दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट
यह समझ से परे है कि किसी कार्यक्रम के आयोजकों का जितना जोर भीड़ जुटाने पर होता है, उसका एक अंश भी उस भीड़ को व्यवस्थित करने पर क्यों नहीं होता। अक्सर धार्मिक उत्सवों, मेलों, सत्संग, यज्ञ आदि के आयोजन में व्यवस्थागत खामियों के चलते भगदड़ मचने, दम घुटने, पंडाल वगैरह के गिरने से लोगों के नाहक मारे जाने की घटनाएं हो जाती हैं। इसके अनेक उदाहरण हैं, मगर उनसे शायद सबक लेने की जरूरत नहीं समझी जाती और फिर नए हादसे हो जाते हैं। उत्तर प्रदेश के हाथरस में हुआ हादसा इसकी ताजा कड़ी है।
उप्र के हाथरस जिले में कथित ‘भोले बाबा’ का सत्संग सामूहिक मौत में तबदील हो गया। सत्संग एक स्वयंभू बाबा का था, जिनके श्रद्धालुओं में मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक, अफसर भी शामिल हैं। हाथरस जिले के सत्संग में तब भगदड़ मच गई, जब गरीब, आम आदमी, महिलाएं आदि भक्त ‘भोले बाबा’ के पांव छूना चाहते थे। वह आस्था थी या धर्मान्धता थी, हम इस पर टिप्पणी नहीं करेंगे, लेकिन एक औसत इनसान ‘भगवान’ नहीं हो सकता। सत्संग की भीड़ में बाबा का आशीर्वाद लेने की होड़ लगी थी। वह होड़ ही भगदड़ में तबदील हो गई। वहां कुछ फिसलन थी, गड्ढा था, लिहाजा लोग फिसल कर एक के ऊपर एक गिरने लगे। वे आपस में रौंद भी रहे थे। भीड़ में इतनी हड़बड़ी थी कि लोगों ने इनसानों को ही कुचल दिया। अंतत: सत्संग 121 मौतों के साथ त्रासदी में बदल गया। करीब 35 घायल हो गए और 20 लापता बताए गए हैं। ये आंकड़े ज्यादा भी हो सकते हैं। कितने घर अनाथ हो गए। कितने घरों की ‘देवियां’ नहीं रहीं। बताया गया है कि 108 महिलाओं की मौत हुई है। सवाल यह है कि क्या कथित ‘भोले बाबा’ और उनके सेवादार आयोजकों के खिलाफ ‘गैर इरादतन हत्या’ का केस दर्ज किया गया है अथवा कोई संभावना है? मुख्य सेवादार और कुछ अन्य पर प्राथमिकी तो दर्ज की गई है। प्राथमिकी में ‘भोले बाबा’ का नाम क्यों नहीं है? बताया जाता है कि करीब 1.25 लाख की भीड़ सत्संग में आई थी। दूसरा पक्ष 2.5 लाख की भीड़ का दावा कर रहा है।
संख्या को लेकर राज्य के मुख्य सचिव, इलाके के आईजी, डीएम और एसडीएम आदि के अलग-अलग बयान हैं। सवाल हैं कि यदि स्थानीय प्रशासन ने सत्संग की अनुमति दी थी, तो क्या पर्याप्त बंदोबस्त देखे गए थे? जल, चिकित्सा, दवाई, डॉक्टर, एम्बुलेंस और प्रवेश-निकास दरवाजों आदि की व्यवस्था का निरीक्षण किया गया था? क्या पर्याप्त संख्या में पुलिस बल को तैनात किया गया था? एडीजी ने दावा किया है कि मौके पर 40 पुलिस वाले थे। क्या इतनी भीड़ के लिए 40 पुलिस वाले पर्याप्त थे? क्या छोटे से गांव में भीड़ का सैलाब देखकर प्रशासन और पुलिस सतर्क नहीं हुए, लिहाजा बंदोबस्त नहीं किए जा सके। एसडीएम दफ्तर का कहना है कि 50 हजार की भीड़ बताई गई थी, लेकिन 80 हजार से ज्यादा लोग पहुंच गए। स्थानीय पुलिस का कहना है कि हमें कार्यक्रम का जो पत्र मिला था, उसमें भीड़ का कॉलम खाली था। राज्य के सर्वोच्च अधिकारी मुख्य सचिव मनोज कुमार सिंह के बयान कुछ और ही हैं। प्रशासन के स्तर पर ये विरोधाभास क्यों हैं? आखिर किसकी जवाबदेही और जिम्मेदारी है? ऐसे धार्मिक और बाबाओं के आयोजनों में लोग आस्था और कष्टनिवारण की भावना से आते हैं। बेशक धर्मगुरु हों, सामाजिक नेता हों, प्रभावी लोग या आयोजक, हजारों-लाखों की भीड़ जुटा कर उन्हें उनके ही हाल पर छोड़ देते हैं। सरकारें और प्रशासन भी इन कथित बाबाओं पर हाथ नहीं डालते।
बाबा के आश्रम को लेकर एक बड़ा खुलासा हुआ है। एनडीटीवी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक बाबा भोले ने अपने आश्रम में एक गुप्त कमरा रखा हुआ है जहां पर सिर्फ सात लोगों को ही जाने की इजाजत होती है। इन सात लोगों में सेवादार और कुछ महिलाएं शामिल हैं। बताया जा रहा है कि यह सारे वो लोग हैं शुरुआत से ही नारायण हरि साकार के साथ जुड़े रहे हैं, कोई भी दूसरा शख्स यहां जा नहीं सकता है।
तीन सेनाएं कर रहीं सुरक्षा
हैरानी की बात यह है कि बाबा को पूरे समय अपनी जान का खतरा लगा रहता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वे रात आठ बजे के किसी से मुलाकात नहीं करते। कुल तीन तरह की सेना चौबीस घंटे उनकी सुरक्षा में लगी रहती हैं, उनके नाम हैं- नारायणी सेना, गरुड़ योद्धा और हरि वाहक। इन सभी सेनाओं को अलग ड्रेस कोड दिया गया है और इनके अपने कोड वर्ड भी होते हैं। नारायणी सेना के कुल 50, हरि वाहक के 25 और गरुड़ योद्धा के 20 जवान बाबा के साथ रहते हैं।
झूठी शक्तियों का बखान
एक और मीडिया पोर्टल टीवी9 ने बाबा के पूर्व सेवादार रंजीत सिंह से बात की है। उसने बताया है कि बाबा के पास कोई विशेष शक्ति नहीं है, वे सिर्फ ढोंग करते हैं, लोगों को भ्रमित करने के लिए अपने दूसरे साथियों से ही बड़े-बड़े दावे करवाते हैं। पूर्व सेवेदार के मुताबिक बाबा अपने इस साम्राज्य को स्थापित करने के लिए पहले कई एजेंट्स को अपने साथ जोड़ा, उन्हें पैसे दिए और फिर उन्हीं से बुलवाया कि बाबा के हाथ में कभी चक्र दिखता है तो कभी त्रिशूल।
अब यहां पर गौर करने वाली बात यह है कि असल में बाबा के पास ऐसी कोई ताकत नहीं है, उनके हाथ में कोई चक्र नहीं है। लेकिन क्योंकि एजेंट्स ने लोगों के बीच जाकर ऐसा प्रचार किया, बाबा की लोकप्रियता बढ़ती चली गई और देखते ही देखते उनके सत्संगों में लाखों की भीड़ आने लगी। उसी सेवादार ने बड़ा खुलासा करते हुए बताया है कि बाबा ने अपने आश्रम में कम उम्र की लड़कियां रखी हैं, उनके गलत काम भी करवाए गए हैं। अब क्या गलत काम, यह स्पष्ट नहीं, लेकिन बाबा पर कई सालों से यौन शोषण के आरोप लगते आ रहे हैं। उनके पास कई महंगी गाड़ियां भी मौजूद हैं, जो बड़ा ब्रान्ड उसकी गाड़ी उनके दरवाजे पर खड़ी रहती है। हैरानी की बात यह है कि कोई भी गाड़ी बाबा के नाम पर नहीं है, बल्कि दूसरों के नाम पर चल रही है। दावा है कि भक्तों ने ही उन्हें यह गाड़ियां दी हैं।
कोरोना महामारी के दौरान इसी ‘भोले बाबा’ ने उप्र के फर्रुखाबाद में सत्संग किया था। उसमें भी खूब भीड़ जुटाई गई थी। सरकार और प्रशासन ने उस सत्संग की इजाजत कैसे दे दी थी? घटनास्थल का दृश्य इतना भयावह, हृदयविदारक, विचलित करने वाला था कि एक पुलिस कर्मी रवि यादव को दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई। हम कथित ‘भोले बाबा’ को बुनियादी गुनहगार मानते हैं। वह और उनके सेवादार तो अस्पताल तक नहीं पहुंचे कि उनके श्रद्धालु जीवित हैं अथवा दिवंगत हो चुके हैं! मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 24 घंटे में हादसे की रपट मांगी थी। वह उन्हें मिल चुकी होगी! वह खुद घटनास्थल पर पहुंचे और अस्पताल में घायलों का हाल-चाल पूछा। बाबा कहां हैं, किसी को कोई जानकारी नहीं। वह कब तक भूमिगत रहेंगे? आखिर प्राथमिकी में उनका नाम क्यों नहीं है? एक इनसान और देश के नागरिक की कीमत 2-4 लाख रुपए नहीं है। मुद्दा और सवाल समुचित व्यवस्था और संवेदनशीलता का है। अंधविश्वास को लेकर हम किसी को कुछ भी राय नहीं दे सकते।
आखिर बाबा के पांव की धूल में कौनसा कल्याण निहित है? हमारे देश में बाबाओं की भरमार भी इसलिए है क्योंकि यहां अंधभक्तों की कमी नहीं है, विशेषकर महिलाओं को जागरूक होना होगा।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."