बुंदेलखंड का पाठा: चट्टानों के साए में जीने को आज भी विवश हैं यहाँ के आदिवासी

कोल, गोंड और अन्य वनवासी समुदायों की आज की ज़मीन, जंगल, पानी और हक़ीक़त पर एक शोधपरक फीचर

रिपोर्ट : संजय सिंह राणा

“चित्रकूट में स्वास्थ्य सेवाओं के सुधार की मांग को लेकर प्रदर्शन करते लोग और साथ में एक ग्रामीण कार्यकर्ता की तस्वीर—चलो गांव की ओर अभियान।”
चित्रकूट में स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाली को लेकर आम जनता का जोरदार प्रदर्शन—‘चलो गांव की ओर अभियान’ के तहत क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं ने ट्रामा सेंटर और मेडिकल सेवाओं में सुधार की मांग उठाई।

राम की तपोभूमि, पर आदिवासियों के खाली हाथ

चित्रकूट—जहां रामायण की कथा, तप और भक्ति की स्मृतियां हर मोड़ पर दिखाई देती हैं, जहां मंदिरों, आश्रमों और धार्मिक पर्यटन का बड़ा बाज़ार है—उसी ज़िले का एक चेहरा पाठा भी है। ऊबड़–खाबड़ पहाड़ियों, पथरीली ज़मीन, विरल जंगलों और बिखरी हुई आदिवासी बस्तियों वाला यह इलाका बुंदेलखंड के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में गिना जाता है।

पाठा मूलतः एक पथरीला पठारी क्षेत्र है, जो उत्तर प्रदेश के दक्षिण–पूर्वी हिस्से में, मुख्य रूप से चित्रकूट, प्रयागराज और बांदा ज़िलों के सुदूर वनांचल में फैला है। यहां सबसे बड़ी आबादी कोल आदिवासियों की है, जो स्वयं को प्राचीन शबरी परंपरा से जोड़ते हैं और खुद को इस धरती का मूल निवासी मानते हैं। धार्मिक पर्यटन की चमक के बीच, इन समुदायों की ज़िंदगी आज भी ज़मीन के अधिकार, पीने के पानी, शिक्षा–स्वास्थ्य और सम्मानजनक जीवन की मूल ज़रूरतों के लिए जूझती हुई दिखाई देती है।

पाठा की भौगोलिक और सामाजिक संरचना: चट्टानें ज़्यादा, ज़मीन कम

पाठा का बड़ा हिस्सा पथरीली, लाल और कम जल–धारण क्षमता वाली मिट्टी से भरा है। यहाँ खेती की जो थोड़ी बहुत ज़मीन है, वह बरसाती पानी या सीमित सिंचाई सोतों पर निर्भर रहती है। बुंदेलखंड की पहचान पहले ही कम वर्षा और लगातार पड़ने वाले सूखे के रूप में रही है; ऐसे में पाठा का संघर्ष और गहराता दिखाई देता है।

कोल, गोंड, मवासी और बैगा जैसे आदिवासी समुदाय जंगलों के किनारे बसे हुए हैं, और उनकी परंपरागत आजीविका जंगल–उत्पादों—महुआ, तेंदूपत्ता, इमली, लकड़ी, जड़ी–बूटी—पर टिकी रही है। जब तक वन क्षेत्र खुला था, तब तक यह आजीविका एक प्राकृतिक सुरक्षा–कवच की तरह थी; लेकिन समय के साथ सरकारी नियंत्रण, आरक्षित वनों की सीमाएँ बढ़ने और वन विभाग के सख़्ती भरे रवैये ने इस जीवन पद्धति को कठिन बना दिया।

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ज़मीन, जंगल और ‘दादू’ का शिकंजा: आधुनिकीकरण के बीच बँधी मज़दूरी

दशकों तक पाठा और चित्रकूट क्षेत्र में कोल आदिवासियों का बड़ा हिस्सा स्थानीय दबंग ज़मींदारों—जिन्हें यहां “दादू” कहा जाता है—की बँधी मज़दूरी में फंसा रहा। ज़मीन का मालिक दादू, खेती करता आदिवासी; मज़दूरी नगद कम और कर्ज़–अनाज पर ज़्यादा आधारित—यह चक्र पीढ़ियों तक चलता रहा।

महिलाओं के लिए स्थिति और कठिन रही—मज़दूरी, शोषण, हिंसा और सामाजिक अपमान की कई परतें उनके जीवन में जुड़ी रहीं। कई अध्ययनों में कोल महिलाओं पर हुए उत्पीड़न का ज़िक्र मिलता है, जिन्हें समाज अक्सर “मज़दूर नहीं, वस्तु” की तरह देखता था।

1990 के दशक के बाद कुछ सामाजिक संगठनों और स्थानीय नेतृत्व ने इस चक्र को तोड़ने का प्रयास शुरू किया—ज़मीन के पट्टे, बंधुआ मज़दूरी से मुक्ति, ग्रामसभा की सक्रियता और कानूनी जागरूकता जैसे प्रयासों ने धीरे–धीरे परिवर्तन की जमीन तैयार की।

वनाधिकार कानून, 2006: क़ानून बना, पर हक़ अभी भी आधा–अधूरा

वनाधिकार कानून (FRA–2006) उन आदिवासी समुदायों को ऐतिहासिक अन्याय से राहत देने के लिए लाया गया था, जो सदियों से जंगल पर निर्भर रहे हैं। लेकिन पाठा और चित्रकूट के आदिवासियों को इसका पूरा लाभ नहीं मिल पाया।

सबसे बड़ी समस्या “पहचान” की है—कोल मध्य प्रदेश में ST, पर उत्तर प्रदेश में SC। यह विसंगति योजनाओं, छात्रवृत्तियों और वनाधिकार दावों तक उनकी पहुंच को कमजोर बना देती है। FRA में “75 साल का सबूत” जैसी औपचारिकताएँ आदिवासी जीवन के मौखिक इतिहास के साथ मेल नहीं खातीं।

कई गांवों में वन विभाग द्वारा हज़ारों परिवारों को बेदखली नोटिस दिए गए, जबकि वे पीढ़ियों से वहीं बसे थे। जगह–जगह FRA दावे बिना सुनवाई के खारिज किए गए। फिर भी, अनेक गांवों में महिलाएं ग्रामसभा के नेतृत्व में सामुदायिक वनाधिकार के लिए संघर्ष कर रही हैं।

पानी पर संकट: ‘पाठा पे जल योजना’ से लेकर मज़बूरी के प्रवास तक

पाठा का सबसे गंभीर संकट पानी है। गर्मियों में कई गांवों में पीने का पानी तक नसीब नहीं होता। कई बस्तियां गंदे तालाबों, सूखते कुओं या दूर के हैंडपंपों पर निर्भर रहती हैं। महिलाओं को रोज़ कई किलोमीटर दूर जाकर पानी लाना पड़ता है।

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“पाठा पे जल योजना” के नाम पर करोड़ों खर्च हुए, लेकिन कई जगह टंकियाँ सूखी, पाइपलाइन अधूरी और नल सूने पड़े मिलते हैं। जहाँ योजना सफल हुई है, वहां भी जल–प्रबंधन टिकाऊ नहीं है।

पानी और खेती की अस्थिरता ने युवाओं को प्रवास के लिए मजबूर किया है। बड़ी संख्या में युवा दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और गुजरात जाते हैं और पीछे गांवों में महिलाएं, बुज़ुर्ग और बच्चे संघर्ष में रह जाते हैं।

पोषण, स्वास्थ्य और शिक्षा: तीनहरी मार

कोल और अन्य आदिवासी समुदायों में कुपोषण, एनीमिया और खराब स्वास्थ्य संरचना एक बड़ी चुनौती है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र दूर, उप–केंद्र बंद, दवाओं की कमी और एम्बुलेंस सेवा का अभाव आम है।

शिक्षा की स्थिति भी कमजोर है। कई बच्चों को स्कूल तक पहुंचने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। लड़कियों को घरेलू काम, पानी लाने की ज़िम्मेदारी और सामाजिक प्रतिबंध उनकी पढ़ाई तक सीमित कर देते हैं।

रोज़गार, योजनाएँ और “विकास” की ज़मीनी हक़ीक़त

मनरेगा, आवास योजना, जन–धन, वन–उत्पाद समर्थन मूल्य आदि काग़ज़ पर हैं, पर जमीनी पहुंच कमजोर है। मनरेगा में काम कम, भुगतान देरी से, मस्टर रोल में गड़बड़ी आम है।

वन–उत्पादों का बाज़ार बिचौलियों के कब्ज़े में है। आदिवासी मज़दूरों को सही कीमत नहीं मिलती। स्वयं सहायता समूहों और छोटे–मोटे लघु–उद्योगों ने कुछ गांवों में सकारात्मक बदलाव लाए हैं, लेकिन दायरा सीमित है।

पहचान का संघर्ष: ST दर्जा, वनाधिकार और गरिमा

कोल समुदाय का सबसे बड़ा संघर्ष “पहचान” का है। उनकी जीवन–शैली, संस्कृति और परंपरा आदिवासी समाज से मेल खाती है, इसलिए ST दर्जे की मांग लगातार उठती रही है। यह पहचान न केवल सम्मान बल्कि योजनाओं तक पहुँच का रास्ता भी तय करती है।

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धार्मिक पर्यटन के केंद्र के रूप में चित्रकूट का विकास तेज़ी से हुआ है, पर वहीं पाठा का आदिवासी अंचल बुनियादी सुविधाओं से दूर है। यह विकास–विसंगति साफ़ दिखाई देती है।

प्रतिरोध, संगठन और छोटे–छोटे बदलाव

कठिनाइयों के बावजूद पाठा में महिलाओं और युवाओं के नेतृत्व में परिवर्तन की लहर दिखाई दे रही है। महिलाएँ ग्रामसभाओं में खुलकर बोलने लगी हैं, वनाधिकार दावों में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं और सामूहिक संगठन मजबूत कर रही हैं।

कुछ गांवों में तालाबों की खुदाई, कंटूर–बंडिंग, खेत–तलैया और जल–संरक्षण जैसी पहलों ने जमीन पर असर दिखाना शुरू किया है। वहीं, युवाओं में शिक्षा और तकनीक के प्रति जागरूकता तेजी से बढ़ रही है।

नीति की दिशा: सिर्फ़ योजनाएँ नहीं, संरचनात्मक बदलाव की ज़रूरत

पाठा की स्थिति बताती है कि सिर्फ योजनाएँ काफी नहीं—ज़मीन पर कानूनी हक़, जल–प्रबंधन, स्वास्थ्य–शिक्षा और राजनीतिक भागीदारी जैसे गहरे और संरचनात्मक बदलाव की आवश्यकता है।

पाठा के आदिवासियों को “अन्य” नहीं, “केन्द्रीय” मानकर सोचना होगा

पाठा के कोल और अन्य आदिवासी समुदाय इस क्षेत्र की सांस्कृतिक विविधता, इतिहास और पारिस्थितिकी के असली वाहक हैं। विकास तभी सार्थक होगा जब इन्हें “हाशिए” नहीं बल्कि “मुख्यधारा” के केंद्र में रखा जाएगा।

जड़ों से जुड़ाव और भविष्य की राह

इन चुनौतियों के बीच यह उल्लेखनीय है कि पाठा के विभिन्न गांवों में पिछले दो दशकों से समाजसेवी और पत्रकार संजय सिंह राणा ने बिना किसी संस्थागत सहायता या राजनीतिक सहारे के आदिवासी समुदायों को उनके अधिकारों, कर्तव्यों और आधुनिक समय से जुड़ने की प्रेरणा देने का काम किया है। उनका प्रयास पूरी तरह सामाजिक जिम्मेदारी और मानव–सम्मान की भावना से संचालित रहा है, जिसने कई गांवों में जागरूकता, सामूहिकता और आत्मसम्मान की नई शुरुआतों को जन्म दिया है। यह परिवर्तन धीमा सही, लेकिन पाठा की असली उम्मीद इसी प्रकार के नेतृत्व में छिपी हुई है।

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