
✍️ विशेष लेख — अनिल अनूप
एक दिन, एक वारदात, और एक अंधेरा…
14 अगस्त 2021 — स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या थी। देश में झंडे तैयार हो रहे थे, भाषणों की तैयारियां चल रही थीं, और हर तरफ देशभक्ति की गूंज थी।
पर उसी दिन उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले की सड़कों पर एक पत्रकार की आवाज़ को कुचल देने की कोशिश की गई — संजय सिंह राणा नाम का वह शख्स, जिसने अपने कलम से सत्ताओं और ठेकेदारों की नींव हिला दी थी।
रामनगर ब्लॉक के देऊंधा के बीच राष्ट्रीय राजमार्ग पर एक जीप ने उन्हें रौंद दिया। वह कोई दुर्घटना नहीं थी — यह एक संदेश था कि अगर कोई “सच” बोलने की हिम्मत करेगा, तो उसका यही अंजाम होगा।
लेकिन सवाल यह है कि क्या सच को यूँ ही कुचल दिया जा सकता है?
एक पत्रकार नहीं, एक मिशन था “संजय सिंह राणा”
संजय सिंह राणा का नाम सुनकर लोग आज भी सिर्फ एक पत्रकार को नहीं, बल्कि एक मिशन को याद करते हैं।
वह उन दुर्लभ पत्रकारों में से थे जिन्होंने पत्रकारिता को रोज़गार नहीं, बल्कि संघर्ष का अस्त्र बनाया।
वे गाँव-गाँव घूमते, स्कूलों के टूटी दीवारों की तस्वीरें लेते, खस्ताहाल सड़कों पर खड़े होकर सवाल पूछते, और भ्रष्टाचार के किले में सेंध लगाते थे।
उनके लेखों ने कई बार सत्ताधारी और ठेकेदार वर्ग के बीच बेचैनी फैलाई। उन्होंने सरकारी योजनाओं — मनरेगा, आवास योजना, शौचालय निर्माण, और छात्रवृत्ति जैसी परियोजनाओं की सच्चाई उजागर की। जिन दस्तावेजों पर “पूरा” लिखा था, उन गाँवों में काम अधूरा था।
राणा ने इन्हें उजागर किया, और यहीं से उनकी जंग शुरू हुई।
जब पत्रकारिता बन गई जंग का मैदान
राणा के लिए पत्रकारिता का मतलब “खबर छापना” नहीं था, बल्कि जवाब मांगना था। वे स्थानीय प्रशासन से सीधे सवाल करते, रिकॉर्ड माँगते, और लोगों को उनके अधिकार बताते।
यह सब उन ठेकेदारों और अवैध खनन माफियाओं को रास नहीं आया, जिनकी कमाई जनता की खून-पसीने की गाढ़ी कमाई पर टिकी थी।
खनन के नाम पर चित्रकूट की धरती को नंगा किया जा रहा था। जब राणा ने कैमरा लेकर उस खनन के वीडियो बनाए और रिपोर्ट प्रकाशित की — तो पहली धमकी आई:
“बहुत हो गया तुम्हारा समाज सेवा का नाटक, अब अपना रास्ता देखो।”
लेकिन उन्होंने रास्ता नहीं बदला, बल्कि अपनी कलम को और तेज़ कर दिया।
जब कलम की स्याही खून में बदल गई
14 अगस्त की सुबह राणा अपने काम पर निकले थे। वह एक ठेकेदार के खिलाफ दर्ज भ्रष्टाचार के केस के दस्तावेज़ लेकर लौट रहे थे। अचानक पीछे से एक जीप आई — तेज़ रफ्तार में। चंद सेकंड में पहिए उनके शरीर पर चढ़ गए।
लोग दौड़े, उन्हें अस्पताल ले जाया गया, पर शरीर बुरी तरह टूट चुका था। डॉक्टरों ने कहा —
“अब वह शायद ही कभी चल पाएंगे।”
एक आवाज़ को थाम देने की कोशिश की गई थी, लेकिन राणा की मुस्कान में अब भी रोशनी थी। उन्होंने कहा —
“अगर मैं बोलना छोड़ दूँ, तो फिर मेरे जैसे लोगों की कुर्बानी व्यर्थ हो जाएगी।”
आवाज़ जो अब दहाड़ने लगी है
चार साल बीत गए, लेकिन संजय सिंह राणा आज भी अपने बिस्तर से समाज के लिए काम कर रहे हैं। उनकी पत्रकारिता अब आंदोलन बन चुकी है। वे सोशल मीडिया के माध्यम से भ्रष्टाचार, शिक्षा और ग्रामीण विकास से जुड़ी रिपोर्टें प्रकाशित करते हैं।
लोग उन्हें “आवाज़-ए-चित्रकूट” कहने लगे हैं। सवाल उठता है — आखिर कब तक दबाई जाएंगी ऐसी आवाज़ें?
एक टूटे शरीर में अटूट आत्मा
संजय सिंह राणा अब व्हीलचेयर पर हैं। रातें दर्द में बीतती हैं, लेकिन सुबह उनके लिए अब भी उम्मीद लेकर आती है। वे कहते हैं —
“मैं ज़िंदा हूँ, क्योंकि मेरा मिशन अधूरा है।”
गाँवों के लोग आज भी उन्हें “राणा जी” कहकर बुलाते हैं, उनकी सलाह लेते हैं, और उनके कमरे को अब “छोटा न्यूज़रूम” कहते हैं — जहाँ सत्य दर्द की दीवारों से गुजरकर निकलता है।
राणा और उनकी विरासत
राणा का संघर्ष केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक है। वह सिखाता है कि एक इंसान की हिम्मत लाखों की प्रेरणा बन सकती है। आज जब पत्रकारिता चमक और पक्षपात से भर चुकी है, राणा जैसे पत्रकार सच्चाई के अंतिम प्रहरी हैं।
उनकी कहानी याद दिलाती है — “पत्रकारिता” मरी नहीं है, बस घायल है।
राणा की कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है — आखिर कब तक पत्रकार सुरक्षा के बजाय धमकियों में जिएंगे? और कब तक सच पर पहिए चढ़ाए जाते रहेंगे?
संजय सिंह राणा आज भी अपने बिस्तर से यह संदेश दे रहे हैं —
“मेरे पैर टूटे हैं, मेरी आवाज़ नहीं।”
यह पत्रकारिता की सशक्त पुकार है — सच्चाई की लौ को कोई ताकत बुझा नहीं सकती।
💠 लेखक: ✍️ अनिल अनूप (प्रधान संपादक, समाचार दर्पण24.कॉम)
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