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November 23, 2024 6:17 am

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मोदी की गारंटी ने ‘रिवाज’ को कायम रखते हुए ‘राज’ बदला ; लेकिन कांग्रेस क्यों हारी? संपूर्ण विश्लेषण

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आनंद शर्मा की रिपोर्ट

एक बार फिर वर्ष 2013 की भांति विधानसभा चुनावों में जनता ने बीजेपी पर भरोसा जताया है । ऐसे में बीजेपी ने बहुमत हासिल करते हुए पूर्ण रूप से जीत हासिल की है । लिहाजा राजस्थान में रिवाज बदलने की प्रक्रिया लगातार जारी है । आखिर गहलोत सरकार की गारंटियों का जादू जनता पर नहीं चल पाया । चुनावों में अशोक गहलोत के दावे खोखले होते हुए दिखाई दिए । ऐसे में इस बार गहलोत का रिपीट होने का सपना भी अधूरा ही रह गया । 

सनातन, हिंदुत्व और मोदी की गारंटी ने राजस्थान में ‘रिवाज’ को बरकरार रखते हुए ‘राज’ को बदल दिया। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मुफ्त की योजनाएं और गारंटियां पिछले 30 साल से चल रही परिणाम बदलने की परंपरा को नहीं तोड़ पाईं।

भविष्यवाणी के लिए इन नतीजों में काफी कुछ है। कांग्रेस के लिए भारी चिंताएं हैं- क्योंकि सबसे प्रतिष्ठित राज्य राजस्थान तो उसने गंवा ही दिया, छत्तीसगढ़ भी हाथ से निकल गया।

पिछले दो चुनाव से लोकसभा में एक सीट के लिए तरस रही कांग्रेस के लिए 2024 का चुनाव बड़ी चुनौती से कम नहीं होगा। हार की सबसे बड़ी वजह वो खुद है।

असल में कांग्रेस जुलाई 2020 में उसी दिन हार गई, जब गहलोत और पायलट खेमे की अलग-अलग बाड़ेबंदी हुई थी। सितंबर 2022 में इसकी फाइनल रिहर्सल भी हो गई थी। नतीजा 3 दिसंबर, 2023 को आया।

अशोक गहलोत और सचिन पायलट के विवाद ने पार्टी को हाशिए पर धकेल दिया। पूरा चुनाव गहलोत ने अपने स्तर पर लड़ा और उनका मुकाबला सीधे मोदी से रहा।

मोदी ने गहलोत के हाथ से सत्ता छीन ली। उधर, मोदी ने राजस्थान में अलग तेवर अपनाते हुए जो गारटेंड फॉर्मूला दिया उसे जनता ने स्वीकार कर लिया।

इस चुनाव में एक रोचक ट्रेंड यह भी देखने को मिला, जिसमें दो पार्टियों के बड़े दिग्गज हार गए। भले भाजपा से पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया हों या नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़।

वसुंधरा की कोर टीम के भी कई लोग चुनाव हार गए। इनमें पूर्व मंत्री प्रभुलाल सैनी, प्रहलाद गुंजल, नरेंद्र नागर जैसे नेता शामिल हैं। उधर, कांग्रेस के विश्वेंद्र सिंह, प्रताप सिंह खाचरियावास, बीडी कल्ला, रामलाल जाट, भंवर सिंह भाटी जैसे मंत्री हार गए।

भाजपा की इस जीत का सबसे बड़ा कारण क्या है?

भाजपा की आक्रामक रणनीति। सनातन और हिंदुत्व के मुद्दे के साथ पार्टी ने युवाओं पर फोकस किया। लाल डायरी के माध्यम से बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के मुद्दे को हवा दी।

महंगाई की नब्ज पकड़ते हुए गहलोत की गारंटी पर मोदी की गारंटी लाए। पेट्रोल के रेट पर पुनर्विचार की बात की गई। चुनाव के आखिर में ओपीएस पर पुनर्विचार की बात कर तीनों राज्यों को संजीवनी दे दी। यह काफी निर्णायक रहा।

गुजरात की तरह राजस्थान में संगठन काफी मजबूत रहा। कमजोर सीटों पर संघ ने अपनी कमान संभाली। जयपुर में सिविल लाइंस में नए कैंडिटेट ने गहलोत सरकार के मंत्री को हरा दिया।

क्या मोदी के दम पर इतनी बड़ी जीत संभव है?

हां। राजस्थान में चुनाव की पूरी कमान मोदी ने संभाल रखी थी। यहां किसी चेहरे को आगे करने की बजाय भाजपा ने ब्रांड मोदी को ही जनता के बीच रखा था।

इसका बड़ा कारण था यह चुनाव मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ सीधे था। 2013 के विधानसभा चुनाव में मोदी लहर में भाजपा को ऐतिहासिक 163 सीटें मिली थीं।

भाजपा की सबसे बड़ी रणनीति क्या रही?

भाजपा ने कांग्रेस की कमजोर नस पर प्रहार किया। गहलोत और पायलट गुट के विवाद का पूरा फायदा उठाया। चुनाव के आखिरी दिनों में सचिन पायलट और उनके पिता राजेश पायलट के साथ अन्याय होने की बात कहकर गुर्जरों के अंसतोष को और बढ़ाया। इसका नतीजा ये रहा कि पूर्वी राजस्थान में कांग्रेस पिछड़ गई।

इसके अलावा उदयपुर के कन्हैयालाल मामले के जरिए हिंदू वोट बैंक का ध्रुवीकरण किया गया। एक भी मुस्लिम को कैंडिडेट नहीं बनाया गया। तीन संतों को टिकट देकर हिंदुत्व की छवि पेश की। तीनों बड़े मार्जिन से जीत गए।

कांग्रेस की हार के और बड़े कारण क्या हैं?

सही मायने में कहें तो यह चुनाव गहलोत ने ही लड़ा था। कांग्रेस के बाकी नेता इसे हारा हुआ ही मान चुके थे। किसी ने कोई बड़ी ताकत नहीं दिखाई। चुनाव प्रचार के आखिरी दिन राजस्थान में कांग्रेस के किसी राष्ट्रीय नेता की सभा तक नहीं हुई। शुरू से प्रचार फीका रहा। प्रेस कॉन्फ्रेंस से आगे नहीं बढ़ पाया। सचिन पायलट अपने इलाके या अपने समर्थकों तक ही सिमटे रहे। हालांकि वे दीपेंद्र सिंह, इंद्रराज गुर्जर, वेदप्रकाश सोलंकी जैसे अपने समर्थकों को भी नहीं बचा सके।

कांग्रेस की हार के पीछे बड़ी वजह पूर्वी राजस्थान में हुई बड़ी हार है। जयपुर संभाग में 50 सीटों में से कांग्रेस ने 2018 में बंपर 34 सीटें हासिल की थीं। इस बार यह आंकड़ा काफी गिर गया। इसके अलावा मेवाड़, मारवाड़ और मेरवाड़ा में भी कांग्रेस को करारी शिकस्त मिली।

दूसरा, मोदी ने डबल इंजन की सरकार का जो नारा दिया, वह काम कर गया। कांग्रेस जिन मुद्दों पर चुनाव लड़ रही थी, उनमें चिरंजीवी योजना को छोड़ दें तो बाकी का लाभ जनता तक नहीं पहुंच पाया। फ्री मोबाइल, फ्री राशन किट, ग्रामीण क्षेत्रों में इंदिरा रसोई जैसी योजनाओं को लागू करने में बहुत देरी हो गई। 

क्या गहलोत सरकार के प्रति असंतोष था?

इसमें सरकार के प्रति असंतोष से ज्यादा गुस्सा विधायकों और मंत्रियों को लेकर था, जो दिख रहा है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भले ही कहते रहें कि पिछले चुनावों की तरह इस बार एंटी इनकम्बेंसी नजर नहीं आ रही, लेकिन यह सच था कि कांग्रेस के मंत्रियों और विधायकों के प्रति नाराजगी थी। राजस्थान में पिछले 6 विधानसभा चुनावों को देखें, तो सरकार में रहते कोई भी पार्टी जनता का विश्वास नहीं जीत पाई।

गहलोत और पायलट गुट का विवाद का चुनाव पर कितना असर पड़ा?

हर कारण में ये शामिल है। पूरे पांच साल गहलोत अपनी सरकार बचाने के जतन करते रहे। हालात ये रहे कि कांग्रेस के पास बूथ लेवल तक का संगठन नहीं था। पूरे पांच साल कई संस्थानों यूआईटी और जेडीए में नियुक्तियां नहीं की गईं। चार साल तक जिलाध्यक्ष और ब्लॉक अध्यक्ष तक नहीं थे। आपसी रस्साकशी के चलते जनता के बीच सरकार का अनुशासन सवालों के घेरे में आ गया। 

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इस चुनाव का सबसे बड़ा फैक्टर क्या है?

राजस्थान में तीसरे दल के लिए कोई बड़ी जगह नहीं बन पाई। हनुमान बेनीवाल की पार्टी आरएलपी पूरी तरह से सिमट गई। पिछली बार तीन सीटें जीती थीं, लेकिन इस बार वे खुद फंस गए। इस बार बड़े दल के रूप में दावा कर रहे थे, लेकिन उन्हें एक सीट ही मिली। आरएलपी ने भाजपा से ज्यादा कांग्रेस के वोट कांटे। वहीं, ऐसा ही बीएपी ने वागड़ के आदिवासी अंचल में किया। बीएपी ने 3 सीटें जीतीं। पिछले चुनाव में 6 सीटें जीतने वाली बसपा इस बार 2 सीटें ही जीत पाई। करीब आधा दर्जन सीटों पर निर्दलीयों ने कब्जा जमाया है।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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