
बस बनी आग का गोला : ऐसी खबर उठी जिसने पूरे देश की रूह कंपा दी
-अनिल अनूप
रात का अँधेरा अभी पूरी तरह ढला भी न था कि राजस्थान की रेत से एक ऐसी खबर उठी जिसने पूरे देश की रूह कंपा दी। जैसलमेर-जोधपुर मार्ग पर तेज रफ्तार बस जब देखते ही देखते आग का गोला बन गई, तो सिर्फ धातु नहीं जली — इंसानियत की नर्मी, शासन की लापरवाही और हमारी सामूहिक संवेदना भी उसी आग में तप गई। चीखें उठीं, लपटें आसमान से बात करने लगीं, और कुछ ही क्षणों में जीवन का पूरा कारवाँ राख में बदल गया।
एक सड़क, जो मौत की राह बन गई
कहते हैं सड़कें सभ्यता की धमनियाँ होती हैं। इनसे जुड़ता है व्यापार, जीवन, और विकास की गति। पर जब वही सड़कें मौत का रास्ता बन जाएँ, तो समझ लेना चाहिए कि कहीं कुछ बहुत गंभीर गलती हो रही है।
जैसलमेर-जोधपुर मार्ग पर यह बस अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी — यात्रियों के सपने, उम्मीदें, घर लौटने की तसल्ली और कुछ रोज़ी की थकान के साथ। लेकिन यह यात्रा मंज़िल तक नहीं पहुँची।
प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार बस में अचानक धुआँ उठने लगा। कुछ ही पलों में आग ने विकराल रूप ले लिया। यात्रियों ने खिड़कियाँ तोड़ने की कोशिश की, दरवाज़े खुले नहीं। जो भीतर थे, उनकी चीखें बाहर वालों के दिलों को चीरती चली गईं। किसी ने कहा – “साहब, सब कुछ खत्म हो गया।”
और सचमुच, कुछ ही मिनटों में सब खत्म हो गया। बस जलती रही, लोग देखते रहे, और समय ठिठक गया।
लापरवाही का तिलिस्म
हर ऐसी त्रासदी के बाद वही रट लग जाती है — “जाँच के आदेश दे दिए गए हैं”, “पीड़ितों को मुआवज़ा मिलेगा”, “दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा”।
पर क्या कभी कोई जवाबदेही तय होती है?
बस में आग लगी कैसे? क्या उसमें अग्निशमन सिलेंडर था? क्या चालक और परिचालक को सुरक्षा प्रशिक्षण मिला था? क्या सड़क सुरक्षा विभाग ने उस बस की फिटनेस जाँची थी?
यह सवाल जितने सरल हैं, उनके उत्तर उतने ही भयावह।
हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ मौत भी “प्रक्रिया” में दर्ज हो जाती है।
काग़ज़ों में सब ठीक होता है, मगर ज़मीनी हकीकत धधकते लोहे की तरह झुलसा देती है।
सरकारें आती हैं, हादसे नहीं थमतीं
राजस्थान की सड़कें लंबे समय से अपनी खामियों के लिए बदनाम रही हैं। ओवरलोडेड वाहन, थके ड्राइवर, अपर्याप्त सुरक्षा उपाय — यह सब मिलकर एक भयावह मिश्रण तैयार करते हैं।
फिर भी, न तो सड़क सुरक्षा अभियान गंभीरता से चलता है, न ही परिवहन विभाग की नींद खुलती है।
हर बार कोई बस जलती है, कोई ट्रक पलटता है, कुछ जानें जाती हैं, और फिर अगले हादसे तक सन्नाटा छा जाता है।
क्या यह नियति है या हमारी व्यवस्था की नासमझी?
शायद दोनों का संगम है — एक तरफ लापरवाही, दूसरी तरफ आदत। हमने हादसों के साथ जीना सीख लिया है। अब मौत भी हमें विचलित नहीं करती।
मानवता की राख में खोजती उम्मीद
जब लपटों के बीच कोई बच्चा माँ को पुकारता है, तो सिर्फ वह नहीं जलता — पूरी मानवता झुलस जाती है।
जो तस्वीरें सामने आईं, उनमें कुछ शरीर पहचान से परे थे। पुलिसकर्मियों ने बताया कि कई शव इतने जल चुके थे कि पहचान असंभव थी।
सोचिए, एक माँ जो सुबह अपने बेटे को स्टेशन छोड़ आई होगी, वह शाम तक किस नाम से पुकारे अपने बच्चे की राख को?
कितनी निर्दय है यह नियति, और कितनी असंवेदनशील हैं हम — जो बस यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं कि “भगवान की मर्ज़ी थी।”
व्यवस्था की चुप्पी : सबसे घातक आग
आग सिर्फ बस में नहीं लगी थी, वह हमारे सिस्टम की आत्मा में लगी है।
यह आग है ढीली नीतियों की, ठेकेदार मानसिकता की, और उस नौकरशाही की जो सिर्फ फाइलों में दौड़ती है।
क्या कारण है कि हर सार्वजनिक वाहन में अग्निशमन यंत्र अनिवार्य होने के बावजूद, 80% बसों में यह या तो खराब होता है या होता ही नहीं?
क्या कारण है कि सड़क सुरक्षा नियमों पर खर्च का बड़ा हिस्सा प्रचार में चला जाता है, जमीन पर नहीं?
जब तक इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलेंगे, तब तक हर नई सड़क एक संभावित चिता बनी रहेगी।
संताप और संकल्प
इस हादसे के बाद सरकार ने राहत की घोषणाएँ की हैं। यह ज़रूरी है, पर पर्याप्त नहीं।
मुआवज़े से न तो चीखें लौटेंगी, न वह मासूम आँखें जो धुएँ में बुझ गईं।
सच्ची श्रद्धांजलि होगी — अगर इस हादसे से सीख ली जाए।
हर बस का नियमित तकनीकी निरीक्षण हो, चालक-परिचालक को अनिवार्य अग्निशमन प्रशिक्षण मिले, और सड़कों पर रात्रि गश्त बढ़ाई जाए।
यह सिर्फ प्रशासनिक नहीं, नैतिक ज़िम्मेदारी है।
साहित्य की दृष्टि से यह त्रासदी
साहित्य जब जीवन का प्रतिबिंब होता है, तब ऐसी घटनाएँ हमारे भीतर के कवि, विचारक और नागरिक को एक साथ झकझोर देती हैं।
एक जलती बस — वह सिर्फ लोहे की आकृति नहीं, बल्कि हमारे समय की एक जलती हुई कविता है, जिसमें हर लपट एक सवाल है, हर राख एक गवाही।
यह हमें याद दिलाती है कि तकनीक की तरक्की और व्यवस्था की मजबूती का कोई अर्थ नहीं, यदि जीवन की सुरक्षा सुनिश्चित न हो।
यह बस का अग्निकांड हमारे युग का प्रतीक है
जहाँ रफ़्तार को सम्मान और सावधानी को उपेक्षा मिली है।
जहाँ मुनाफ़ा सुरक्षा से बड़ा हो गया है।
जहाँ मानवता को सस्ता और धातु को कीमती समझा जाने लगा है।
समय का आह्वान
अब वक़्त है कि हम सामूहिक चेतना जगाएँ।
यह हादसा “उनके साथ” नहीं हुआ — यह हमारे साथ हुआ है, बस हम अभी जीवित हैं।
हर वह नागरिक जो सड़क पर चलता है, हर वह अधिकारी जो अपनी कुर्सी पर बैठा है, हर वह पत्रकार जो कल यह खबर लिखेगा — सबको मिलकर सोचना होगा कि आखिर कब तक?
क्या हमें हर त्रासदी के बाद मोमबत्तियाँ जलाने और ट्वीट करने के अलावा कुछ और नहीं करना?
क्या हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि “भारत में हादसे तो होते रहते हैं”?
आखिरी पंक्ति में कुछ आग बची रहे
जब किसी बस में आग लगती है, तो वह सिर्फ डीज़ल से नहीं जलती —
वह हमारी चुप्पी, हमारी असंवेदना और हमारी व्यवस्था के ठंडेपन से जलती है।
जरूरत है कि इस आग को हम भीतर तक महसूस करें — ताकि अगली बस में कोई माँ अपने बच्चे को सुरक्षित घर पहुँचा सके।
संतप्त हृदय से यह लेख यही प्रार्थना करता है —
कि अब और कोई बस आग का गोला न बने।
अब कोई सड़क मृत्यु की राह न कहलाए।
अब कोई पिता अपने बेटे की राख पहचानने को मजबूर न हो।
यह हादसा केवल एक “समाचार” नहीं है,
यह एक अंतिम चेतावनी है —
कि अगर हमने अब भी नहीं सीखा,
तो अगली आग में शायद हम सब जलेंगे —
सिर्फ शरीर नहीं,
सभ्यता भी।