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November 22, 2024 11:34 pm

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ग़सान कनाफ़ानी : क्रांतिकारी लेखक और फ़िलिस्तीनी संघर्ष का प्रतीक

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विनीत तिवारी की खास खबर

ग़सान कनाफ़ानी सिर्फ़ एक लेखक नहीं थे, बल्कि वे एक क्रांतिकारी विचारक और साहित्यकार थे। उनका साहित्य केवल उनके समय की गवाह नहीं, बल्कि उस संघर्ष की आवाज़ भी है जो उन्होंने अपनी ज़िंदगी में जिया। 

1972 में बेरूत में जब उनकी उम्र महज 36 साल थी, एक बम धमाके में उनकी मौत हो गई। इस हमले की जिम्मेदारी इज़रायल की गुप्तचर संस्था मोसाद ने ली थी। उनकी मौत के वक्त उनके साथ उनकी 17 वर्षीय भांजी लमीस ही थी, जबकि उनके परिवार के अन्य सदस्य किसी कारणवश उनके साथ नहीं थे।

ग़सान कनाफ़ानी का जन्म 1936 में फ़िलिस्तीन के उत्तरी शहर अक्का में हुआ। उन्होंने अपने बचपन में ही फ़िलिस्तीनी लोगों के संघर्ष और विद्रोह को करीब से देखा। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, जब ऑटोमन साम्राज्य की हार हुई और ब्रिटिश साम्राज्य ने फ़िलिस्तीन पर कब्जा किया, तब से फ़िलिस्तीन में एक गहरी असंतोष की भावना पनपी। 

ब्रिटिश विदेश सचिव बालफोर के पत्र ने यहूदियों को फ़िलिस्तीन में राष्ट्रीय निवास की अनुमति दी, लेकिन ग़ैर-यहूदियों के अधिकारों की कोई गारंटी नहीं दी। इसने फ़िलिस्तीनियों में गहरी चिंता और अविश्वास को जन्म दिया।

दमिश्क में, कनाफ़ानी ने अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए एक प्रिंटिंग प्रेस में काम किया – शायद यही उनके बाद के लेखन करियर की चिंगारी थी। रात में, वह पढ़ाई करते थे और बाद में एक कला शिक्षक के रूप में योग्यता प्राप्त की, 1953 में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी के स्कूलों के लिए काम करना शुरू किया। यह लगभग उसी समय था जब फिलिस्तीनी क्रांतिकारी जॉर्ज हबश से मिलने के बाद किशोर राजनीतिक रूप से अधिक जागरूक हो गए थे।

हबश लिड (लोद) से थे और कनाफ़ानी की तरह, उन्हें भी इज़राइल की स्थापना के दौरान अपने वतन से भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। उनकी अरब राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी समाजवादी विचारधारा का कनाफ़ानी के विचारों पर बहुत प्रभाव पड़ा, और यह हबश ही थे जिन्होंने कनाफ़ानी को अल-राय (द ओपिनियन) अख़बार के लिए लिखना शुरू करने के लिए राजी किया।

60 के दशक की शुरुआत में, हबश ने पॉपुलर फ्रंट फॉर द लिबरेशन ऑफ फिलिस्तीन (पीएफएलपी) की स्थापना की, जो एक क्रांतिकारी संगठन था, जिसकी सैन्य शाखा ने गुरिल्ला अभियानों और नागरिक ठिकानों पर बमबारी के साथ-साथ विमान अपहरण के ज़रिए इज़रायली हितों को निशाना बनाया। कनाफ़ानी ने समूह के प्रवक्ता और इसकी साप्ताहिक पत्रिका  अल-हदफ़ के संपादक के रूप में काम किया।

1948 में इज़रायल के गठन के बाद, फ़िलिस्तीनियों ने बड़े पैमाने पर विरोध किया, लेकिन अंग्रेज़ों और पश्चिमी देशों की सैन्य ताकत के सामने उनकी शक्ति कमज़ोर पड़ गई। 

इस संघर्ष का ग़सान कनाफ़ानी पर गहरा प्रभाव पड़ा, और इस दौर ने उनके बागी विचारों को जन्म दिया। जब उनका परिवार फ़िलिस्तीन से शरणार्थी बनकर सीरिया चला गया, तो कनाफ़ानी ने वहाँ अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की।

वे सीरिया में दमिश्क यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने आए, लेकिन यहाँ उन्हें एक मार्क्सवादी नेता जॉर्ज हबाश से जोड़ दिया गया, जो पीएफ़एलपी (पॉपुलर फ्रंट फॉर लिबरेशन ऑफ फ़िलिस्तीन) का हिस्सा थे। इस राजनीतिक जुड़ाव की कीमत उन्हें अपनी पढ़ाई पूरी करने से पहले ही निकाल दिए जाने के रूप में चुकानी पड़ी।

ग़सान कनाफ़ानी का साहित्य केवल उनकी लेखनी तक सीमित नहीं था। उनका लेखन फ़िलिस्तीनी संघर्ष की एक मजबूत आवाज़ था। उन्होंने कविता, कहानी, संस्मरण, और आत्मवृत्त सब कुछ लिखा, लेकिन उनका लेखन सिर्फ़ कला नहीं था; यह अस्तित्व की लड़ाई का हिस्सा था। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से फ़िलिस्तीनी आज़ादी के आंदोलन को बल दिया और शोषण के खिलाफ एक मोर्चा बनाया। 

कनाफ़ानी के काम की व्यापकता और उनकी लेखनी का प्रभाव अद्वितीय है। वे उस दौर के संघर्षों को अपने लेखन के माध्यम से जीवित रखते हैं, जिससे फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के प्रति जागरूकता बढ़ती है। 

लातिनी अमेरिका में भी इसी तरह के प्रतिरोध के साहित्य उभरे, जहां शोषण और दमन का सामना करना पड़ा। ग़सान कनाफ़ानी की कहानियाँ और उपन्यास न केवल उनके समय की गवाह हैं, बल्कि भविष्य के संघर्षों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत हैं।

आज के समय में, कनाफ़ानी को याद करना केवल उनके साहित्य की प्रशंसा नहीं है, बल्कि फ़िलिस्तीनी संघर्ष के प्रति एकजुटता दिखाना भी है। फ़िलिस्तीन की आज़ादी की ख़्वाहिश को जीवित रखना और वहां के लोगों को गरिमा के साथ जीवन जीने का हक़ दिलाना हमारी जिम्मेदारी है। ग़सान कनाफ़ानी की कहानियाँ और उपन्यास इस संघर्ष को और बल देते रहेंगे, और उनकी आवाज़ कभी भी फीकी नहीं पड़ेगी।

[यह लेख जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज़, दिल्ली द्वारा ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) के राष्ट्रीय मुख्यालय में 12 जुलाई 2024 को आयोजित ‘ग़सान कनाफ़ानी की याद’ कार्यक्रम में डॉ. निदा आरिफ़ द्वारा दिए गए व्याख्यान और बातचीत पर आधारित है।]

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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