कानपुर के हूलागंज बाजार की पहचान यहां बनने वाले हाथी, घोड़ा और चिड़िया की मिठास है। करवाचौथ पूजन से लेकर धनतेरस, दीपावली और गोवर्धन पूजन तक में इस मिठास का भोग लगता है। इतना ही नहीं यहां की लइया और खील भी खासा प्रसिद्ध और ‘लइया बड़ी करारी है, लइया चुरमुर वाली है…’ कहावत भी हर जुबां पर आम है। पढ़िये इस खास रिपोर्ट में बाजार से जुड़ी रोचक बातें…।
ऐसे पड़ा हूलागंज नाम
ब्रिटिश काल में सर ह्यू व्हीलर के नाम पर इस मोहल्ले की पहचान व्हीलरगंज के नाम से थी। इतिहासकार बताते हैं कि उनकी स्मृति में ही ये नाम पढ़ा। अंग्रेजों की छावनी पास में होने के कारण वह यहां आते-जाते भी थे। बाद में भारतीयों ने अपने सेनापति हुलास सिंह के नाम पर इसे हूलागंज कर दिया।
चीनी के गट्टा-खिलौना और लाइया-खील का बड़ा बाजार
कानपुर में अंग्रेजों के जमाने के तमाम मोहल्लों की गलियां अब बड़े-बड़े बाजारों को समेटे हुए हैं। इनमें से एक घंटाघर चौराहे से आगे एक्सप्रेस रोड पर थोड़ा चलने के बाद दायीं ओर बसा हूलागंज बाजार है। यहां दीपावली के पूजन और खानपान में खास चीनी के गट्टा-खिलौना, लइया व खील का उत्तर भारत का बड़ा बाजार है। पीढ़ी दर पीढ़ी लगभग 250 साल से यहां के कारखाना संचालक और दुकानदार ये मिठास बांट रहे हैं। यहां कभी अंग्रेज सामान खरीदते थे तो आसपास सुदूर गांवों के किसान, ग्रामीण बैलगाड़ी से खरीदारी करने आते थे। गट्टा-खिलौना, लइया व खील जैसी वस्तुएं खरीदने की सोच रहे हैं तो फिर ये बाजार आपके लिए खास है।
शक्कर से बनते हाथी, घाेड़ा और चिड़िया के खिलौने
दीपावली पर बचपन में हाथ की हथेली जैसा गट्टा खूब खाया होगा। हाथी, घोड़ा, पालकी, चिड़िया और मटकी जैसे आकार में शक्कर से बने खिलौनों को खाने का मजा ही कुछ और होता है। देश के कई प्रांतों और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड समेत तमाम जिलों में यहां से गट्टा-खिलौना की आपूर्ति होती है। हूलागंज, एक्सप्रेस रोड, नयागंज से लेकर आसपास के बाजारों और छोटे-छोटे मोहल्लों, चौराहों पर लइया व खील की बिक्री भी दीपावली के कई दिन पहले से शुरू हो जाती है। आजादी से पहले तक लइया का बड़े पैमाने पर हूलागंज में निर्माण में होता था। वर्तमान में कहावत लइया है करारी, ये गट्टा कंपू वाला है.., कही जाने लगी है।
लखनऊ के सांचे पर ढलते गट्टे और खिलौने
हथेली जैसे बड़े गट्टा और अलग-अलग तरह के खिलौने तैयार करने के लिए लखनऊ में लकड़ी से निर्मित सांचे का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी अलग-अलग डिजाइन होती है। इसमें हाथी, घोड़ा, पालकी, घर, मटकी, सुराही जैसी डिजाइनें लोग ज्यादा पसंद करते हैं। झारखंड से आने वाले कोयले की तेज और फिर धीमी आंच में शक्कर से गट्टे-खिलौने बनाने का तरल पदार्थ तैयार किया जाता है। इसके बाद सांचे में डालकर डिजाइन बनती है।
मध्यप्रदेश और बिहार तक गट्टे की आपूर्ति
कानपुर और आसपास के जिलों के साथ ही मध्य प्रदेश, बिहार तक गट्टा 50 रुपये प्रतिकिलो की दर से भेजा जाता है। ऐसे ही छोटे-छोटे गट्टे के टुकड़े भी बनाए जाते हैं। वहीं, इलायची दाना बड़ी कढ़ाई में बूंदी की तरह तैयार किया जाता है, जो 40 रुपये थोक और फुटकर में 55 रुपये प्रतिकिलो तक बिकता है। गट्टा व खिलौने बेच रहे गुड्डू व उनके पुत्र आर्यन बताते हैं कि आसपास के तमाम जिलों से फुटकर बिक्री करने वाले दुकानदार दीपावली से पहले माल खरीदने आने लगते हैं। इस साल भी दुकानदार आ रहे हैं, क्योंकि कोरोना काल के बाद अब बाजार थोड़ा सुधरा है।
छत्तीसगढ़, बिहार व बंगाल से आती लइया-खील
हूलागंज के कारोबारी हरि नारायन कुशवाहा बताते हैं कि अंग्रेजों के समय में उनके पूर्वज भी यहां पर लइया व खील का काम करते थे। तब आसपास के ग्रामीण व किसान यहां धान लाते थे, जिससे लइया व खील तैयार की जाती थी। अब चूरा, लइया व खील की छतीसगढ़, बिहार और बंगाल से ज्यादा आपूर्ति होती है। कुछ जगह हूलागंज में भी बनाई जाती है। हूलागंज पुरानी लइया मंडी के रूप में प्रसिद्ध है।
बाजार से जुड़ी रोचक बातें
250 साल पहले यहां शुरू हुआ था बताशा, गट्टा व खिलौने का काम।
50 बड़ी दुकानों में साल भर माल बनाया व बेचा जाता है।
200 दुकानें व कारखाने त्योहार पर माल तैयार कर बेचते।
500 क्विंटल माल की आपूर्ति त्योहार व अन्य दिनों में मिलाकर हो जाती।
150 थोक व फुटकर दुकानें लइया व खील की एक्सप्रेस रोड पर हैं।
एक्सप्रेस रोड पर बिक्री, ये सामान भी मिलता
हूलागंज के साथ ही एक्सप्रेस रोड पर भी लइया, गट्टा, खिलौना व खील का बाजार सजता है। यहां किराना व बेकरी का माल भी रहता है। मिश्री, शक्कर का खिला दाना व महीन भी बेचा जाता है, जिसे खरीदने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."