भारत में गौशालाओं का सवाल केवल धार्मिक आस्था का नहीं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था, पर्यावरणीय स्थिरता, पशु कल्याण और सार्वजनिक वित्तीय जवाबदेही का भी है। बीते एक दशक में केंद्र व राज्य सरकारों ने गोवंश संरक्षण के नाम पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किए, लेकिन इसके परिणाम, उपलब्धियों और मौजूदा चुनौतियों पर गंभीर चर्चा अभी भी सीमित है।
पशुपालन एवं डेयरी मंत्रालय की 2023–24 रिपोर्ट के अनुसार, देश में कुल 5,127 पंजीकृत गौशालाएं संचालित हैं, जिन पर केंद्र और राज्यों का संयुक्त वार्षिक व्यय लगभग ₹3,050 करोड़ है। इनमें से लगभग 62% गैर-सरकारी संस्थाएं, धार्मिक ट्रस्ट या समाजसेवी संगठन चलाते हैं।
भारत में गौशालाओं का वास्तविक ढांचा — राज्यवार स्थिति
उत्तर प्रदेश
देश में सबसे अधिक गोवंश और गौशालाओं वाला राज्य—उत्तर प्रदेश—लगभग 1,840 गौशालाओं के साथ सूची में शीर्ष पर है। 2022–24 के दौरान राज्य सरकार ने ‘गोसंरक्षण एवं राहत कोष’ से करीब ₹1,410 करोड़ खर्च किए। सरकारी समीक्षा बताती है कि बायोगैस प्लांट, कंपोस्ट उत्पादन व गोबर ईंट परियोजनाओं से करीब 120 गौशालाओं ने आंशिक आत्मनिर्भरता हासिल की है।
हरियाणा
लगभग 680 गौशालाओं वाले हरियाणा में ‘गौ सेवा आयोग’ की स्थापना के बाद फंडिंग संरचना संगठित हुई। गो-सेस, CSR और सरकारी सहायता मिलाकर वार्षिक व्यय करीब ₹520 करोड़ है। करनाल और हिसार में देसी नस्ल संरक्षण को राष्ट्रीय मॉडल माना जाता है।
पंजाब
पंजाब में लगभग 420 पंजीकृत गौशालाएं हैं, जिनमें अधिकतर धार्मिक प्रबंधन के तहत चलती हैं। नगर निगम व दान से सालाना औसत खर्च ₹260 करोड़ के आसपास है। इसके बावजूद शहरी क्षेत्रों में आवारा पशु समस्या बनी रहती है।
बिहार
बिहार में 310 गौशालाएं दर्ज हैं, परंतु CAG की 2023 ऑडिट रिपोर्ट में कई गौशालाओं को “कागजों में मौजूद” बताया गया। फंडिंग अनियमित, संसाधन सीमित और निगरानी कमजोर है।
मध्य प्रदेश
MP में 1,020 गौशालाएं सक्रिय हैं—ज्यादातर पंचायत व सामाजिक ट्रस्ट द्वारा संचालित। 2020–24 के दौरान राज्य ने लगभग ₹740 करोड़ खर्च किए और 90 से अधिक गौशालाओं में बायोगैस संयंत्र स्थापित किए गए।
छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़ का “नरवा-गरवा-घुरवा-बाड़ी” मॉडल राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में है। राज्य में करीब 720 गौठान हैं, जहाँ गोबर से उत्पादित जैविक खाद और पिट कंपोस्ट ने महिला SHG समूहों की आय बढ़ाई है।
गुजरात
गुजरात में लगभग 540 गौशालाएं हैं। सरकारी सहायता, CSR और दान मिलाकर वार्षिक व्यय ₹780 करोड़ आँका जाता है। गिर नस्ल संरक्षण और डेयरी उद्योग की वजह से प्रबंधन अपेक्षाकृत मजबूत है।
दिल्ली
राजधानी में केवल 17 गौशालाएं हैं, लेकिन प्रति गौशाला सरकारी खर्च देश में सबसे अधिक है। शहरी कचरा प्रबंधन, बायोगैस और कंपोस्ट उत्पादन के कारण इनका आर्थिक मॉडल विकसित हो रहा है।
गौशालाओं से होने वाली आय — दूध से अधिक कमाता है गोबर
राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) के अनुसार, गौशालाओं की कुल आय में:
- 58% — गोबर आधारित उत्पाद (कंपोस्ट, वर्मी-कम्पोस्ट, बायोगैस, पेंट, ईंट)
- 27% — दूध
- 9% — गौमूत्र आधारित जैव उत्पाद
- 6% — धार्मिक/सामाजिक दान
सकारात्मक परिणाम — क्या बदल रहा है?
- देसी नस्ल संरक्षण के केंद्र — करनाल, हिसार, आनंद
- जैविक खेती में वृद्धि, रासायनिक उर्वरक पर खर्च कम
- शहरी क्षेत्रों में गायों से होने वाली सड़क दुर्घटनाओं में 12–18% कमी
- महिला स्वयं सहायता समूहों की आय में वृद्धि
- ग्रामीण रोजगार के नए स्रोत
- पर्यावरण-अनुकूल ऊर्जा — बायोगैस
परंतु चुनौतियाँ भी गहरी हैं…
CAG रिपोर्ट, 5 राज्य स्तरीय ऑडिट और फील्ड स्टडी बताती हैं कि कई गौशालाओं में पशु संख्या, चारे, दवाओं और व्यय लेखांकन में गंभीर विसंगतियाँ दर्ज हैं। सोशल मीडिया आधारित “गोसेवा” ने छवि निर्माण को अक्सर वास्तविक संरक्षण से ज्यादा महत्व दिया है—जहाँ दुर्घटनाग्रस्त गाय के साथ फोटो, संदेश और श्रद्धा प्रदर्शन ही मुख्य उपलब्धि बन जाते हैं।
गौशालाओं पर किया गया हजारों करोड़ का खर्च भावनात्मक, सामाजिक और कृषि-आर्थिक महत्व रखता है, लेकिन जब तक पारदर्शी ऑडिट, डिजिटल रजिस्ट्रेशन, पशु संख्या की रियल-टाइम मॉनिटरिंग, वैज्ञानिक प्रबंधन और जिम्मेदार प्रशासन लागू नहीं होगा—परिणाम अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुँच पाएंगे।
—अनिल अनूप द्वारा स्वतंत्र पत्रकारिता एवं सरकारी/शोध रिपोर्ट आधारित विश्लेषण