
🔴 अंजनी कुमार त्रिपाठी
लखनऊ की इस महारैली को बसपा प्रमुख मायावती ने “लोकतांत्रिक परिवर्तन” की दिशा में निर्णायक कदम बताया। विशाल जनसमूह, नीले झंडों का सागर और “बहन जी जिंदाबाद” के नारे—सब कुछ यह संकेत दे रहे थे कि मायावती अपनी खोई हुई राजनीतिक ज़मीन को वापस पाने के लिए गंभीर प्रयास में जुट गई हैं। पर सवाल यह है कि क्या यह रैली वाकई शक्ति प्रदर्शन का प्रमाण है, या यह उस दल की संगठनिक थकान को ढकने की कोशिश है जो कभी दलित राजनीति का पर्याय मानी जाती थी?
रैली का यथार्थ : शक्ति प्रदर्शन की जमीन
रैली के आयोजन, जनसंख्या और मंचीय रणनीति के आधार पर कहा जा सकता है कि बसपा ने अपनी संगठनात्मक मशीनरी को फिर से सक्रिय किया है। मायावती ने दलित, पिछड़ा, मुस्लिम और कुछ हद तक ब्राह्मण वर्ग के सम्मिलन का संदेश देने की कोशिश की। रैली में उमड़ी भीड़ से यह जाहिर हुआ कि बसपा पूरी तरह निष्क्रिय नहीं हुई है, बल्कि उसका कोर वोट बैंक अब भी मायावती के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ा है।
हालांकि, रैली की सफलता का वास्तविक आकलन सिर्फ भीड़ के आकार से नहीं, बल्कि उस भीड़ के मतदाता व्यवहार से होगा। राजनीति में यह अक्सर देखा गया है कि भीड़ जुटाना एक बात है, उसे मतदान बूथ तक लाना दूसरी।
यूपी की राजनीति में हलचल: विपक्ष और सत्ता दोनों पर असर
मायावती की इस महारैली के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में हल्की-सी हलचल देखी गई है। भाजपा को चिंता इसलिए है कि अगर बसपा अपने दलित वोट बैंक को पुनः संगठित कर लेती है, तो कई सीटों पर वोट विभाजन की नई स्थिति बन सकती है। वहीं, सपा और कांग्रेस गठबंधन के लिए मायावती का सक्रिय होना एक चुनौती है, क्योंकि इन दोनों दलों की रणनीति दलितों और अल्पसंख्यकों को साझा मंच पर लाने की थी।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार
“मायावती की रैली ने सत्ता दल को नहीं, बल्कि विपक्षी गठबंधन को ज्यादा असहज किया है।” क्योंकि अगर बसपा थोड़ी भी मजबूत होती है, तो सपा-कांग्रेस की संभावित सीटों में सीधा नुकसान होगा। यह “तीसरी ताकत” की वापसी का संकेत है, भले सीमित ही सही।
मायावती का ‘सरकार बनाने का दावा’: जमीनी हकीकत क्या कहती है?
रैली के मंच से मायावती ने “2027 में पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने” का दावा किया। राजनीतिक दृष्टि से यह एक प्रेरक घोषणा है, लेकिन यथार्थ की दृष्टि से यह अभी बहुत कठिन लक्ष्य है। बसपा के पास न तो पहले जैसी काडर-आधारित सक्रियता बची है, न ही मैदान में जमीनी स्तर पर सेक्टर-वार संगठनात्मक ढांचा पहले जैसा मज़बूत है। कई पुराने नेता अन्य दलों में जा चुके हैं, और युवा मतदाताओं में पार्टी की पकड़ कमजोर है।
फिर भी, मायावती के इस दावे को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। उनका राजनीतिक अनुभव, संगठन की अनुशासन संस्कृति और दलित प्रतीकवाद उन्हें अब भी एक संभावित निर्णायक खिलाड़ी बनाए रखते हैं। अगर भाजपा-विरोधी वोटों में बिखराव बढ़ा, तो बसपा “किंगमेकर” की भूमिका में आ सकती है।
बुंदेलखंड में बसपा को कितना बल मिल सकता है?
बुंदेलखंड मायावती की राजनीति का भावनात्मक आधार क्षेत्र रहा है। यहां की गरीबी, पिछड़ापन, और दलित-ओबीसी जनसंख्या बसपा के पारंपरिक वोट बैंक का प्रतिनिधित्व करती है। मायावती ने रैली में बुंदेलखंड की विशेष रूप से चर्चा करते हुए कहा कि “बसपा की सरकार आने पर बुंदेलखंड को अलग विकास पैकेज मिलेगा।” इस घोषणा ने स्थानीय स्तर पर एक नई उम्मीद जगाई है।
बुंदेलखंड के झांसी, बांदा, महोबा, चित्रकूट और हमीरपुर जैसे जिलों में बसपा की अभी भी संगठनिक पकड़ आंशिक रूप से मौजूद है। रैली के बाद वहां नीले झंडों और पोस्टरों का दोबारा दिखना यह संकेत देता है कि बसपा ने भावनात्मक पुनर्सक्रियता हासिल कर ली है, भले वह राजनीतिक प्रभाव में तब्दील हो या न हो।
विश्लेषकों का कहना
“अगर मायावती अगले दो वर्षों में बुंदेलखंड और पश्चिमी यूपी के कुछ हिस्सों में 15-20 प्रतिशत वोट शेयर फिर से जुटा लेती हैं, तो बसपा प्रदेश की राजनीति में तीसरे ध्रुव के रूप में पुनः स्थापित हो सकती है।”
रैली का संदेश और मायावती की रणनीति
मायावती की रैली सिर्फ भीड़ जुटाने का प्रयास नहीं थी, बल्कि यह राजनीतिक संदेश देने का मंच थी। उनका मुख्य संदेश तीन बिंदुओं में समझा जा सकता है:
दलित आत्मसम्मान की पुनर्स्थापना
उन्होंने कहा कि आज के दौर में दलित समाज की आवाज़ कमजोर की जा रही है, बसपा उसे फिर मज़बूत करेगी।
सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ मोर्चा
उन्होंने भाजपा पर निशाना साधते हुए कहा कि धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों से सावधान रहना होगा।
विकास और कानून-व्यवस्था का मुद्दा
उन्होंने अपने शासन काल के सड़क, पार्क और कानून-व्यवस्था को आदर्श बताया—एक तरह से “मायावती राज” की याद दिलाई। इन संदेशों के माध्यम से उन्होंने पुराने समर्थक वर्ग को भावनात्मक रूप से पुनः जोड़ने की कोशिश की है।

राजनीतिक परिदृश्य में संभावित बदलाव
रैली के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में तत्काल बड़ा बदलाव तो नहीं दिखा, पर यह तय है कि मायावती ने खुद को राजनीतिक चर्चा के केंद्र में वापस ला खड़ा किया है। मीडिया में फिर से बसपा की चर्चा शुरू हुई है। भाजपा और सपा दोनों ने अपने दलित रणनीतिकारों की बैठकें की हैं। कई निष्क्रिय बसपा कार्यकर्ता दोबारा सक्रिय हो रहे हैं। यह संकेत है कि रैली का मनोवैज्ञानिक प्रभाव वास्तविक रहा। हालांकि इसे राजनीतिक पुनर्जागरण कहने में अभी वक्त लगेगा।
भविष्य की राह
मायावती के सामने अब दोहरी चुनौती है— वोट बैंक को स्थायी रूप से सक्रिय रखना और संगठन को जमीनी स्तर पर पुनर्गठित करना। अगर वह युवा दलितों, मुस्लिमों और पिछड़ों को एक साझा मंच पर लाने में सफल होती हैं, तो बसपा एक बार फिर “साइलेंट रिवोल्यूशन” का सूत्रधार बन सकती है। पर अगर यह रैली केवल प्रतीकात्मक साबित होती है, तो बसपा की वापसी का रास्ता और कठिन हो जाएगा।
मायावती की महारैली न तो पूरी तरह राजनीतिक चमत्कार थी और न ही सिर्फ दिखावा। यह उस पार्टी की राजनीतिक जीवन्तता का संकेत है, जो कई वर्षों से हाशिए पर धकेली जा चुकी थी। मायावती ने यह दिखा दिया है कि वे अब भी उत्तर प्रदेश की राजनीति की एक अनिवार्य हस्ती हैं। परंतु, सत्ता तक पहुंचने के लिए सिर्फ रैली नहीं, लगातार जनसंपर्क, सामाजिक गठजोड़ और स्थानीय संगठन की पुनर्स्थापना की आवश्यकता होगी। रैली ने मायावती को फिर सुर्खियों में ला दिया है, पर सत्ता के गलियारों तक पहुंचने का सफर अभी लंबा है।
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