बुंदेलखंड के चित्रकूट जिले के सुदूरवर्ती पहाड़ी, वनवासी और आदिवासी बहुल इलाकों में सरकारी स्कूलों की स्थिति लगातार गंभीर होती जा रही है। शिक्षा को सामाजिक बराबरी का माध्यम माना जाता है, लेकिन इन्हीं स्कूलों से दलित और पिछड़े वर्ग के बच्चों के साथ जातिगत भेदभाव, मानसिक प्रताड़ना और शैक्षणिक उपेक्षा की खबरें सामने आती रही हैं। दूसरी ओर, शिक्षकों की अनुपस्थिति और भारी कमी के बावजूद प्रशासनिक स्तर पर ठोस और निरंतर कार्रवाई न होना पूरे तंत्र पर सवाल खड़े करता है।
पहाड़, जंगल और मजबूरी के बीच शिक्षा
चित्रकूट का भूगोल प्रशासनिक व्यवस्था के लिए हमेशा से चुनौतीपूर्ण रहा है। पहाड़ियां, घने जंगल, सीमित सड़क संपर्क और दूर-दूर बसे मजरे–टोलों के कारण यहां सरकारी प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालय ही बच्चों के लिए शिक्षा का एकमात्र सहारा हैं। निजी स्कूलों की पहुंच इन इलाकों तक लगभग नहीं है। ऐसे में सरकारी स्कूल केवल शिक्षा का नहीं, बल्कि राज्य की उपस्थिति और सामाजिक न्याय का प्रतीक भी माने जाते हैं।
लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि कई गांवों में स्कूल भवन तो हैं, पर शिक्षक नियमित नहीं आते। कई विद्यालय ऐसे हैं जहां सप्ताह में दो या तीन दिन ही कक्षाएं लगती हैं। स्थानीय ग्रामीणों का कहना है कि बच्चे स्कूल पहुंचते हैं, लेकिन शिक्षक न मिलने पर निराश होकर वापस लौट जाते हैं।
शिक्षक अनुपस्थिति: आंकड़ों के पीछे की हकीकत
शिक्षा विभाग और विभिन्न सर्वेक्षणों के अनुसार उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में शिक्षक उपस्थिति की औसत दर 80–85 प्रतिशत के आसपास रहती है। हालांकि यह औसत आंकड़ा है। चित्रकूट जैसे दुर्गम जिलों में वास्तविक स्थिति इससे कहीं अधिक चिंताजनक बताई जाती है।
प्रदेश में हजारों ऐसे सरकारी स्कूल हैं, जहां प्राथमिक स्तर पर केवल एक शिक्षक नियुक्त है। चित्रकूट के पहाड़ी और आदिवासी इलाकों में यह स्थिति आम है। एक शिक्षक को एक साथ कई कक्षाएं, विभिन्न विषय, मिड-डे मील की निगरानी, रजिस्टर और ऑनलाइन रिपोर्टिंग जैसे कार्य संभालने पड़ते हैं। यदि वही शिक्षक किसी कारणवश अनुपस्थित हो जाए, तो पूरा विद्यालय ठप हो जाता है।
निरीक्षण और कार्रवाई: कागजों तक सीमित सख्ती
जिला शिक्षा विभाग समय-समय पर निरीक्षण और कार्रवाई की बात करता है। अनुपस्थित शिक्षकों पर नोटिस, वेतन रोकने और अनुशासनात्मक कार्रवाई की घोषणाएं भी होती हैं। कुछ मामलों में कार्रवाई हुई है, लेकिन यह अधिकतर अभियान आधारित और अस्थायी साबित होती है।
स्थानीय लोगों का आरोप है कि निरीक्षण की सूचना पहले से मिल जाती है, जिससे व्यवस्था संभाल ली जाती है। दूरस्थ पहाड़ी स्कूलों तक नियमित और औचक निरीक्षण न होने के कारण शिक्षक अनुपस्थिति पर स्थायी नियंत्रण नहीं बन पाता।
जातिगत भेदभाव: स्कूलों के भीतर छिपा सच
चित्रकूट के कई गांवों से दलित और पिछड़े वर्ग के अभिभावकों ने आरोप लगाया है कि उनके बच्चों के साथ स्कूलों में भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है। यह भेदभाव अक्सर खुले रूप में नहीं, बल्कि रोजमर्रा के व्यवहार में दिखाई देता है।
- कक्षा में पीछे या अलग बैठाना
- मिड-डे मील के समय असमान व्यवहार
- अपमानजनक शब्दों का प्रयोग
- सफाई या अन्य काम बच्चों से करवाना
- पढ़ाई में जानबूझकर उपेक्षा
अभिभावकों का कहना है कि बच्चे इन अनुभवों के कारण मानसिक रूप से टूट जाते हैं और धीरे-धीरे स्कूल जाना छोड़ देते हैं, जिससे ड्रॉपआउट की समस्या बढ़ती है।
शिकायत क्यों नहीं बनती कार्रवाई?
विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुसार इसके पीछे कई कारण हैं। पहला, शिकायत करने वालों की सामाजिक स्थिति। दलित और पिछड़े वर्ग के परिवार अक्सर दबाव और डर के कारण खुलकर शिकायत नहीं कर पाते।
दूसरा, जातिगत भेदभाव के मामलों में सबूत जुटाना कठिन होता है। तीसरा, जांच प्रक्रिया लंबी होती है, जिससे मामला कमजोर पड़ जाता है या पीड़ित बच्चा ही स्कूल छोड़ देता है।
स्थानीय समाज में बढ़ता असंतोष
ग्रामीणों और सामाजिक संगठनों का कहना है कि यदि समय रहते शिक्षक अनुपस्थिति और जातिगत भेदभाव पर कठोर और निरंतर कार्रवाई नहीं की गई, तो इसका सीधा असर बच्चों के भविष्य और सामाजिक समरसता पर पड़ेगा।
उनका मानना है कि शिक्षा केवल किताबों का ज्ञान नहीं, बल्कि सम्मान और समानता का अनुभव भी है। यदि स्कूल ही भेदभाव का स्थान बन जाए, तो शिक्षा का उद्देश्य विफल हो जाता है।
चित्रकूट के पहाड़ी और आदिवासी बहुल इलाकों में शिक्षा व्यवस्था आज एक गंभीर मोड़ पर खड़ी है। शिक्षक अनुपस्थिति और जातिगत भेदभाव की खबरें यह बताती हैं कि समस्या केवल संसाधनों की नहीं, बल्कि प्रशासनिक जवाबदेही और सामाजिक संवेदनशीलता की भी है।
जब तक नियमित निगरानी, त्वरित कार्रवाई और पीड़ितों को सुरक्षा का भरोसा नहीं मिलेगा, तब तक सरकारी स्कूल शिक्षा के नहीं, बल्कि उपेक्षा के प्रतीक बने रहेंगे।
पाठकों के सवाल (FAQ)
चित्रकूट में शिक्षक अनुपस्थिति क्यों आम है?
दुर्गम भूगोल, शिक्षकों की कमी, एकल शिक्षक विद्यालय और कमजोर निगरानी व्यवस्था इसके प्रमुख कारण हैं।
जातिगत भेदभाव की शिकायतें क्यों दब जाती हैं?
सामाजिक दबाव, सबूत की कमी और लंबी जांच प्रक्रिया के कारण कई शिकायतें कार्रवाई तक नहीं पहुंच पातीं।
इसका सबसे ज्यादा नुकसान किसे होता है?
दलित, पिछड़े और आदिवासी वर्ग के बच्चों को, जो शिक्षा से दूर होकर मजदूरी या पलायन के लिए मजबूर हो जाते हैं।
समाधान क्या हो सकता है?
नियमित निरीक्षण, शिक्षक नियुक्ति, शून्य सहनशीलता नीति और शिकायतकर्ताओं को सुरक्षा देना।






