
एक प्रथा, एक संप्रदाय और एक समुदाय—तीनों की कहानी दरअसल एक ही शहर की आत्मकथा है। यह शहर है उत्तर प्रदेश का आज़मगढ़, जिसे अक्सर बाहरी दुनिया ने पूर्वाग्रहों की धूल से ढक कर देखा, लेकिन जिसके भीतर की रोशनी आज भी प्रथा, विचार और मेहनतकश हाथों की चमक से जगमगा रही है। यहीं से शुरू होती है तीन सूत्रों की यह यात्रा—मुहर्रम का ताज़िया और गंगा–जमुनी तहज़ीब, शिब्ली नोमानी की इस्लाही–तालीमी धारा और मुबारकपुर का बुनकर समाज।
मुहर्रम की दस तारीख़, कर्बला की याद और इमाम हुसैन की शहादत… यह सिर्फ़ धार्मिक रस्म नहीं, बल्कि इंसाफ़, कुर्बानी और इंसानियत की साझा स्मृति है। उत्तर भारत की तरह आज़मगढ़ में भी मुहर्रम किसी एक समुदाय का शोक नहीं, बल्कि पूरे शहर का साझा भाव बन जाता है।
डोरवा गाँव की मिसाल : जहाँ हिंदू बनाते हैं ताज़िया
अज़मगढ़ के डोरवा गाँव में हिंदू कारीगर पीढ़ियों से ताज़िया बनाते हैं और मुसलमान भाइयों के साथ जुलूस में शामिल होते हैं। ताज़िया की सजावट—लकड़ी, शीशे, रंगीन काग़ज़ और फूल—सब हिंदू हाथों से तैयार होते हैं। जुलूस में वही कारीगर मातम और नौहा सुनते हैं और कर्बला की कहानी पर आँसू बहाते हैं। यह साझी विरासत का जीवंत प्रमाण है।
आज़मगढ़ शहर, निज़ामाबाद, सरायमीर, जीयनपुर और मार्टीनगंज में हर साल ताज़ियों के जुलूस में शिया–सुन्नी के साथ अन्य धर्मों के लोग भी शामिल होते हैं। अखाड़ों के करतब, सामुदायिक अनुशासन और सुरक्षा की व्यवस्था इस प्रथा को सामाजिक सौहार्द में बदल देती है।
आज़मगढ़ सिर्फ़ भावनाओं का नहीं, बल्कि विचार का भी शहर है—और इस विचार की बुनियाद हैं मौलाना शिब्ली नोमानी। धार्मिक और आधुनिक शिक्षा के संतुलन के समर्थक शिब्ली ने अलीगढ़ आंदोलन और नदवतुल उलेमा से जुड़कर तालीमी मॉडल को आगे बढ़ाया। शिब्ली नेशनल कॉलेज और दारुल मुसन्निफ़ीन शिब्ली एकेडमी ने शिक्षा और शोध को नई दिशा दी।
इस धारा की विशेषताएँ हैं—धार्मिक व आधुनिक शिक्षा का मेल, रिसर्च की मजबूत परंपरा और उर्दू अदब की समृद्ध विरासत। शिब्ली के बाद अमीन अहसन इस्लाही और सद्रुद्दीन इस्लाही जैसे विद्वानों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। आज़मगढ़ में शिक्षा आज भी संकीर्णता नहीं, समझ का माध्यम है।

आज़मगढ़ के मुबारकपुर कस्बे की पहचान उसके करघे हैं। 14वीं सदी से प्रसिद्ध मुबारकपुर की सिल्क साड़ियाँ बारीक ज़री–कढ़ाई, भारी पल्लू और जटिल बूटी डिज़ाइन के लिए जानी जाती हैं। अंसारी बुनकरों के घरों में पीढ़ियों से करघे लगते रहे हैं—जहाँ सुबह की अज़ान के साथ करघों की आवाज़ उठती है, और देर रात तक धागों में सौंदर्य बुना जाता है।

आर्थिक चुनौतियों, पावरलूम के दबाव और कच्चे माल की कीमतों के बावजूद यह समुदाय अपनी कला, इज़्ज़त और पहचान की रक्षा कर रहा है। किसी शादी, त्योहार या ख़ास अवसर पर जब कोई महिला मुबारकपुर की साड़ी पहनती है, तो उसकी चमक के पीछे इन बुनकरों की रात–रात भर की मेहनत शामिल होती है।

तमसा और घाघरा नदियाँ सनातन संस्कृति की परंपराओं की साक्षी हैं। नवरात्र, रामलीला, दुर्गा पूजा, जगराता, कांवड़ यात्रा, छठ पूजा, नाग पंचमी, गोवर्धन पूजा और ग्राम–देवी की परंपराएँ आज भी ग्रामीण जीवन में उतनी ही जीवित हैं जितनी दशकों पहले थीं। कई गाँवों में मुस्लिम कलाकार रामलीला मंचन में भाग लेते हैं और हिंदू कारीगर ताज़िया सजाते हैं—यही आज़मगढ़ की असली रूह है।

लोकगायन—बिरहा, कजरी, निर्गुण, आल्हा—और साहित्य—शिब्ली, फिराक़, काज़ी अब्दुल सत्तार, विश्वनाथ त्रिपाठी—मिलकर आज़मगढ़ को संगीत और विचार की संयुक्त राजधानी बना देते हैं।
डोरवा का ताज़िया, शिब्ली की तालीम और मुबारकपुर की साड़ियाँ—तीनों साथ–साथ जीने, सीखने और रचने की साझा धड़कन हैं। मीडिया और राजनीति ने कई बार आज़मगढ़ पर नकारात्मक छवियाँ थोपीं, लेकिन यह ज़मीन असल में मानवता, शिक्षा और श्रम की है।
भविष्य भी इसी दिशा की ओर मार्ग दिखाता है—धर्म मनुष्यों को जोड़े, शिक्षा सोच को विकसित करे और कौशल रोज़गार को स्थिर बनाए—तो समाज मजबूत बनता है।
आज़मगढ़ की यह कहानी किसी एक ज़िले की नहीं, हम सबकी साझा पूँजी है।
आज़मगढ़ से जुड़े आम सवाल–जवाब (FAQ)
क्योंकि यहाँ मुहर्रम, रामलीला, ताज़िया, दुर्गा पूजा, अज़ान और मंत्र — सभी एक ही दिल और भूगोल में साथ रहते हैं। हिंदू ताज़िया बनाते हैं और मुस्लिम कलाकार रामलीला में भाग लेते हैं। यही सांस्कृतिक साझेदारी इसे अनोखा बनाती है।
क्योंकि डोरवा में ताज़िया तैयार करने का काम हिंदू कारीगर करते हैं, और जुलूस के दिन वे स्वयं मुसलमान भाइयों के साथ मातम और नौहा सुनते हुए ताज़िया उठाते हैं — यह सांप्रदायिक सद्भाव की अनोखी मिसाल है।
शिब्ली ने धार्मिक शिक्षा और आधुनिक ज्ञान को एक साथ जोड़कर ऐसा मॉडल बनाया जिसमें रिसर्च, साहित्य और इतिहास को भी उतनी ही अहमियत दी गई जितनी दीन के अध्ययन को।
बारीक रेशमी बुनाई, सूक्ष्म बूटी–डिज़ाइन, भारी ज़रीदार पल्लू और पीढ़ियों से चले आ रहे बुनकर परिवारों की मेहनत — यही मुबारकपुर की साड़ियों की पहचान और प्रतिष्ठा का आधार है।
नवरात्र, रामलीला, दुर्गा पूजा, जगराता, कांवड़ यात्रा, छठ पूजा, ग्राम–देवी की परंपरा, लोकपूजन और भजन मंडलियाँ — ये सभी यहाँ की जीवंत सनातन सांस्कृतिक धारा के उदाहरण हैं।
बाहरी छवि कई बार राजनीतिक और मीडिया प्रस्तुतियों के कारण नकारात्मक बनाई गई, जबकि वास्तविक पहचान ज्ञान, गंगा–जमुनी तहज़ीब, साहित्यिक धरोहर और मेहनतकश समुदायों पर आधारित है।






