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November 22, 2024 8:05 pm

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स्वाद का खजाना, ज़ुबान, लिबास और लोककलाओं का संगम के साथ तमीज ओ लिहाज की विरासत से आपको कराते हैं रुबरु

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दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट

लखनऊ ने गर्व से कहा- ‘मेरे दामन में तो इतनी विरासतें हैं कि महज नाम भर ले लूं तो कई किताबें लिख जाएं।” स्वाद का खजाना लखनऊ जैसा कहीं और नहीं। जुबान, लिबास, लोक कलाएं और संस्कृति हर एक चीज विरासत है। राजपूत, मुगलिया और यूरोपीय गौथिक शैली में निर्मित इमारतें विख्यात हैं।

गंगा नदी की सहायक नदी कही जाने वाली गोमती के छोर पर बसे लखनऊ को उसके नवाबी रंग में डूबे इलाकों, बागीचों और अनोखी वास्तुकला से सजी इमारतों के लिए जाना जाता है।

नवाबों के शहर के नाम से मशहूर लखनऊ में सांस्कृतिक और पाक कला के विभिन्न व्यंजनों से अपने आकर्षण को मजबूती के साथ संजोता है।

अपने विशिष्ट आकर्षण, तहजीब और उर्दू भाषा के लिए प्रसिद्ध लखनऊ विशिष्ट प्रकार की कढ़ाई और चिकन से सजे हुए परिधानों और कपड़ों के लिए भी लोगों की पहली पसंद है।

इस अदब के शहर की एक और खासियत है, वह है यहां की बोली। उर्दू के साथ हिंदी की जुगलबंदी एक अजब मिठास घोलती है। और तो और यहां ‘एक’ आदमी ‘हम’ होता है।

बेशक, इसे व्याकरण में गलत माना जाता हो लेकिन, इस अदांज में कोई तो बात है कि, हर कोई बरबस ही इसका मुरीद हो जाता है।

खाने में किए गए प्रयोग: दूध और मैदे से बनी बाकरखानी रोटी को यहां के महमूद मियां ने शीरमाल की सूरत दी। यहीं पर नान अफलातूनी ईजाद की गई और नान जलेबी भी बनती थी। नवाब मसूद अब्दुल्लाह के अनुसार, यहां हर चीज जोड़े के हिसाब से बनाई गई। जैसे शीरमाल के साथ कबाब, रोगनी के साथ कबाब, नहारी के साथ कुलचा, करेले के साथ रवे की रोगनी, नमश जिसे अब मक्खन मलाई कहते हैं के साथ तुनकी रोटी बेफर्स की तरह की नमकीन रोटी है।

लखनऊ में पुलाव पकता है, दिल्ली या हैदराबाद में बिरयानी। यहां मसालों को बहुत ज्यादा कूटा जाता है, पीसा जाता है, उसमें दरदरापन नहीं होता।। नसीरुद्दीन हैदर के बावर्ची ने जब शीरमाल बनाई तो नवाब ने जो लुकमा तोड़ा, तो लुकमे को तोड़ने पर जो कट आया, शीरमाल का ट्रेडमार्क हो गया। यहां की बालूशाही, खोए और बूंदी से तैयार मीने के लड्डू, शकरपारे और नान खटाई, रेवड़ी, शाही टुकड़े, काली गाजर का हलवा, दूधिया बर्फी, राजभोग, आम की खीर के साथ ही दही जलेबी भी खूब पसंद की जाती है। सावन में अनरसे की गोलियों का तो जवाब ही नहीं।

हम आपको बता दें की यहाँ कुछ सबसे राजसी और भव्य कोठियों मौजूद हैं। लखनऊ आज भी अपनी सदियों पुरानी निर्मित शानदार कोठियों की प्रशंसा का आनंद ले रहा है। ये कोठियां लखनऊ के लंबे समय से चले आ रहे, समृद्ध सांस्कृतिक और स्थापत्य इतिहास का हिस्सा रही हैं और अभी भी लोग इनके भव्य डिजाइनों से आकर्षित रहते हैं। कोठियों अपनी स्ट्रेटेजिक डिजाइनों, कलात्मक नक्काशी जैसे पहलुओं के कारण प्रसिद्द हैं। आइए हम समय के पन्नो को पलटते हैं और देखते हैं की किस प्रकार इन शानदार कोठियों ने लखनऊ के सांस्कृतिक और सियासी इतिहास में योगदान दिया।

अजादारी और अवध’ किताब के लेखक एसएन लाल ने बताया कि इन इमारतों में विचित्र प्रकार का दिशा संबंधी भ्रम दिखाई देता है। नवाबी काल में बनने वाली इमारतों पर कुरान की आयतें लिखने का काम (कैलीग्राफी) शुरू हुआ। कुरान, हदीसों के साथ कर्बला के वाक्यात भी लिखे। आदाब जो कि अदब का बहुवचन है, यह भी लखनवी तहजीब की पहचान है।

मोहर्रम का शाही जुलूस, रौशन चौकी और सोजख्वानी नवाब वाजिद अली शाह ने मोहर्रम के शाही जुलूस को और बड़ा किया। उन्होंने जुलूस में नौहा, मरसिया, मातम, अलम, जरी ताजिये, माहे मरातिब व ऊंट अमारी के साथ-साथ जुलूस में रौशन चौकी यानि शहनाई, ढोलक, ढोल ताशे, ढफे, फ्रांसिसी बैंड, आरगन बाजा, हाथी, घोड़े और खान-कश्ती वगैरह शामिल किया।

नवाबी दौर में कुछ गवैय्ये भी अजादारी में हिस्सा लेने आगे आए, जिन्होंने मरसिया को गाकर पढ़ना शुरू किया। मरसियों के गाकर पढ़ने के चलन ने सोज का जामा पहन लिया। जब इसके खिलाफ आवाज उठाई गई कि ये गाना है और यह हराम है, तब इराक से इसके लिए फतवा आया कि अगर सोज सुनकर रोना आए तो सोज पढ़ना सही है। लखनऊ में बड़े-बड़े सोजख्वान हुए। कई हिंदू सोजख्वान भी हुए और हैं भी जैसे सुनीता झिंगरन…।

वरिष्ठ साहित्यकार डा. विद्या विंदु सिंह के अनुसार, लोक शिल्प में मौनी डलवा, खिलौने व गुड़िया आदि बनाना, बेनिया पंखी, कसीदाकारी पहले होती थी। शादी के समय बिटिया को घर गृहस्थी की हस्तनिर्मित वस्तुएं दी जाती थीं। तकिया पर कसीदाकारी करके प्रेम के संवाद और संबोधन लिखते थे। लोक पत्र शैली, जिसमें कविता के माध्यम से लोग पत्र लिखते थे, यह भी अब लुप्त हो रही है। व्रत और त्योहारों की कलाएं और कथाएं भी विशेष हैं। भित्ति चित्र, भूमि चित्र सभी को सहेजना जरूरी है।

विवाह के अवसर पर कोहबर, आरती की थाल और कलश सजाना भी एक कला है। मौनी डलिया में मूंज और काश की एक पिटारी बनती थी, अब वह सब लुप्त हो रही। बर्तन बनाने की तरह-तरह की कलाएं हैं, उन्हें संरक्षित किया जाना चाहिए। अनेक प्रकार के लोक पकवान हैं जैसे जगन्नाथ पूजा के समय गुड़ धनिया आदि के बारे में लोगों को बताया जाना चाहिए। चौक पूरना, सतिया बनाना और इनमें निहित अर्थ नई पीढ़ी को बताया जाना चाहिए।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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