
बुंदेलखंड के पठारी भूभाग से आगे बढ़ते हुए अचानक एक ऐसी दुनिया शुरू होती थी, जिसे लोग आज भी “पाठा” के नाम से जानते हैं। यह केवल एक भौगोलिक शब्द नहीं है, बल्कि सदियों तक उपेक्षा, संघर्ष, अभाव और आदिम जीवन की कहानी को समेटे हुए एक पूरा संसार है। आज जब विकास की योजनाएँ, सड़कों की रफ्तार और इंटरनेट की तरंगें हर ओर पहुँच चुकी हैं, तब पाठा के बीते समय को समझना कठिन है—वो समय जब यहाँ सभ्यता का पर्याप्त एहसास तक नहीं था और सरकार नामक संस्था बस कागज पर मौजूद थी।
पहाड़, जंगल और अलग-थलग जीवन
करीब दो–तीन दशक पहले तक पाठा में प्रवेश करना ही किसी साहसिक अभियान से कम नहीं होता था। घने जंगल, चोटियां, खाइयाँ और पहाड़ी चट्टानें एक ऐसी बंद दुनिया बनाती थीं जहाँ बाहरी व्यक्ति न तो आसानी से पहुँच सकता था और न वहाँ की जिंदगी को समझ सकता था। पठारी गांवों की दूरी किलोमीटरों में नहीं, बल्कि ऊँचाई, चढ़ाई और जोखिम में मापी जाती थी। बारिश के मौसम में रास्ते पूरी तरह कट जाते और पाठा महीनों तक दुनिया से अलग रहता।
यहाँ के कोल, उरांव, खरवार, पनिका और अन्य आदिवासी समुदाय प्रकृति के बीच ऐसे जीवन जी रहे थे जो मानो किसी प्रागैतिहासिक काल की कथा हो — मिट्टी और पत्थर के घर, पत्तों की छत, लकड़ी की आग, और भोजन का ज्यादातर स्रोत जंगल ही।
सरकार नाम की चीज़ बस सुनाई देती थी
कानून यहाँ था, पर दिखाई नहीं देता था। सरकारी योजनाओं के बड़े-बड़े ऐलान बुंदेलखंड के शहरों तक तो पहुँचते, मगर पाठा तक उनका अस्तित्व भी खो जाता। इन इलाकों में रहने वाले लोग सरकार से अपने जुड़े होने का एहसास तक नहीं कर पाते थे। वोट, पहचान पत्र, पेंशन, राशन—ये शब्द उनके लिए उतने ही अजनबी थे जितना शहर की दुनिया।
सरकारी स्कूलों के बोर्ड लगे थे, पर भवन नहीं। भवन थे तो शिक्षक नहीं। शिक्षक थे तो छात्र पहुँच नहीं पाते क्योंकि कई गांवों में स्कूल की दूरी 8–15 किलोमीटर पहाड़ चढ़कर तय करनी पड़ती। स्वास्थ्य केंद्रों के नाम पर कभी-कभार झोला छाप डॉक्टर ही पूरी चिकित्सा व्यवस्था का सहारा बन जाते। औरतों का प्रसव झोपड़ी में होता, दाइयाँ जड़ी-बूटियों पर विश्वास करतीं, और अस्पताल नाम की इमारत अधिकांश लोगों ने जीवन में कभी नहीं देखी थी।
जीवन का सबसे बड़ा भरोसा — जंगल
पाठा के लोगों के लिए जंगल दुश्मन नहीं, ईश्वर और पेट दोनों था। महुआ की शराब, साल और तेंदू के पत्ते, जंगली कंद-मूल, शहद और गोंद, लकड़ी और पत्तों का ईंधन, इन्हीं के सहारे जीवन चलता था।
बाजारों तक पहुँचना आसान नहीं था। हफ्तों की मेहनत के बाद मिलने वाले जंगल उत्पाद बदले में पैसे नहीं, बल्कि पुराने कपड़े, अनाज या नमक मात्र दिला पाते। अभाव और सीमित संसाधनों के बावजूद समुदाय और जड़ें मजबूत थीं—त्योहार, नृत्य, लोकगीत, और सामूहिक श्रम ही जीवन की धुरी थे। यह गरीबी थी, पर आत्मसम्मान खोए बिना की गरीबी।
अपराध, दस्यु और भय — पाठा की अलग पहचान
दस–बीस साल पहले का पाठा दस्यु समस्या के लिए भी चर्चाओं में था। डकैतों के गिरोह यहाँ के जंगलों और खाइयों को अपनी शरणस्थली बनाते और बाहरी लोग इस इलाके को भय और बागी संस्कृति के नाम से जानते। हालाँकि दिलचस्प बात यह थी कि डकैत आदिवासियों को शायद ही नुकसान पहुँचाते। गाँव अक्सर उनसे भयभीत नहीं, बल्कि अनलिखे नियमों के साथ सह-अस्तित्व में रहते थे।
बाहरी दुनिया अवश्य भय में थी, पर पाठा के लोगों के लिए सरकार से ज्यादा भरोसेमंद वही गिरोह होते थे — क्योंकि संकट में वे ही सहायता करते, बीमारी में दवा पहुंचाते और अन्याय होने पर न्याय तक दिला जाते। यह कहने में पीड़ा होती है कि उस समय राज्य की अनुपस्थिति ने अपराधियों को ही “विकल्प” बना दिया था।
शिक्षा — सपने का नाम और संघर्ष की कहानी
यदि कभी पाठा के किसी परिवार के बच्चे ने पढ़ने की इच्छा जताई तो यह किसी चमत्कार जैसा माना जाता था। स्कूल की दूरी, पढ़ाई का खर्च, श्रम की घरेलू आवश्यकता, लड़कियों की सुरक्षा और अस्थिर जीवन, इन सभी कारणों ने शिक्षा को लगभग नामुमकिन बना दिया।
और फिर भी, कुछ बच्चे पढ़ने निकले — नंगे पैर, पुराने कपड़ों में, कंधे पर बस्ता नहीं बल्कि कपड़े की पोटली लिए। उन बच्चों के साहस ने ही आगे चलकर पाठा के भविष्य की राह बनाई।
पानी — संघर्ष ही नहीं, जीवन-मृत्यु का सवाल
पाठा की धरती में पानी था, लेकिन इतनी गहराई में कि कुआँ खोदना भी जान पर खेलने जैसा। गर्मी में तालाब सूख जाते, औरतें कई किलोमीटर ऊपर-नीचे पहाड़ चलकर पानी लातीं। कई बच्चे, बूढ़े और गर्भवती महिलाएँ प्यास और थकान में दम तोड़ देती थीं—फिर भी आँसू बहाने को समय नहीं, क्योंकि पानी फिर भी लाना ही होता था।
बाजार और लेन-देन — समय के परे की अर्थव्यवस्था
आधुनिक अर्थव्यवस्था, बैंक, लेन-देन—पाठा में इन शब्दों का अस्तित्व नहीं था। यहाँ कमाई समय और मेहनत में मापी जाती थी, पैसों में नहीं। काम एक-दूसरे के लिए होता, और बदले में अनाज या मदद मिलती। त्योहारों में दावतें नहीं, पर सामूहिक श्रम और सामूहिक भोजन ही खुशी थी।
महिलाएँ — दर्द और दृढ़ता दोनों की प्रतिमूर्ति
पाठा की महिलाओं ने घर चलाया, बच्चे पाले, जंगल से लकड़ी-बूटियाँ जुटाईं, पानी ढोया और खेतों में काम किया और फिर भी उनके लिए आराम और अधिकार दोनों अनसुना। बाल विवाह आम बात, प्रसव जीवन-मरण का खेल, और पितृसत्ता इतनी कठोर कि कई बार औरत की हँसी तक सीमाएँ बाँध देती। लेकिन महिलाएँ टूटने वाली नहीं थीं — वे घर की रीढ़ और समाज की आत्मा थीं।
रातें — अंधेरे का नहीं, सतर्कता का समय
दो–तीन दशक पहले पाठा में रात एक संकेत थी — जानवरों का खतरा, गिरोहों की आवाजाही, बीमारों के लिए निराशा और किसी भी घटना में मदद की असंभवता। दूर-दूर तक कोई रोशनी नहीं। कई परिवारों के घरों में पहली बार लालटेन भी 1990 के दशक में पहुँची।
फिर धीरे-धीरे शुरुआत हुई बदलाव की
बीते वर्षों में सड़कें बनीं, मोबाइल आए, वन संरक्षण के साथ रोजगार के अवसर बढ़े, स्कूलों के दरवाजे खुले, और सरकारी योजनाएँ धीरे-धीरे हकीकत में बदलने लगीं। आज भी चुनौतियाँ मौजूद हैं, लेकिन अब पाठा एक पूरी तरह अकेली दुनिया नहीं।
पाठा की तीन दशक पुरानी तस्वीर हमें यह सिखाती है कि विकास सिर्फ पुल, सड़क और इमारतों से नहीं मापा जाता। उसकी असली परिभाषा तब पूरी होती है जब सबसे दूर, सबसे भूले हुए, सबसे गरीब को सरकार, समाज और सभ्यता का एहसास मिले। पाठा के संघर्ष ने यह भी साबित किया कि, सभ्यता भले देर से पहुँची, पर पाठा के लोग हर परिवर्तन के योग्य थे, क्योंकि उन्होंने कठिनाइयों के बीच भी जीवन को कभी हारने नहीं दिया।

समाचार दर्पण द्वारा संजय सिंह राणा संचालित चलो गाँव की ओर, जन जागरुकता अभियान के अंतर्गत हम पिछले हफ्ते से नियमित पठा के विविध ग्रामीण अनछुए पहलुओं को उजागर कर रहे हैं। आप अपने विचार या सुझाव हमारे कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQ)
प्रश्न 1: बुंदेलखंड का पाठा इलाका किस वजह से खास माना जाता है?
पाठा इलाका अपने दुर्गम पहाड़ी भूगोल, आदिवासी बहुल आबादी, लंबे समय तक सरकारी उपेक्षा, दस्यु इतिहास और जंगल केन्द्रित जीवन शैली की वजह से अलग पहचान रखता है। यह क्षेत्र एक समय में लगभग पूरी तरह मुख्यधारा की प्रशासनिक और विकास योजनाओं से कटा हुआ रहा।
प्रश्न 2: पाठा के लोगों की आजीविका मुख्य रूप से किस पर निर्भर थी?
पाठा के लोगों की आजीविका का बड़ा हिस्सा जंगल पर निर्भर था। महुआ, तेंदू पत्ता, जंगली कंद-मूल, शहद, गोंद और लकड़ी-पत्तों से मिलने वाला ईंधन ही उनकी आर्थिक और खाद्य सुरक्षा का प्रमुख आधार था। बाजार दूर होने के कारण लेन-देन अधिकतर वस्तु विनिमय के रूप में होता था।
प्रश्न 3: शिक्षा के क्षेत्र में पाठा के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या थी?
स्कूलों की अत्यधिक दूरी, पहाड़ी रास्ते, गरीबी, घरेलू श्रम की ज़रूरत और लड़कियों की सुरक्षा जैसी समस्याओं ने शिक्षा को बहुत मुश्किल बना दिया था। कई गांवों में बच्चों को स्कूल पहुँचने के लिए 8–15 किलोमीटर तक पैदल पहाड़ चढ़कर जाना पड़ता था, जिससे अधिकतर बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते थे।
प्रश्न 4: क्या आज पाठा की स्थिति पहले से बेहतर हुई है?
बीते वर्षों में सड़क, मोबाइल नेटवर्क, वन आधारित रोजगार, विद्यालयों की उपलब्धता और सरकारी योजनाओं की पहुँच जैसे क्षेत्रों में सुधार हुआ है, हालांकि चुनौतियाँ अभी भी बनी हुई हैं। फिर भी अब पाठा पूरी तरह से अकेला और उपेक्षित इलाका नहीं रहा, बल्कि धीरे-धीरे मुख्यधारा से जुड़ने की प्रक्रिया में है।






