📝 हरीश चन्द्र गुप्ता की रिपोर्ट
भारत में एचआईवी/एड्स केवल एक बीमारी नहीं, बल्कि एक लंबा सामाजिक–आर्थिक संघर्ष है। एक तरफ सरकारें इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य का बड़ा संकट मानकर योजनाएँ बनाती हैं, दूसरी तरफ इन्हीं योजनाओं के नाम पर फंड, एनजीओ, रिपोर्ट और प्रोजेक्ट का ऐसा मायाजाल खड़ा हो गया है, जिसमें कई बार बीमारी से ज़्यादा योजना बचाने की चिंता दिखती है।
छत्तीसगढ़ इस पूरे परिदृश्य की एक महत्त्वपूर्ण प्रयोगशाला है। राज्य गठन के बाद से ही यहां एड्स नियंत्रण और जनजागृति के नाम पर लगातार योजनाएँ चलाई जा रही हैं। राष्ट्रीय स्तर पर NACO (नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन) और राज्य स्तर पर छत्तीसगढ़ स्टेट एड्स कंट्रोल सोसाइटी (CGSACS) की निगरानी में यह पूरा तंत्र काम करता है। कागज़ों पर देखें तो जागरूकता शिविरों, रक्त जांच, कंडोम वितरण, काउंसलिंग और ART केंद्रों की तस्वीर काफी संतोषजनक नजर आती है।
लेकिन जब हम जमीनी स्तर पर इस पूरी संरचना को देखते हैं तो सवाल खुद-बखुद उठता है—
क्या एड्स नियंत्रण सचमुच उतना मजबूत हुआ, जितना इन योजनाओं और एनजीओ के कागज़ी रिपोर्टों में दिखाया जाता है, या फिर एड्स के नाम पर एक बड़ा “वेल–फंडेड खेल” चल रहा है?
एड्स नियंत्रण की सरकारी संरचना: नीति आदर्श, ज़मीन पर उलझन
देशभर में एड्स नियंत्रण कार्य का मुख्य ढांचा इस प्रकार है– राष्ट्रीय स्तर पर NACO, राज्य स्तर पर SACS और जिलों व ब्लॉकों में इनकी साझेदारी में काम करने वाले एनजीओ और सरकारी स्वास्थ्य संस्थान।
छत्तीसगढ़ में CGSACS के माध्यम से विभिन्न कार्यक्रम चलाए जाते हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य है–
हाई–रिस्क समूहों (जैसे ट्रक ड्राइवर, खदान–श्रमिक, रेडलाइट एरिया, माइग्रेंट लेबर, LGBTQ+ समुदाय आदि) में जागरूकता, स्कूल–कॉलेजों के युवा वर्ग में जानकारी और व्यवहार बदलाव, सुरक्षित रक्तदाताओं की स्क्रीनिंग, HIV टेस्टिंग और परामर्श (ICTC केंद्र), संक्रमित व्यक्तियों के लिए ART (Anti Retroviral Therapy) दवाओं की उपलब्धता, गर्भवती महिलाओं की जांच और मां से बच्चे में संक्रमण रोकथाम (PPTCT)।
सिद्धांततः यह पूरा मॉडल बहुत संतुलित, वैज्ञानिक और समाज–आधारित दिखाई देता है। लेकिन व्यवहार में सरकार ने इस पूरे भारी–भरकम काम का बड़ा हिस्सा एनजीओ के कंधों पर डाल रखा है। यहीं से शुरुआत होती है उस खेल की, जिसमें कागज़ और ज़मीन अक्सर अलग–अलग कहानियाँ सुनाने लगते हैं।
एनजीओ नेटवर्क: एड्स नियंत्रण या प्रोजेक्ट–मैनेजमेंट?
छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिलों में पिछले दो दशकों में बड़ी संख्या में एनजीओ एड्स नियंत्रण से जुड़े प्रोजेक्ट्स पर काम कर चुके हैं। मोटे तौर पर इन्हें तीन वर्गों में बांटा जा सकता है–
- सामान्य सामाजिक संगठन – जो गांवों, शहरी बस्तियों में स्वास्थ्य एवं जागरूकता का काम करते हैं।
- Targeted Intervention (TI) एनजीओ – जो विशेष रूप से हाई–रिस्क समूहों जैसे ट्रक ड्राइवर, रेडलाइट एरिया, खदान–श्रमिक, समलैंगिक/ट्रांस समुदाय, माइग्रेंट लेबर, ईंट–भट्ठा मजदूर आदि के बीच काम करते हैं।
- टेक्निकल व रिसर्च आधारित एनजीओ – जो डाटा मैनेजमेंट, सर्वे, बेसलाइन रिपोर्ट और प्रशिक्षण का काम संभालते हैं।
राज्य के जिन जिलों में एड्स–संबंधी योजनाओं पर सबसे अधिक गतिविधियाँ दर्ज की गईं, उनमें प्रमुख हैं – रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग–भिलाई, रायगढ़, कोरबा, सरगुजा, जशपुर, कांकेर और बस्तर–जगदलपुर।
दिलचस्प यह है कि जहाँ–जहाँ एड्स की वास्तविक चुनौती मध्यम या सीमित थी, वहां भी एनजीओ की संख्या और प्रोजेक्ट्स तेजी से बढ़े, बशर्ते वहां फंडिंग और प्रोजेक्ट अनुमोदन की सुविधा मौजूद थी।
यानी रोग–भार (डिजीज बर्डन) और परियोजना–भार (प्रोजेक्ट लोड) के बीच संतुलन हमेशा एक जैसा नहीं रहा।
आंकड़ों की कहानी: संक्रमण घटा कितने, योजनाएँ बढ़ीं कितनी?
सरकारी और आधिकारिक रिपोर्टों के अनुसार, छत्तीसगढ़ में— 2000 के दशक की शुरुआत में HIV संक्रमितों की संख्या और पॉजिटिविटी दर अपेक्षाकृत अधिक दर्ज की गई।
इसके बाद जागरूकता, रक्त स्क्रीनिंग और ART सेवाओं के विस्तार के साथ संक्रमण दर में कुछ कमी तो आई, पर वह उतनी नाटकीय नहीं थी, जितनी कागज़ी रिपोर्टों के आधार पर उम्मीद की जाती थी।
दूसरी ओर, एड्स नियंत्रण कार्यक्रमों पर होने वाला कुल व्यय, प्रोजेक्टों की संख्या, एनजीओ की भागीदारी और मीटिंग–सेमिनार–वर्कशॉप का ग्राफ लगातार ऊपर जाता रहा।
सरल भाषा में कहें तो बीमारी में कमी की रफ्तार धीमी थी, लेकिन योजनाओं की रफ्तार बहुत तेज़।
यहां सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या एड्स नियंत्रण को वास्तव में सामुदायिक स्वास्थ्य मिशन की तरह लिया गया, या इसे भी दूसरे प्रोजेक्टों की तरह “फंड–सेंट्रिक प्रोग्राम” बना दिया गया?
कंडोम, पोस्टर और रिपोर्ट: सबसे आसान “डेलिवरेबल”
एचआईवी/एड्स रोकथाम में कंडोम वितरण और व्यवहार–परिवर्तन सबसे ज़रूरी माने गए।
नीति बनी कि, जिस प्रोजेक्ट ने जितने अधिक कंडोम बांटे, जितने अधिक शिविर लगाए, जितने अधिक लोगों को “कवर” किया, उतनी ही उसकी परफॉर्मेंस बेहतर मानी जाएगी।
यहीं से एक खतरनाक प्रवृत्ति पैदा हुई जमीनी काम कम, रिपोर्टिंग ज्यादा। कई जिलों की प्रोजेक्ट रिपोर्टों में– हजारों कंडोम के “वितरण” का उल्लेख है, सैकड़ों ड्राइवरों, मजदूरों, युवाओं की “काउंसलिंग” के आंकड़े दर्ज हैं, दर्जनों गांवों और बस्तियों में “जागरूकता कार्यक्रम” आयोजित होने का दावा है।
लेकिन जब वास्तविकता की जांच होती है तो दिखता है कि कुछ जगहों पर गांववालों ने कभी ऐसा शिविर देखने की बात स्वीकार नहीं की, ट्रक यूनियन पॉइंट पर काम का उल्लेख फाइलों में ज्यादा और मैदान में कम मिलता है, कंडोम वितरण का आँकड़ा आबादी के अनुपात से इतना अधिक दिखाया जाता है कि व्यवहारिक रूप से संदेह पैदा होता है कि क्या सचमुच उतने उपयोग हुए भी या नहीं।
यानी कई केसों में “कंडोम वापिस स्टोर से निकलकर फाइल में चला गया, फील्ड में नहीं।”
ART केंद्र और रक्त बैंक: जहां सचमुच लाभ दिखा
इस पूरी आलोचनात्मक तस्वीर के बीच यह कहना भी गलत होगा कि सरकार और एनजीओ की मेहनत से कोई लाभ नहीं हुआ।
छत्तीसगढ़ में ART केंद्रों की स्थापना और रक्त बैंकों की निगरानी ने सचमुच कई लोगों की जिंदगी बदली है।
आज रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग, कोरबा, जगदलपुर आदि शहरों में HIV पॉजिटिव मरीजों को नियमित दवाएं मिलती हैं, संक्रमण की निगरानी के लिए समय–समय पर जांच होती है, गर्भवती महिलाओं के लिए HIV टेस्टिंग और यदि वे पॉजिटिव हों तो बच्चे को संक्रमण से बचाने के उपाय किए जाते हैं, रक्त संक्रमण के दौरान HIV जाँच अब एक सख्त और अनिवार्य नियम बन चुकी है।
कई मरीजों ने यह भी बताया कि, वे पहले एड्स को मौत की सजा मानते थे, पर ART से अब सामान्य जीवन जी रहे हैं, सरकारी अस्पताल में मिलने वाली दवाओं ने उन्हें आर्थिक रूप से टूटने से बचाया।
लेकिन दूसरी तरफ, दवा आपूर्ति में कभी–कभी व्यवधान, काउंसलिंग स्टाफ की कमी, गोपनीयता की अपर्याप्त व्यवस्था और HIV संक्रमित व्यक्तियों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का कमजोर क्रियान्वयन जैसी समस्याएं भी सामने आती रही हैं।
सबसे संवेदनशील समुदाय, सबसे कम वास्तविक पहुंच
छत्तीसगढ़ में एड्स के संदर्भ में जिन समुदायों को हाई–रिस्क माना गया, उनमें प्रमुख हैं– लंबी दूरी के ट्रक ड्राइवर, खदान और औद्योगिक क्षेत्र के श्रमिक, रेडलाइट एरिया और उससे जुड़ा नेटवर्क, मजदूरी के लिए आने–जाने वाले माइग्रेंट लेबर, LGBTQ+ और ट्रांसजेंडर समुदाय, जेलों में बंद कैदी और शहरी–ग्रामीण युवा वर्ग।
लेकिन जमीनी अध्ययन बताते हैं कि सबसे अधिक कार्यक्रम युवा और सामान्य जनसमुदाय के बीच किए गए, जहां फोटो, बैनर और मीडिया कवरेज आसान था।
जबकि जिस जगह अधिक जोखिम था—जैसे माइग्रेंट श्रमिकों की झुग्गियां, खदानों के आसपास की बस्तियां, रेडलाइट क्षेत्र, ट्रक–नाके— वहां पहुंचना कठिन, विवादास्पद और वास्तविक मेहनत वाला काम है।
यहीं बड़ा अंतर दिखता है— जहां बीमारी अधिक थी, वहां काम अपेक्षाकृत कम, जहां दिखावा संभव था, वहां कार्यक्रम ज्यादा।
एनजीओ के अंदर का सच: कर्मियों की दशा, जो किसी रिपोर्ट में नहीं दिखती
एड्स नियंत्रण कार्यक्रमों में सबसे ज्यादा बोझ उन लोगों के कंधों पर है, जिनका नाम शायद ही कहीं उल्लेखित होता है— फील्ड वर्कर, काउंसलर, आउटरीच स्टाफ, पीयर एजुकेटर और डाटा एंट्री ऑपरेटर।
इन्हीं के जरिए ट्रक ड्राइवरों को HIV और सुरक्षा के बारे में समझाया जाता है, रेडलाइट एरिया में कंडोम और काउंसलिंग पहुंचती है, गांव–कस्बों में शिविर लगाकर युवाओं से संवाद होता है, HIV संक्रमित मरीजों को टेस्टिंग व ART केंद्र तक लाने–ले जाने की जिम्मेदारी निभाई जाती है। लेकिन उनकी अपनी जीवन–स्थितियां किसी बड़े स्वास्थ्य दस्तावेज़ में दर्ज नहीं होतीं।
अस्थायी नियुक्ति, स्थायी तनाव
अधिकांश कर्मियों की नियुक्ति 11 माह के कॉन्ट्रैक्ट, या परियोजना की अवधि तक सीमित होती है। आज प्रोजेक्ट है तो नौकरी है, कल फंडिंग रुकी या प्रोजेक्ट बंद हुआ तो वे सीधे सड़क पर आ जाते हैं।
कई कर्मी वर्षों तक लगातार काम करने के बाद भी न किसी प्रकार की स्थायी नौकरी की सुरक्षा, न भविष्य निधि, न पेंशन, न ही कोई ठोस कैरियर–पथ पाते हैं। लेकिन उन्हें दी जाने वाली जिम्मेदारियाँ किसी स्थायी सरकारी कर्मचारी से कम नहीं होतीं।
वेतन कम, जोखिम ज़्यादा
फील्ड स्तर के कर्मियों का पारिश्रमिक अक्सर– लगभग ₹7,000 से ₹15,000 प्रतिमाह, जबकि काउंसलर या सुपरवाइज़र का वेतन कहीं–कहीं ₹12,000–₹22,000 के बीच।
दूसरी तरफ उनका जोखिम, रोज़ाना ऐसे समुदायों से संपर्क, जहां संक्रमण का खतरा अधिक, रक्त, सुई या शारीरिक द्रव के अप्रत्यक्ष संपर्क की आशंका, दूर–दराज़, असुरक्षित या संवेदनशील क्षेत्रों में लगातार आवाजाही, कई बार बदनीयती वाले तत्वों, दलालों या आपराधिक नेटवर्क से टकराव।
वहीं प्रोजेक्ट मैनेजमेंट और उच्च स्तर के कंसल्टेंट्स कहीं अधिक सुरक्षित माहौल में, कहीं अधिक मानदेय के साथ काम करते हैं। यह आर्थिक व व्यावसायिक असमानता टीम के भीतर निराशा और असंतोष भी पैदा करती है।
सामाजिक कलंक और गलतफहमियों का दबाव
एचआईवी/एड्स पर काम करने वालों को समाज अक्सर शंका की नजर से देखता है। कई महिला फील्ड वर्करों ने यह अनुभव व्यक्त किया है कि– परिवार और रिश्तेदारों को यह समझाना मुश्किल होता है कि वे किन जगहों पर, किन लोगों के बीच काम करती हैं।
“रेडलाइट एरिया में जाती हैं” या “समलैंगिक समुदाय के साथ काम करती हैं” जैसे वाक्य समाज के आम पूर्वाग्रहों से टकराते हैं।
पुरुष कर्मी भी बताते हैं कि, ट्रक–नाके या देहव्यवसाय के अड्डों पर लगातार उपस्थिति के कारण उनके चरित्र पर भी उंगली उठाई जाती है।
यानी जो लोग सबसे संवेदनशील समुदायों तक स्वास्थ्य संदेश और सुरक्षा साधन पहुंचाने का काम करते हैं, वे स्वयं समाज के संदेह के घेरे में जीते हैं।
भावनात्मक थकान, परामर्श देने वालों के लिए परामर्श नहीं
काउंसलर और फील्ड वर्कर हर दिन नए–नए संक्रमितों, परित्यक्तों, गर्भवती HIV पॉजिटिव महिलाओं, नशे के शिकार युवाओं, सामाजिक तिरस्कार झेल रहे लोगों से मिलते हैं।
उनका काम है उन्हें डर से निकालकर आश्वस्त करना, उन्हें आत्महत्या के विचारों से दूर रखना, उन्हें नियमित दवा की राह पर टिकाए रखना।
लेकिन वही काउंसलर अपने लिए किसी मनोवैज्ञानिक सहायता, डिब्रीफिंग सेशन, या प्रोफेशनल काउंसलिंग से अक्सर वंचित रहते हैं।
परिणामस्वरूप कई कर्मी धीरे–धीरे भावनात्मक थकान, अवसाद और पेशेगत बर्न–आउट के शिकार हो जाते हैं।
लक्ष्य और रिपोर्ट का दबाव
एनजीओ कर्मियों पर ऊपर से सबसे बड़ा दबाव होता है— “टारगेट पूरा करो”, “माह की रिपोर्ट समय पर भेजो”, “फोटो और सिग्नेचर न भूले”।
कई बार परिस्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि
> “जागरूकता कार्यक्रम की आत्मा से ज़्यादा उसकी फोटो और हाज़िरी–शीट ज़्यादा अहम हो जाती है।”
कुछ कर्मी यह भी बताते हैं कि, जहाँ वास्तविक पहुंच मुश्किल होती है, वहाँ भी कभी–कभी “टारगेट” पूरा करने के लिए कागज़ी आंकड़ा बढ़ाने का दबाव महसूस किया जाता है। यह प्रथा पूरे मिशन के नैतिक आधार को कमजोर करती है।
सुरक्षा और कानूनी संरक्षण की कमी
जो लोग देह व्यापार से जुड़े क्षेत्रों, ईंट–भट्ठों और खदानों की झुग्गियों, जेलों, सड़क किनारे ट्रक–अड्डों में काम करते हैं, उनके लिए व्यवस्थित सुरक्षा प्रोटोकॉल और कानूनी संरक्षण अधिकांशतः बहुत कमजोर है।
किसी विवाद, हिंसा या उत्पीड़न की स्थिति में एनजीओ कर्मी अक्सर अकेले पड़ जाते हैं; उन्हें न तो पुलिस, न प्रशासन, न परियोजना–पर्यवेक्षक से समय पर मजबूत सहयोग मिल पाता है।
पहचान और सम्मान का गहरा अभाव
एड्स नियंत्रण के आँकड़ों और उपलब्धियों का श्रेय अक्सर– उच्च स्तर के अधिकारियों, प्रोजेक्ट डायरेक्टरों, नीति–निर्माताओं तक सीमित रह जाता है।
वहीं फील्ड में काम करने वाले, रोज़ाना कठिन भूगोल और सामाजिक प्रतिरोधों से जूझने वाले कर्मियों के नाम–चेहरे किसी रिपोर्ट, पुरस्कार या सार्वजनिक मंच पर जगह नहीं पाते।
जब तक यह स्थिति रहेगी, तब तक एड्स नियंत्रण कार्यक्रम में काम करने वालों के भीतर लंबी अवधि की प्रतिबद्धता और प्रेरणा बनी रहना मुश्किल है।
सरकार और एनजीओ से अब तक कितना फायदा, कितना नुकसान?
निष्पक्ष विश्लेषण में माना जाना चाहिए कि छत्तीसगढ़ में हल्की–फुल्की नहीं, बल्कि ठोस प्रगति भी हुई है।
आज HIV संक्रमित व्यक्ति को अकेला और पूर्णत: निराश नहीं छोड़ा जाता, उसे दवा, परामर्श और कानूनी–सामाजिक सहायता उपलब्ध है, हालाँकि अभी अधूरी और असमान रूप से ही सही।
रक्त संक्रमण के रास्ते HIV फैलने का जोखिम, पूर्व दशकों की तुलना में काफी कम हुआ है।
एड्स को “छूत की शर्मनाक बीमारी” से “एक नियंत्रित चिकित्सीय स्थिति” की ओर देखने की मानसिकता कुछ हद तक बदल रही है।
लेकिन साथ ही यह भी उतना ही सच है कि– यदि योजनाओं में जितना फंड बहाया गया, उतनी ही पारदर्शिता, ईमानदारी और मानव–केन्द्रित दृष्टि से काम हुआ होता, तो आज छत्तीसगढ़ में HIV का खतरा और भी कम होता।
अनेक एनजीओ ने मिशन की गरिमा को बनाए रखा, पर कुछ ने इसे केवल प्रोजेक्ट और भुगतान तक सीमित कर दिया।
एनजीओ कर्मियों की दशा सुधारने के लिए अब तक कोई लंबी, स्थायी और ठोस नीति नहीं बनी, जबकि वे इस लड़ाई के अग्रिम मोर्चे के सिपाही हैं।
आगे की राह: बीमारी से लड़ाई के साथ–साथ “खेल” पर भी लगाम
यदि सचमुच एड्स पर काबू पाना है, तो छत्तीसगढ़ में कुछ बुनियादी सुधारों की जरूरत है–
- एनजीओ की तृतीय पक्ष ऑडिट और सोशल ऑडिट – केवल काग़जी रिपोर्ट नहीं, बल्कि समुदाय से सीधे फीडबैक लेकर यह जाँचना कि जिन शिविरों, काउंसलिंग और वितरण के दावे किए गए, वे वास्तव में हुए भी या नहीं।
- फील्ड कर्मियों के लिए न्यूनतम वेतन, सुरक्षा और स्थायित्व – जो लोग जोखिम लेकर काम करते हैं, उन्हें सम्मानजनक वेतन, स्वास्थ्य बीमा, प्रशिक्षण और मनोवैज्ञानिक सहायता देना केवल नैतिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक आवश्यकता भी है।
- टारगेट के पीछे भागने के बजाय गुणवत्ता पर जोर – अगर 100 लोगों के बजाय 40 लोगों तक पहुँचा जाए, मगर सचमुच उनकी समझ और व्यवहार बदले, तो वह उन 100 कागज़ी “कवरेज” से बेहतर है जो केवल रिपोर्ट में दर्ज हों।
- सबसे जोखिमग्रस्त समुदायों को प्राथमिकता – माइग्रेंट श्रमिक, खदान मज़दूर, रेडलाइट एरिया, LGBTQ+ समुदाय और जेलें केवल “प्रोजेक्ट पैरामीटर” नहीं हैं, बल्कि वह वास्तविक मोर्चा हैं जहां HIV से लड़ाई की दिशा तय होगी।
- नीति–निर्माताओं के लिए फील्ड रियलिटी ट्रेनिंग – जो लोग फाइलों पर प्रोजेक्ट पास करते हैं, उन्हें समय–समय पर फील्ड में, उन समुदायों के बीच जाकर वास्तविक चुनौतियाँ देखने–समझने का अवसर मिलना चाहिए।
एड्स के नाम पर खेल बंद हो, इंसान केंद्र में आए
एड्स आज भी एक सच्चाई है—छत्तीसगढ़ में भी, बाकी देश में भी। यह सच है कि दवाएँ उपलब्ध हैं और सही समय पर इलाज मिले तो मरीज सामान्य जीवन जी सकता है। मगर यह भी उतना ही सच है कि– अगर एड्स के नाम पर योजनाओं, बजट, फाइलों और एनजीओ के स्तर पर खेल चलता रहेगा, तो सबसे बड़ा नुकसान उस इंसान को होगा जो चुपचाप HIV पॉजिटिव रिपोर्ट लेकर किसी सरकारी अस्पताल की कतार में खड़ा है, या किसी बस्ती के अंधेरे कमरे में अपनी बीमारी से ज़्यादा समाज के तिरस्कार से डर रहा है।
एड्स नियंत्रण का असली अर्थ सिर्फ आंकड़े घटाना नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि— कोई संक्रमित व्यक्ति दवा, जानकारी, सम्मान और सहारे से वंचित न रहे, फील्ड में काम करने वाले कर्मी अस्थायित्व, उपेक्षा और शोषण का शिकार न हों और एड्स के नाम पर जो भी योजना बने, उसके केंद्र में “प्रोजेक्ट” नहीं, इंसान हो।
जब तक यह संतुलन नहीं बनेगा,तब तक एड्स के नाम पर खेल चलता रहेगा और हम सिर्फ काग़जों में “कंट्रोल” लिखते रहेंगे, ज़मीन पर नहीं।