दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट
आम चुनाव का सियासी क्लामेक्स अब चरम पर पहुंच गया है। सात चरणों में होने वाले चुनाव के पहले चरण का चुनाव भी शुक्रवार को समाप्त हो गया। नतीजा 4 जून को पता चलेगा लेकिन अगर अब तक चुनाव प्रचार और लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के तरीके को देखें तो पक्ष और विपक्ष एकदम अलग रणनीति पर काम कर रहे हैं। दोनों की सियासी धारा एकदम अलग दिख रही है।
अगर बीजेपी की अगुआई में NDA का अब तक का चुनावी प्रचार देखें तो स्पष्ट है कि उसका पूरा चुनाव नरेन्द्र मोदी के नाम, काम और करिश्मे के भरोसे है। सिर्फ बीजेपी ही नहीं बल्कि उसके सहयोगियों के लिए भी सबसे बड़ा और अकेला सियासी तुरुप का पत्ता नरेन्द्र मोदी ही हैं।
‘मोदी की गारंटी’ इनका सबसे प्रमुख चुनावी थीम और हथियार दिखा है। पार्टी के मौजूदा सांसद या स्थानीय इनकंबेंसी को काउंटर करने के लिए इस चुनाव को राष्ट्र का चुनाव बनाया जा रहा है, और पीएम नरेन्द्र मोदी को लगातार तीसरी बार चुनने लिए वोट मांगा जा रहा है।
एनडीए को अहसास है कि नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता में तो कहीं कोई गिरावट नहीं है लेकिन कई जगह स्थानीय समीकरण उसके खिलाफ हो सकते हैं। इसका काउंटर करने के लिए राष्ट्रीय मुद्दों को सामने लाकर चुनाव को ‘मोदी चाहिए या नहीं चाहिए’ वाला बनाया जा रहा है।
चुनाव को प्रेजिडेंसियल फार्म में ले जाया जा रहा है। हालत यह है कि बिहार में पूर्णिया लोकसभा सीट पर जेडीयू उम्मीवार के रोडशो में उनके सामने नरेन्द्र मोदी की बड़ी फोटो लगी थी और उनके दल के नेता नीतीश कुमार की तस्वीर ही गायब थी। यही सूरत दूसरे सहयोगी दलों में भी दिखी।
सहयोगी दल भी अपने इलाके में पीएम मोदी की रैली की सबसे अधिक मांग कर रहे हैं। पीएम मोदी भी इस बार मजबूत देश के लिए मजबूत सरकार को आधार बनाकर मैदान में दिख रहे हैं।
विपक्षी गठबंधन पूरे चुनाव को स्थानीय मुद्दों और अपने लुभावने वादों के इर्द-गिर्द रखने की कोशिश में है। विपक्षी दल ‘पीएम नहीं, एमपी चुनें’ वाले नैरेटिव पर जोर दे रहे हैं। ऐसे में वे चुनाव को अधिकतर स्थानीय रंग देने की कोशिश में हैं।
विपक्ष के एक सीनियर नेता ने कहा कि दिल्ली को केंद्र में रखकर प्रचार जितना हाई वोल्टेज दिखेगा, उनके लिए मौके उतने ही कम हो जाएंगे। वह इस बात का जवाब दे रहे थे कि विपक्ष का चुनाव प्रचार बीजेपी के मुकाबले फीका क्यों दिखता है। तमाम विपक्षी दल स्थानीय मुद्दे और स्थानीय उम्मीदवार को ही ऊपर रख रहे हैं। इसके अलावा कांग्रेस 38 लाख सरकारी नौकरियां या महिलाओं को एक लाख रुपये सालाना मानदेय जैसे लोक लुभावने वादों की बात कर रही है।
वहीं विपक्ष जमीन पर संविधान बदलने की आशंका को भी मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहा है। इसके पीछे इनकी मंशा खासकर दलित और ट्राइबल वोट को अपने पक्ष में करने की है। इसीलिए पहले चरण के चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में नरेन्द्र मोदी ने इस आरोप को काफी आक्रामक रूप से काटने की कोशिश की।
2014 से अब तक कई चुनावों में मिली हार के बाद इस बार विपक्ष ने पहली बार चुनाव में सीधे नरेन्द्र मोदी पर हमला नहीं करते हुए उनकी नीतियों और रोजगार, संविधान बदलने जैसे मुद्दे चुने हैं। साथ ही बड़े विपक्षी नेता राष्ट्रीय मुद्दों से परहेज कर रहे हैं।
क्षेत्रीय दलों के नेता अपने राज्यों के मुद्दे के साथ चुनाव में हैं। नरेन्द्र मोदी हमेशा राजनीति को अपने हिसाब से पिच पर मोड़ने के लिए जाने जाते हैं। वह कहीं न कहीं चुनाव को देश के विकास और विरासत से जोड़ने में सफल रहे हैं।
साथ ही तमाम ओपिनियन पोल में भले बीजेपी को पूर्ण बहुमत से बड़ी जीत का अनुमान जताया गया लेकिन उनके सर्वे में बेरोजगारी और महंगाई मुद्दे भी सबसे अहम रहे। इन सब विरोधाभासों के बीच चुनाव करीब आते-आते माहौल तमाम करवटें ले रहा है लेकिन जैसा कि राजनीति में कहा जाता है कि चुनाव में मुद्दे-मसले बदलने के लिए 24 घंटे का भी वक्त बहुत होता है, अभी कुछ भी हो सकता है क्योंकि चुनाव पूरी तरह समाप्त होने में महीने से भी अधिक का वक्त है।
Author: samachar
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