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November 22, 2024 2:06 pm

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सांप्रदायिक खौफ की राजनीति

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अनिल अनूप

सांप्रदायिक खौफ की राजनीति में भाजपा है, तो अखिलेश यादव, ओवैसी, जयंत चौधरी भी हैं। वोट के लिए जाट समुदाय और मुसलमानों के बीच तनाव की खाइयां खोदी जा रही हैं….

-अनिल अनूप

उप्र की करीब 38 फीसदी आबादी गरीब या गरीबी-रेखा के तले जी रही है। श्रावस्ती जिले में तो करीब 74 फीसदी आबादी गरीब है। बहराइच, बलरामपुर, लखीमपुर खीरी और गोंडा जिलों में भी गरीबी पराकाष्ठा पर है। बहुआयामी गरीबी सूचकांक का मात्र 0.18 स्कोर है। करीब 45 फीसदी लोग कुपोषित हैं। करीब 12 करोड़ लोगों, करीब आधी आबादी, के पास कोई ज़मीन नहीं है। बिहार और झारखंड के बाद उप्र देश का तीसरा सबसे गरीब राज्य है। राज्य में 28 लाख से ज्यादा बेरोज़गार हैं। करीब 14 लाख स्नातक बेरोज़गार हैं। बेरोज़गारी दर 14.9 फीसदी है, जो देश की औसत से बहुत ज्यादा है। ये किसी निजी संस्थान के सर्वेक्षणों के निष्कर्ष नहीं हैं, बल्कि भारत सरकार के नीति आयोग के आंकड़े  हैं। इनका उल्लेख इसलिए जरूरी है, क्योंकि देश के सबसे बड़े राज्य में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। राज्य में कुल 403 विधायक चुने जाएंगे। उप्र से 80 सांसद लोकसभा में और 31 सांसद राज्यसभा में जाते हैं। विधान परिषद के लिए 100 सदस्यों का निर्वाचन और मनोनयन किया जाता है। राज्य में 15 करोड़ से ज्यादा मतदाता हैं। देश के अधिकतर प्रधानमंत्री उप्र से ही चुन कर आते हैं।

इतने महत्त्वपूर्ण राज्य के विधानसभा चुनाव में गरीबी, बेरोज़गारी, महंगाई, कुपोषण आदि मुख्य मुद्दे नहीं हैं। अलबत्ता विपक्ष में सपा और रालोद के नेता प्रसंगवश इनका उल्लेख जरूर करते रहे हैं अथवा टीवी चैनलों की चीखती बहसों में इन मुद्दों पर राज्य की योगी आदित्यनाथ की भाजपा सरकार को कटघरे में जरूर खड़ा किया जाता रहा है। भाजपा के चुनाव प्रचार में ये मुद्दे गायब हैं, क्योंकि इन पर वोट नहीं मिलते। पार्टी ने राज्य को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित कर दिया है। भाजपा नेता प्रत्यक्ष तौर पर हिंदू-मुसलमान नहीं करते, लेकिन तमंचा, तोप, गोला, पाकिस्तान, कब्रिस्तान, लुंगी, टोपी के साथ-साथ दंगाई, गुंडे, अपराधी, माफिया आदि शब्दों के इर्द-गिर्द ही उनका चुनाव-प्रचार केंद्रित है। इन शब्दों के मायने स्पष्ट हैं। देश के गृहमंत्री अमित शाह खौफ पैदा करने और डराने में ही व्यस्त हैं कि यदि ‘लाल टोपी’ वालों को वोट देकर जिता दिया, तो अपराधी, दंगाई, माफिया जेल से बाहर आ जाएंगे और फिर सांप्रदायिक दंगे कराएंगे। बार-बार 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे की याद ताज़ा कराई जा रही है। भाजपा नेताओं का फोकस रहता है कि उन दंगों में 60 हिंदू मारे गए थे और करीब 1500 को जेलों में ठूंस दिया गया था। गृहमंत्री इन इलाकों में पैदल ही घर-घर जाकर पर्चे बांट रहे हैं और लोगों से वोट मांग रहे हैं। चुनाव तगड़े नेता को भी याचक बना देते हैं। खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसे 80 और 20 का चुनाव करार दिया है। बेशक भाजपा इस फॉर्मूले की कुछ भी व्याख्या करे, लेकिन यह हिंदू बनाम मुस्लिम आबादी का समीकरण बताया जा रहा है। सांप्रदायिक खौफ की राजनीति में भाजपा है, तो अखिलेश यादव, ओवैसी, जयंत चौधरी भी हैं। वोट के लिए जाट समुदाय और मुसलमानों के बीच तनाव की खाइयां खोदी जा रही हैं।

बसपा प्रमुख मायावती इस बार निष्क्रिय-सी हैं, लेकिन उनके बयान कभी-कभार आते हैं, तो अलगाववादी लकीर ही पीटते हैं। गरीबी और बेरोज़गारी उन्मूलन की दिशा में किसी भी पार्टी और नेता का स्पष्ट बयान नहीं है, लेकिन मुफ्तखोरी की रेवडियां बांटने में सभी शामिल हैं। भाजपा ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ के तहत 15 करोड़ लोगों को निःशुल्क राशन बांट रही है, तो सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ‘समाजवादी थाली’ के जरिए 10 रुपए में भरपेट भोजन की पेशकश की है। सपा ने गरीबों के लिए ‘किराना स्टोर’ खोलने की घोषणा भी की है। कोई 10 लाख, तो कांग्रेस 20 लाख नौकरियां देने का वादा कर रही है। उसे एहसास है कि वह चुनावी दौड़ में काफी पिछड़ चुकी है, लिहाजा कुछ भी घोषणा करती रहे। इनके अलावा फ्री स्कूटी, लैपटॉप, साइकिल, स्मार्ट फोन, साल में फ्री 3 घरेलू सिलेंडर, बुजुर्ग-विधवा पेंशन और 300 यूनिट बिजली मुफ्त आदि के आश्वासन परोसे जा रहे हैं। खैरात देने की बात कही जा रही है और खैरात स्वीकार भी की जा रही है। कोई योजना या रोडमैप नहीं। यदि उप्र की अर्थव्यवस्था, जीडीपी बढ़ी और सुदृढ़ है, तो मुफ्तखोरी की रेवडियों पर ही चुनाव क्यों लड़ा जा रहा है? इसे चुनाव जीतने की रणनीति क्यों मान लिया गया है? इस चुनाव में बेरोजगारी, महंगाई तथा आम लोगों से जुड़े कई अन्य मसले पीछे छूट गए हैं। लोगों से जुड़े मसलों पर चर्चा ही नहीं हो रही है। पार्टियों के आम लोगों के लिए क्या लक्ष्य हैं, इस पर चर्चा होनी चाहिए। आम लोगों का एजेंडा चुनाव में चलना चाहिए।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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