Explore

Search
Close this search box.

Search

28 December 2024 12:57 pm

लेटेस्ट न्यूज़

“इतिहास की बुनियाद इन ईंटों पर खड़ी हैं” ; चौंकिए मत, पढ़िए इस खबर को

30 पाठकों ने अब तक पढा

राकेश सूद की रिपोर्ट

इतिहास की बुनियाद को बुलंंद कर रहीं नानकशाही ईंटें स्वाधीनता संग्राम की दास्तान भी सुनाती हैं। अपने खास आकार और मजबूती के चलते सैकड़ों साल तक निर्माण के लिए पहली पसंद रहीं इन ईंटों को इमारतों की सुंदरता बढ़ाने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता था।

पढ़ें भारत की गौरवगाथा सुना रहीं इन ईंटों के रहस्‍य की दास्‍तां। किसी सभ्यता के विकास की यात्रा उसकी बुनियाद से शुरू होती है। यह बुनियाद जितनी मजबूत होगी, विकास यात्रा उतनी लंबी चलेगी। यह आने वाली पीढ़ियों को गौरवशाली इतिहास से रूबरू कराती है।

पंजाब की धरती ने कई सभ्यताओं को विकसित होते देखा है, जिनकी बुनियाद आज भी मजबूत है। देशभर में स्वाधीनता संग्राम से जुड़ी ऐसी तमाम ऐतिहासिक इमारतें हैं जिनकी मजबूती में बड़ी भूमिका निभाई है नानकशाही या लखौरी ईंटों ने। अनेक किलों, धर्मस्थलोंं की दीवारों में चिनी गई ये ईंटें आज स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर न केवल स्वर्णिम इतिहास की गवाही दे रही हैं बल्कि भारतीय शिल्प की ऐसी पताका भी फहरा रही हैं, जिससे दुनिया अभिभूत है।

पंजाब ही नहीं देश की सैकड़ों ऐतिहासिक इमारतों में इन्हीं ईंटों का इस्तेमाल हुआ है। अपने खास आकार, मजबूती और बनावट के लिए मशहूर इन ईंटों से बनी इमारतें आज भी गौरवशाली अतीत को तरोताजा करती हैं। एक वक्त था, जब इन ईंटों के बिना किसी इमारत की कल्पना बेमानी थी।

यूं तो इन ईंटों के अवशेष हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सभ्यताओं में भी मिले हैं, लेकिन 14वीं व 15वीं शताब्दी में इन्हें नानकशाही ईंटों के नाम से जाना जाता था। पतली टाइल के आकार की इन ईंटों को अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग नाम से पुकारा जाता था। जैसे- बादशाही ईंट, अकबरी ईंट, ककैया ईंट व लखौरी ईंट आदि। नानकशाही नाम उत्तर भारत में ज्यादा प्रसिद्ध था, जबकि दक्षिण भारत में इन्हें लखौरी ईंट कहा जाता था।

श्री गुरु नानक देव के साथ इनका क्या संबंध है, इस बारे में इतिहासकारों के पास कोई ठोस जानकारी नहीं है। इसके अलावा इनका इस्तेमाल कब से शुरू हुआ, इसे लेकर भी वास्तुकारों व इतिहासकारों में मतभेद हैं, लेकिन यह स्पष्ट है कि गुरु नानक देव जी के समयकाल में ही इन्हें यह नाम मिला।

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इन्हें बनाने वाले श्री गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं को मानते थे, इसलिए इन्हें नानकशाही ईंटें कहा गया। अमृतसर स्थित गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के आर्किटेक्चर विभाग के प्रमुख डा. कर्मजीत सिंह चाहल कहते हैं, ‘1764 से 1777 के दौरान चलने वाले सिक्कों को गोबिंदशाही सिक्के व इससे पहले चलने वाले सिक्कों को नानकशाही सिक्के कहा जाता था। इसी तर्ज पर जब उत्तर भारत में सिखों का प्रभाव बढ़ा तो लखौरी ईंटों को नानकशाही ईंट कहा जाने लगा।’ मुगल शासनकाल में बनी इमारतों में भी इन ईंटों का भरपूर इस्तेमाल हुआ। 20वीं शताब्दी तक इनका उपयोग होता रहा।

पंजाब में नानकशाही ईंटों से बनी ऐसी कई इमारतें हैं, जो स्वाधीनता संग्राम के परवानों की कहानी कहती हैं। फिरोजपुर स्थित क्रांतिकारियों का गुप्त ठिकाना, जहां भगत सिंह व उनके साथी अंग्रेजों के खिलाफ योजनाएं बनाते थे, आज भी मौजूद है। इसी तरह अमृतसर के बारामकान इलाके की नानकशाही ईंटों से बनीं कई पुरानी इमारतें भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद व सैफुद्दीन किचलू जैसे देशभक्तों की गतिविधियों की वजह से चर्चा में रहीं।

नवांशहर के खटकड़कलां स्थित बलिदानी भगत सिंह का पैतृक मकान और लाला लाजपत राय का जगराओं स्थित पैतृक घर भी इन्हीं ईंटों से बना है। अमृतसर स्थित किला गोबिंदगढ़ महाराणा रणजीत सिंह की वीरता का गवाह है, जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया।

आज भी बने हैं क्रूरता के निशान

जलियांवाला बाग के आसपास बनी ज्यादातर पुरानी इमारतों में नानकशाही ईंटों का ही इस्तेमाल हुआ है। ये ईंटें यहां हुए नरसंहार की गवाह हैं। इन पर बने गोलियों के निशान आज भी अंग्रेजों की क्रूरता को बयान करते हैं। इन्हें देखते ही वह भयानक मंजर आंखों के सामने दौड़ने लगता है।

इसी तरह यहां स्थित बलिदानी कुआं भी इस दर्दनाक घटना की याद दिलाता है। नानकशाही ईंटों से बने इस कुएं में झांककर देखें तो आज भी शरीर में अजीब सी सिहरन महसूस होने लगती है। तो वहीं अमृतसर के खूह कौड़ियां इलाके की क्रालिंग स्ट्रीट की ईंटें आज भी उन भारतीयों के दर्द को बयां करती हैं, जिन्हें यहां से रेंगकर गुजरना पड़ता था।

खास सामग्री से होती थीं तैयार

नानकशाही ईंटों की मोटाई आम तौर पर दो से चार इंच और लंबाई छह इंच हुआ करती थी। यह ईंट काफी मजबूत होती थी। पतली होने के कारण इनका इस्तेमाल मेहराबों में अधिक किया जाता था। गलियों और छत पर भी अलग-अलग पैटर्न बनाने के लिए इनका इस्तेमाल होता था। मेहराबों, खिड़कियों, गैलरियों, चबूतरों व चौबारों में डिजाइन के लिए इनका इस्तेमाल ज्यादा होता था।

अमृतसर स्थित गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के आर्किटेक्चर विभाग के प्रोफेसर डा. रावल सिंह औलख बताते हैं, ‘नानकशाही ईंटों को बनाने के लिए खास किस्म की मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता था। जिस क्षेत्र में फसल अच्छी होती थी, वहां की मिट्टी को वरीयता दी जाती थी। इन ईंटों को पकाने के लिए गोबर के उपलों और लकड़ी का इस्तेमाल होता है। नानकशाही ईंटों को जोड़ने के लिए सामान्य गारे का इस्तेमाल नहीं होता था बल्कि 12 चीजों के घोल से तैयार होने वाली सामग्री का इस्तेमाल किया जाता था।

वह बताते हैं कि इसमें चूना, गुड़, उड़द व चने की दाल का घोल अहम भूमिका निभाता था। इसके अलावा धान का छिलका, गुड़ का शीरा, जायफल व मेथी पाउडर का भी इस्तेमाल होता था। हालांकि गुड़ व उड़द की दाल के घोल को मेहराब जैसी गोलाकार संरचना में ही अधिक इस्तेमाल किया जाता था। गुड़, चूने के घोल को चिकनाई देता था, जबकि उड़द की दाल इसे और मजबूती प्रदान करती थी। इसके अलावा जिप्सम और ईंटों की केरी का भी इस्तेमाल होता था।’

बस ईंटें ही काफी हैं

डा. रावल सिंह औलख के अनुसार, ‘इन ईंटों की प्रमुख खासियत यह थी कि इनसे बनी इमारत में बीम डालने की जरूरत नहीं पड़ती थी। इनसे बनी इमारतें फायर सेफ्टी के लिहाज से भी अधिक सुरक्षित, आवाज व उष्मा प्रतिरोधी होती थीं। चूंकि इनमें इस्तेमाल होने वाला चूना दीवार की सीलन को सोख लेता था, इससे इन पर नमी का प्रभाव भी नहीं होता था।

औलख के अनुसार, उस दौरान लाहौर में इन ईंटों को बनाने वाले भट्ठों की संख्या काफी हुआ करती थी। यही कारण है कि लाहौर व अमृतसर में कई इमारतों में इनका इस्तेमाल हुआ है। बीसवीं शताब्दी के पांचवें-छठे दशक के बीच बड़ी ईंटों की मांग बढ़ने से धीरे-धीरे नानकशाही ईंटें बननी बंद हो गईं।’

samachar
Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

लेटेस्ट न्यूज़