आत्माराम त्रिपाठी की रिपोर्ट
आजमगढ़ के अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ लिखते हैं, ‘जैसा हमने खोया, ना कोई खोवेगा। ऐसा नहिं कोई कहीं गिरा होवेगा’।
क्रांति और साहित्य की धरती आजमगढ़ की पिछले दो- ढाई दशक की पहचान भी कुछ ऐसे ही खोने की कहानी है। सियासत में भी सुविधानुसार इस आग दी, जिससे उनके वोटों का चूल्हा जलता रहे।
फिलहाल एक और चुनाव का मैदान सज चुका है, तो सियासी दलों ने अपने-अपने तीर पैने करने शुरू कर दिए हैं। यहां इस बार भी सीधी लड़ाई सपा के सैफई परिवार और भाजपा के अदाकार कार्ड के बीच है। आजमगढ़ की राजनीति सीधे तौर पर जाति और भावनाओं के समीकरण पर सधती है।
18 लाख से अधिक वोटरों वाली इस सीट पर मुस्लिम- यादवों की सम्मिलित भागीदारी 6 लाख से ऊपर है। वहीं, करीब 3 लाख दलित बिरादरी के वोटर हैं। इस सामाजिक गणित का असर नतीजों पर भी साफ दिखता है।
1962 में एकल प्रतिनिधि वाली सीट के रूप में अस्तित्व में आने के बाद हुए 18 चुनावों में 17 बार यहां से यादव और मुस्लिम चेहरे ही संसद पहुंचे हैं। इसमें भी 14 बार यादवों ने नुमाइंदगी की है। यह आंकड़े इस सीट पर मुस्लिम- यादव वोटों की निर्णायक भूमिका के गवाह हैं, जिसे M-Y समीकरण के तौर पर भी पेश किया जाता रहा है।
पहले आम चुनाव में आजमगढ़ के नाम से दो सीटें ईस्ट और वेस्ट हुआ करती थीं। पहले आम चुनाव में ईस्ट से संविधान सभा के सदस्य रहे अलगू राम शास्त्री जी थे और वेस्ट से सीताराम और विश्वनाथ। तीनों ही कांग्रेस के उम्मीदवार थे। 1957 में सीट एक हो गई, लेकिन यहां से प्रतिनिधि दो चुने जाते थे। इनमें एक अनुसूचित जाति के कोटे से होता था। तब कालिका सिंह और विश्वनाथ प्रसाद ने कांग्रेस का यहां से प्रतिनिधित्व किया।
1962 में इस सीट से भी एक प्रतिनिधि चुनने की शुरुआत हुई। लेकिन, नतीजा कांग्रेस के पक्ष में ही रहा और चंद्रजीत यादव सांसद बने। उन्होंने तीन चुनाव लगातार जीत हैट्रिक बनाई। कांग्रेस के ढाई दशक का राज 1977 में जनता पार्टी की लहर में टूटा और रामनरेश यादव पहले गैर कांग्रेसी सांसद बने।
रामनरेश यादव यूपी के सीएम बने। आजमगढ़ की सीट खाली हो गई। सीएम की सीट पर जनता पार्टी ने राम बचन यादव को उम्मीदवार बनाया। वह चौधरी चरण सिंह के करीबियों में गिने जाते थे।
कांग्रेस ने पहले उप चुनाव से पीछे हटने का फैसला किया। लेकिन, इंदिरा गांधी ने एकाएक अपनी करीबी बाराबंकी की मूल निवासी मोहसिना किदवई की उम्मीदवारी घोषित कर दी। अब उम्मीदवार महज चेहरे थे।
असली लड़ाई इंदिरा गांधी बनाम चौधरी चरण सिंह हो गई। कांग्रेस और प्रदेश में सत्ता में होने के चलते राम वचन यादव के लिए हर तरह से ताकत झोंकी गई।
वहीं, 2 साल पहले अपना चुनाव तक हार गई इंदिरा भी आजमगढ़ पहुंच गईं। प्रशासन ने उन्हें न जनसभा करने के अनुमति दी और न ही पूर्व पीएम होने के नाते सरकारी गेस्ट हाउस में रुकने की मंजूरी दी।
सत्ता के इस प्रतिरोध ने आजमगढ़ की कठिन लड़ाई में कांग्रेस के लिए स्पेस बनाना शुरू कर दिया। इंदिरा गांधी ने एक मंदिर में रात बिताई और जनसभा की। इससे उनके लिए सहानुभूति भी उपजी और इमरजेंसी के दौरान भरका जनता का गुस्सा भी कम होने लगा।
इंदिरा का दांव काम कर गया और उपचुनाव में जनता ने सत्ता के उम्मीदवार को ना करते हुए मोहसिना के खाते में जीत डाल दी। यह नतीजा कांग्रेस के लिए ऑक्सीजन बना और 1980 में देश की सत्ता में उनकी वापसी हुई है। हालांकि,1980 के चुनाव में यहां कांग्रेस फिर हार गई। लेकिन, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 के चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार संतोष सिंह को जीत मिली। यह कांग्रेस की यहां आखिरी जीत थी।
राष्ट्रीय दलों के कमजोर पढ़ने के बाद क्षेत्रीय दलों की एंट्री ने आजमगढ़ की भी सियासी तस्वीर बदल दी। लगभग दो दशक तक यहां की सीट कभी बसपा तो कभी सपा को ट्रांसफर होती रही।
1984 में बनी बसपा को 1989 में आजमगढ़ ने जीत का स्वाद चखाया। हालांकि, 1991 में राम लहर में हुए चुनाव में जनता दल को जीत मिली। लेकिन, भाजपा पहली बार दूसरे नंबर पर पहुंची। 1993 में बनी सपा ने 1996 में आजमगढ़ पर दावा ठोंका। मुस्लिम- यादव कोर वाटर वाली पार्टी के लिए सीट मुफीद रही। रमाकांत यादव ने यहां से साइकिल दौड़ा दी।
1998 में बसपा के अकबर अहमद डंपी महज 5400 वोटों से रमाकांत पर भारी पड़ गए। अगले चुनाव में रमाकांत सपा से जीते। लेकिन, 2004 में वह बसपा का दामन थाम संसद पहुंचे। इस चुनाव में भाजपा ने आजमगढ़ से मुस्लिम उम्मीदवार पर दाव खेला और वह फेल रहा।
मायावती से रमाकांत यादव की नहीं पटी। 2007 में सीएम बनने के बाद एक मामले में मायावती ने रमाकांत के भाई उमाकांत यादव को घर पर बुलाकर जेल भेज दिया था।
रमाकांत यादव के बसपा छोड़ने के चलते सदस्यता रद्द हो गई और 2008 में उप चुनाव हुआ। बसपा ने डंपी को उतारा और सपा ने बलराम यादव को। निवर्तमान सांसद रमाकांत इस बार भाजपाई हो गए।
यादव वोटों के बंटवारे का फायदा बसपा को मिला और रमाकांत दूसरे नंबर पर रहे। हालांकि, इसने भाजपा के लिए पहली बार यहां कमल खिलाने की संभावना जगा दी।
2009 के आम चुनाव में रमाकांत की उम्मीदवारी भाजपा को रास आई। रमाकांत की अपनी जमीन भाजपा के कोर वोट और सपा- बसपा के वोटों के बंटवारे ने भाजपा को जीत दिला दी।
2014 में मोदी लहर में हुए चुनाव में सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने पर्चा भरा। भाजपा से रमाकांत यादव और सपा से गुड्डू जमाली मैदान में थे। मुलायम जैसे सियासी महारथी को यहां पसीने आ गए और महज 63,000 वोटों से चुनाव जीत पाए।
2019 में सपा और बसपा एक साथ थे, जो आजमगढ़ के सामाजिक गणित को उसके उम्मीदवार के पक्ष में पुख्ता बनाता था। सपा मुखिया अखिलेश यादव खुद यहां से चुनाव लड़े।
भाजपा ने उनके सामने भोजपुरी अभिनेता दिनेश लाल यादव निरहुआ को उतारा। चुनाव में ग्लैमर तो बढ़ा, लेकिन नतीजा नहीं बदला। अखिलेश यादव 2,60,000 वोटों से जीते। 2022 में करहल से विधायक बनने के बाद अखिलेश ने संसद सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद उप चुनाव हुआ।
अखिलेश ने यहां चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव को उतारा और भाजपा ने निरहुआ को। चुनाव में एक्स फैक्टर साबित हुए गुड्डू जमाली, जिन्हें 2022 में अखिलेश ने दरवाजे पर बुलाकर बिना टिकट लौटा दिया था।
मुस्लिम वोटों में बसपा प्रत्याशी जमाली ने ऐसी सेंधमारी की कि सपा का जीत का रास्ता बंद हो गया। 8679 वोटों से जीतकर निरहुआ आजमगढ़ के ‘शाह’ बन गए।
आजमगढ़ की पिछले तीन उप चुनाव में एक रवायत रही है, उप चुनाव में उसने जिसे जिताया है, अगले चुनाव में वह दल उसे नहीं भाया है।
भाजपा और निरहुआ के सामने इस पसंद को बदलने की चुनौती होगी। अखिलेश ने इस बार आजमगढ़ में कील- कांटे और दुरुस्त किए हैं। यूपी चुनाव में हार का सबब बने गुड्डू जमाली को एमएलसी बनाकर मुस्लिम वोटों की लामबंदी पर ध्यान केंद्रित किया है। यहां की सभी विधानसभा सीटों पर सपा काबिज है।
हालांकि, भाजपा पहली बार 2022 में जिले की सभी सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी। उप चुनाव में जीत के विश्वास के साथ ही लाभार्थीपरक योजनाओं और राम मंदिर जैसे मुद्दे की जमीन उसके पास है। वहीं, अब तक बसपा ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं। उसकी उम्मीदवारी भी यहां के चुनाव की दिशा तय करने में अहम हो सकती है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."