हरीश चन्द्र गुप्ता की रिपोर्ट
छत्तीसगढ़ के कांकेर में सुरक्षाबलों ने मुठभेड़ में उनतीस नक्सलियों को मार गिराया। निस्संदेह यह बड़ी कामयाबी है। इस वर्ष इस घटना सहित अब तक करीब अस्सी नक्सली मारे जा चुके हैं। सरकार का कहना है कि छत्तीसगढ़ में नक्सली कुछ इलाकों तक सिमट कर रह गए हैं। जल्दी ही उन पर पूरी तरह नकेल कसी जा सकेगी।
केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे दावे बहुत समय से करती आ रही हैं, मगर हकीकत यह है कि अनेक उपायों, रणनीतियों और प्रयासों के बावजूद वहां माओवादी हिंसा पर काबू पाना कठिन बना हुआ है।
थोड़े-थोड़े समय पर नक्सली सक्रिय हो उठते और घात लगा कर सुरक्षाबलों पर हमला कर देते हैं।
नक्सलियों पर कंट्रोल करने से हथियारों तक पहुंच नहीं होगी
अगर सचमुच नक्सलियों को कुछ इलाकों तक समेट दिया गया होता और उनके संगठन कमजोर हो गए होते, तो उनके पास अत्याधुनिक हथियारों की पहुंच संभव न होती, सुरक्षाबलों की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए उनके पास कारगर संचार प्रणाली न होती।
छत्तीसगढ़ में करीब चालीस वर्ष से माओवादी हिंसा का दौर चल रहा है। इस बीच अनेक रणनीतियां अपनाई गईं, मगर वे कारगर नहीं हो पाईं हैं।
चुनाव के माहौल में सुरक्षाबलों की ताजा कामयाबी से नक्सली उपद्रवियों का मनोबल जरूर कमजोर होगा, पर इस समस्या को जड़ से समाप्त करने के लिए व्यावहारिक कदम की अपेक्षा अब भी बनी हुई है।
दरअसल, आदिवासी इलाकों में माओवादी हिंसा की कई परतें हैं। आदिवासियों को लगता है कि सरकार उनके जंगल और जमीन छीन कर उद्योगपतियों को सौंप देना चाहती है। वे इसका विरोध करते रहे हैं।
शुरू में इस मसले को बातचीत के जरिए सुलझाने की कोशिश की गई, मगर वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी। फिर बंदूक के जरिए उन पर काबू पाने का प्रयास किया जाने लगा। फिर आदिवासियों और समर्पण करने वाले नक्सलियों को ही बंदूक देकर नक्सली संगठनों के खिलाफ खड़ा करने की रणनीति अपनाई गई। उसमें काफी खून-खराबा हुआ, मगर नक्सली समस्या को समाप्त कर पाना संभव न हो सका। हेलीकाप्टर, ड्रोन और अत्याधुनिक संचार तकनीकी के जरिए उनकी गतिविधियों पर नजर रखी जाने लगी, पर उसमें भी बहुत कामयाबी नहीं मिल सकी।
नक्सली कई मौकों पर सुरक्षाबलों को अपने जाल में फंसा कर हमला करते भी देखे जा चुके हैं। दो साल पहले इसी तरह उन्होंने बीजापुर में बाईस सुरक्षाबलों को मार गिराया था।
नक्सली समस्या से पार पाने के लिए दो तरह के विचार काम करते रहे हैं, जिसमें आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए उनके इलाकों में विकास कार्यक्रमों पर बल देने की सिफारिश की जाती रही है। इसके तहत पिछली सरकार ने कई योजनाएं भी चलाई थी, ताकि उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो सके।
दूसरा विचार बंदूक के बल पर नक्सलियों के सफाए का रहा है। मगर हकीकत यह है कि उनसे निपटने के लिए कोई व्यावहारिक नीति आज तक नहीं बन सकी है।
हजारों निरपराध आदिवासी जेलों में बंद हैं, उनकी रिहाई के बारे में कोई कदम नहीं उठाया जा सका है। पांच-छह साल पहले एक नीति बनाने पर जरूर जोर दिया गया था, जिसमें उनसे बातचीत का प्रस्ताव भी था, मगर वह नीति बन नहीं सकी।
सबसे जरूरी है, स्थानीय आदिवासियों में यह भरोसा पैदा करना कि सरकार उनके जीवन में बेहतरी के लिए प्रतिबद्ध है। उनके जल, जंगल, जमीन के मसले पर संजीदगी से बात हो, तो शायद वे हिंसा का रास्ता छोड़ने को तैयार हो जाएं।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."