तवायफें और देहजीवाओं : तिरस्कार के उस पार भारतीयता की आत्मा, कोठों की रोशनी से निकली थी भारतीय संस्कृति की लौ

भारतीय तवायफों और देहजीवाओं की पारंपरिक चित्रकला, जो कला, संगीत और संस्कृति में उनके अमूल्य योगदान को दर्शाती है।

तवायफें और देहजीवाओं : सामाजिक तिरस्कार और सांस्कृतिक गौरव के द्वंद्व

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अनिल अनूप

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का यह शेर भी बहुत प्रभावशाली लगेगा —

 “न गिला है कि बिक गए हम, न मलाल कि बच न पाए,

ये जमाना बड़ा सख़्त है, यहाँ नाम भी दाग़ बन जाए।”

“तवायफें” और “देहजीवा” जैसे शब्द सुनते ही हमारे समाज की नज़रों में एक नकारात्मक चित्र उभर जाता है। किंतु भारतीय संस्कृति के इतिहास में यही स्त्रियाँ संगीत, नृत्य, कविता और कलात्मक अभिव्यक्ति की संरक्षिका रही हैं। 

आज सामाजिक स्मृति ने उन्हें तिरस्कार की श्रेणी में खारिज कर दिया है, पर उनका योगदान निस्संदेह अमूल्य है। इस लेख में हम यह अनुमान लगाने का प्रयत्न करेंगे कि क्यों समाज ने उन स्त्रियों को तिरस्कार किया, और फिर भी उनकी कला और संस्कृति को कैसे आज भी स्वीकार किया, साथ ही कुछ नामों द्वारा उनके योगदान को पुनर्स्मरण करेंगे।

भारतीय संस्कृति में तवायफों और देहजीवाओं का सांस्कृतिक योगदान

भारतीय समाज की संगीत और नृत्य परंपरा, विशेष रूप से उत्तर भारत की शास्त्रीय एवं उपशास्त्रीय शैलियाँ — कथक, ठुमरी, दादरा, ग़ज़ल — तवायफों और कोठों से गहरे जुड़े रहे हैं। नवाबी लखनऊ और अवध की तहज़ीब, मुग़ल दरबारों की परंपरा, उपनिवेशकाल के संघर्षों में इसे संरक्षित रखना — इन सब में तवायफों का योगदान अभूतपूर्व रहा है।

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लखनऊ तकरीबन उस समय का सांस्कृतिक केन्द्र था जब नवाब वाजिद अली शाह संगीत, ठुमरी और शास्त्रीय विधाओं के संरक्षक माने जाते थे। उस दौर में तवायफों ने नाटकीय और संगीतमय प्रस्तुतियों से इन कलाओं को जिंदा रखा। 

गौहर जान, बेगम अख्तर, रसूलन बाई जैसे नाम सिर्फ प्रतिभा से जुड़े नहीं हैं — ये उस धारा की आबाज़ हैं जिसे तवायफों ने समाज की मुख्यधारा से अलग पनाह दी। 

गौहर जान ने रिकॉर्डिंग इंडस्ट्री की दुनिया में प्रवेश किया और भारतीय संगीत को वैश्विक मंच दिया। इसी समय रसूलन बाई की ठुमरी व क़व्वाली अभिजात गायन के रूप में सराही गई। 

इसका एक और प्रमाण है कि कोठों की महफ़िलों ने केवल मनोरंजन नहीं किया, बल्कि भाषा-साहित्य, शायरी, काव्य, और संवादों को भी वह स्थान दिया जिसे समाज के सार्वजनिक मंच ने नहीं दिया। तवायफों ने उन भाषाओं को सहेजा जो सामाजिक बहसों, प्रेम-विरह, जीवन गाथाओं और संघर्षों की अभिव्यक्ति थीं।

स्वतंत्रता संग्राम के समय भी तवायफों ने पीछे नहीं हटे। अजीजन बाई नामक तवायफ ने 1857 की क्रांति में सक्रिय भूमिका निभाई — गोपनीय सूचना प्रसार करना, क्रांतिकारियों से सम्बन्ध रखना और स्वयं संघर्ष में हिस्सा लेना। 

इस तरह, तवायफ और देहजीवा न केवल “कलाकार” थीं, बल्कि संस्कृति की संरक्षिका, स्वतंत्रता आंदोलन की सहयोगी, और भाषा-साहित्य की वाहिका भी थीं।

तिरस्कार का कारण : समाज ने योगदान क्यों भुलाया?

यदि तवायफों का योगदान इतना महत्वपूर्ण था, तो समाज ने उन्हें क्यों तिरस्कार किया? इसका उत्तर सामाजिक, धार्मिक और नैतिक स्तर पर छिपा है:

1. शरीर और स्त्रीत्व पर मानवीय नियंत्रण

भारतीय समाज ने स्त्री के शरीर को नियंत्रण का उपकरण माना। जब वही शरीर कला का माध्यम बना, तो पितृसत्तात्मक मानसिकता ने उसे स्वीकार करने से इंकार किया। उनके शरीर को “कभी पवित्र, कभी कलंकित” की श्रेणी में रखा गया।

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2. नैतिकता का दायरा और द्वैध दृष्टिकोण

समाज ने कला की महानता स्वीकार की, लेकिन कलाकार के व्यक्तित्व को सेवा और मनोरंजन के राष्ट्रीय मानक में नापने का प्रयास किया। वह जो “देखने योग्य” था, उसका सम्मान हुआ; जो “सम्बंधित वास्तविकता” थी, उसे कलंकित कर दिया गया।

3. स्मृति और शासकीय परिभाषा

राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में इतिहासलेखन, पाठ्यपुस्तक निर्माण और सार्वजनिक विमर्श ने “सम्मानित” और “उल्लेखनीय” पात्रों की परिकल्पना बनाई, जिसमें तवायफों की भूमिका नहीं पाई गई। उनकी स्मृति को सार्वजनिक स्मृति से काट दिया गया।

4. सिनेमा और साहित्य का मिथ-निर्माण

हिंदी सिनेमा ने तवायफों को अक्सर रोमांस, तिरस्कार और पाप की दृष्टि से चित्रित किया। उनकी जटिलता, संघर्ष और सामाजिक भूमिका दुर्लभ रूप से ही सामने आई। यह मिथ-निर्माण समाज की सोच को और दृढ़ करता रहा।

5. शासकीय नियंत्रण एवं कानून

औपनिवेशिक कानूनों ने वेश्यावृत्ति, सार्वजनिक आदेश और “स्वच्छता” की छवि में तवायफों को लक्षित किया। इस प्रकार कला की गतिविधियों में उनकी स्वतंत्रता पर अंकुश आया। 

इन कारणों से समाज ने तवायफों को (और आज के समतुल्य में देहजीवाओं को) कला की सराहना तो दी, पर उन्हें सामाजिक स्वीकार्यता नहीं दी।

नामों के रूप में स्मृति — कुछ उदाहरण और योगदान

गौहर जान — भारत की पहली महिला कलाकार जिनकी ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग हुई। उन्होंने खुद को “गौहर जान” नाम से पेश किया और संगीत-उद्योग में स्त्री की आर्थिक स्वायत्ता की राह खोली।

बेगम अख्तर — ग़ज़ल की आवाज़, शुद्धतावादी शिस्टम में भी ठहराव बनाए रखकर। उन्होंने शास्त्रीय और उपशास्त्रीय शैली में उत्कृष्ट योगदान दिया।

रसूलन बाई — बनारस घराने की प्रसिद्ध गायिका, जिनकी ठुमरियों ने आज भी संगीत समारोहों में स्थान पाया।

जानकी बाई, मोतिबाई, महेज़बीन आदि — ये तवायफें नृत्य और संगीत की विधाओं में पारंगत थीं, और उनकी गोष्ठियों ने कई शिष्यों को प्रेरित किया।

इन नामों के माध्यम से हम देख सकते हैं कि तवायफों और देहजीवाओं ने केवल कला नहीं, बल्कि संस्कृति की नींव रखी, और समाज की सौंदर्य-संवेदना को संवारा।

आधुनिक संदर्भ और पुनर्मूल्यांकन

आज जब हम सेक्स वर्क, देहव्यापार, स्त्री स्वतंत्रता और मानवाधिकार की बातें करते हैं, तब यह आवश्यक है कि हम इतिहास के इस एक पक्ष को निष्पक्ष दृष्टि से देखें। तवायफ और देहजीवा उन स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिनके सौंदर्य, कला और संघर्ष को हमने किनारे कर दिया।

उनका पुनर्मूल्यांकन करना सिर्फ इतिहास सुधारने जैसा नहीं है, बल्कि यह हमारे समकालीन समाज को यह सवाल देना है कि हम किस तरह स्त्री की आत्मा, कला और आत्म-सम्मान को देखते हैं। यदि आज हम स्त्री कला, अभिव्यक्ति और समान अधिकार की बात करते हैं, तो हमें उनकी स्मृति ज़िंदा करनी होगी।

तवायफ और देहजीवा न केवल भारतीय संस्कृति की विलक्षण धारा थीं, बल्कि उन्होंने अपनी कला, साहस और संवेदना से उस इतिहास को लिखा, जिसे समाज ने अनदेखा किया। वे तिरस्कार के पार खड़ी थीं — उन्होंने समाज को मनोरंजन दिया, संस्कृति दी और आज़ादी की ख़्वाहिश दी।

आज जब हम भारतीय संस्कृति की महिमा गाते हैं, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसकी धारा उनकी आत्मा से बहती है, जिनका नाम अब मंच के बाहर रह गया है

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