अंजनी कुमार त्रिपाठी
इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछली 20वीं सदी के एक सौ वर्षों का भारत का इतिहास देश को आजादी दिलाने वाली पार्टी कांग्रेस के इतिहास से ही बावस्ता रहा और इस दौरान भारत का जो भी विकास हुआ उसमें कांग्रेस पार्टी की विचारधारा का ही प्रादुर्भाव रहा। इस पार्टी के नेतृत्व ने भारत को कृषि से लेकर विज्ञान और आन्तरिक सुरक्षा से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा तक के क्षेत्र में नई ऊंचाइयां प्रदान कीं और देश की अर्थव्यवस्था को इस प्रकार संचालित किया कि 1947 में अंग्रेजों द्वारा छोड़े गये कंगाल भारत में बहुत मजबूत मध्य वर्ग का सृजन इसकी बढ़ती आबादी के समानान्तर ही पनपा परन्तु बीसवीं सदी के अन्तिम दशक तक इस आर्थिक ढांचे में ठहराव आ गया जिसकी वजह से कांग्रेस के नेताओं ने आर्थिक तन्त्र का ‘गियर’ बदलते हुए बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की तरफ इस देश को डाला। यह काम होने के बाद भारत के लोगों की राजनीतिक वरीयताएं बदलीं और वैचारिक रूप से उनमें राष्ट मूलक भावना का उदय वैश्विक अर्थ व्यवस्था के लागू होने पर पूरी दुनिया के एक बाजार में तब्दील हो जाने की वजह से हुआ।
वैश्विक अर्थव्यवस्था के दौरान राष्ट्रीय अस्मिता और इसकी पहचान का सतह पर आना स्वाभाविक प्रक्रिया थी क्योंकि आर्थिक प्रतियोगिता के प्रभावों से इस पहचान के छिप जाने का बहुत बड़ा खतरा था। यहीं से आज की केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा की विजय यात्रा का प्रारम्भ होता है। बेशक इसकी शुरूआत अयोध्या में श्री राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन से मानी जाती है परन्तु वास्तव में इसका प्रारम्भ 1991 से उदारीकरण की आर्थिक व्यवस्था के लागू होने से ही हुआ। मगर इस व्यवस्था ने राजनीतिक दलों की सैद्धान्तिक विचारधाराओं को भीतर से कमजोर करना शुरू किया कि राष्ट्र व आम लोगों के विकास के सभी रास्ते एक ही मुकाम अर्थात बाजार की शक्तियों पर जाकर खत्म होते थे। इस माहौल में भारत से साम्यवादी या कम्युनिस्ट विचारधारा का पत्ता कटना तय था साथ ही समाजवादी सोच का कमजोर होना भी स्वाभाविक प्रक्रिया थी परन्तु राजनीति एक विज्ञान है और इसमें कभी कोई स्थान खाली नहीं रहता है अतः राष्ट्रवादी विचारों से यह जगह भरती चली गई और भारतीय जनता पार्टी देश की नम्बर एक पार्टी के रूप में स्थापित होती चली गई लेकिन इस विचार को स्थापित करने के लिए भाजपा को एक ओजस्वी राजनीतिज्ञ की जरूरत थी जो श्री नरेन्द्र मोदी के रूप में उसे मिला और श्री मोदी ने 2012 से ही भारत की सांस्कृतिक पहचान को राष्ट्रवाद की पताका बना कर जब भारत के लोगों के सामने पेश किया तो राष्ट्रीय राजनीति के नियामक ही बदलने लगे और आम जनता के सामने राष्ट्रवाद भारत की मूल प्राचीन पहचान के रूप में उभर कर आया। एेसा नहीं है कि इस पहचान को पिछली सदी में छिपाने का प्रयास किया गया था मगर इसके मानकों को संशोधित जरूर किया गया था जिससे भारत धर्म के आधार पर 1947 में किये गये विभाजन की पीड़ा से उबर सके। मगर यह काम इकतरफा किया गया जिसकी प्रतिक्रिया भारतीय जनमानस में होनी ही थी क्योंकि इस प्रक्रिया में भारत के बहुसंख्यक समाज की मनोभावनाओं को पर्दे के पीछे रख कर देखने की चेष्टा की गई। राजनीति सामाजिक संरचना की ही छाया की तरह काम करती है अतः बीसवीं सदी के समाप्त होते ही हमें भारत की राजनीति में गुणात्मक परिवर्तन देखने को मिला।
दरअसल यह लोकतन्त्र की ताकत का ही परिचायक है जिसमें जनता की इच्छा सर्वोपरि होती है। सबसे बड़ी खूसूरती भारत की यह है कि इसने यह परिवर्तन संविधान के उस ढांचे के भीतर किया जिसमें प्रत्येक वयस्क नागरिक को बिना किसी भेदभाव के एक वोट का अधिकार दिया गया है। अतः गणतन्त्र दिवस से एक दिन पहले कांग्रेस के नेता श्री आरपीएन सिंह का कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में जाना इस वजह से आश्चर्यजनक नहीं माना जा सकता कि बदली हुई परिस्थितियों में राष्ट्रवाद केन्द्रीय विमर्श बन चुका है और राजनीतिक सिद्धान्त मूल विविधता छोड़ कर सत्ता के समीकरणों के हमजोली हो चुके हैं। 26 जनवरी हमें गणजनशक्ति का विश्वास दिलाती है और राष्ट्रवाद में इसका समाहित होना स्वतन्त्र भारत की राजनीतिक यात्रा का महत्वपूर्ण चरण है।
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Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."