
उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में भ्रष्टाचार का आलम किसी से छिपा नहीं है, लेकिन प्राइवेट स्कूलों की मान्यता के नाम पर चल रहा खेल जितना भयावह है, उतना ही चौंकाने वाला भी। “12वीं तक की मान्यता चाहिए तो करीब 5 लाख का इंतजाम करो… इसमें DIOS को 1 लाख, SDM, AE और GIC के प्रिंसिपल को 50-50 हजार, फिर इलाहाबाद (माध्यमिक शिक्षा मंडल) में 1 से डेढ़ लाख और शासन में 1 लाख।” — ये बातें कोई अफवाह नहीं बल्कि DIOS कार्यालयों में बैठे बाबुओं की जुबान से निकलने वाले रेट-लिस्ट की तरह हैं।
यूपी के ज्यादातर जिलों में 8वीं (जूनियर हाईस्कूल) और 12वीं (इंटर कॉलेज) की मान्यता के लिए यही सिस्टम चल रहा है। स्कूल संचालक मजबूरी में यह पैसा देते हैं और बाद में इसकी भरपाई बच्चों की फीस में बढ़ोतरी करके करते हैं। परिणाम—2024 में फीस 11% और 2025 में 12% तक बढ़ चुकी है, और अब नया सत्र शुरू होते ही फिर बढ़ोतरी की तैयारी है। सवाल ये है कि आखिर इसकी कीमत कब तक अभिभावक और बच्चे चुकाते रहेंगे?
🔹 प्राइवेट स्कूल फीस क्यों बढ़ा रहे? — प्रबंधकों का तर्क
अखिल भारतीय प्राइवेट स्कूल प्रबंधक एसोसिएशन के यूपी अध्यक्ष ह्रदयनारायण जायसवाल इस भ्रष्ट व्यवस्था को स्वीकार करते हुए कहते हैं—“बिना पैसा दिए मान्यता नहीं होती। शिक्षा विभाग में हर स्तर पर पैसा देना पड़ रहा है। सरकार को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए क्योंकि विद्यालय चलाना पुण्य का काम है। आज के समय में स्कूल खोलना आम आदमी के बस की बात नहीं रह गई। कम से कम 10 करोड़ की लागत लगती है। जिसने इतना निवेश किया है, वह कमाई भी करेगा। बैंक लोन चुकाना होता है, खर्च उठाने होते हैं—ये सब कहां से आएगा?”
यानी तर्क सीधा है — जितना खर्च स्कूल पर आएगा, उतना भार छात्रों और अभिभावकों की जेब से निकाला जाएगा। पर असली सवाल यह है कि क्या शिक्षा एक सेवा है या सिर्फ बिज़नेस?
🔹 शिक्षा विभाग में “मान्यता रैकेट” — SIT की तरह इन्वेस्टिगेशन
समाचार दर्पण की टीम ने 10 दिन तक सीतापुर और बाराबंकी जिलों के DIOS और बेसिक शिक्षा विभाग में इन्वेस्टिगेशन किया। एक ऐसे स्कूल की पूरी फाइल हासिल की जिसे 8वीं और 12वीं दोनों की मान्यता चाहिए।
टीम जब सीतापुर के DIOS कार्यालय पहुंची, तो DIOS बाहर कुर्सी पर बैठे मिले। भीतर संपर्क व्यक्ति सुभाष बाबू से मुलाकात हुई — वही व्यक्ति जो मान्यता की फाइलें “तेज गाड़ी” से आगे बढ़ाने का काम करता है।
पहले कागजी प्रक्रिया बताई और फिर असली बात —
| पद / स्तर | मांग की जाने वाली राशि |
| DIOS | ₹1,00,000 |
| SDM, AE, GIC के प्रिंसिपल | ₹50,000 – ₹50,000 – ₹50,000 |
| इलाहाबाद / यूपी बोर्ड कार्यालय | ₹1,00,000 – ₹1,50,000 |
| शासन | ₹1,00,000 |
| कुल खर्च | ₹4,50,000 – ₹5,00,000 |
इस पूरी रकम का कोई सरकारी रसीद नहीं होता — सब कुछ कैश में, नेटवर्क के हाथों। सिस्टम ऐसा जटिल है कि बिना “अनौपचारिक फीस” के फाइल आगे बढ़ ही नहीं सकती।
🔹 भ्रष्टाचार की कीमत कौन चुका रहा? — बच्चे और माता-पिता
जब स्कूलों को मान्यता के लिए मोटी रकम देनी पड़ती है, तो वह इसकी भरपाई फीस बढ़ाकर करते हैं।
शिक्षा विभाग का भ्रष्टाचार सीधे अभिभावकों पर टैक्स बनकर लादा जा रहा है। यह खेल हर वर्ष दोहराया जाता है — और सिस्टम देखता रह जाता है।
इस पूरी प्रक्रिया का सबसे बड़ा नुकसान गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों को होता है। शिक्षा उनका मौलिक अधिकार है, लेकिन सिस्टम ने इसे महंगा, दुरूह और व्यापारिक बना दिया है।
🔍 क्या समाधान संभव है?
- स्कूल मान्यता प्रक्रिया को पूरी तरह डिजिटल और सार्वजनिक किया जाए।
- निरीक्षण अधिकारियों की विज़िट की वीडियो रिकॉर्डिंग अनिवार्य हो।
- मान्यता की फीस सरकार निर्धारित करे और ऑनलाइन भुगतान ही स्वीकार हो।
- फीस बढ़ोतरी पर अभिभावकों की सहमति अनिवार्य हो।
- भ्रष्टाचार पकड़े जाने पर अधिकारियों की अनिवार्य सेवा समाप्ति हो।
जब तक ये सुधार लागू नहीं होंगे, तब तक शिक्षा विभाग में यह “साइलेंट लूट” जारी रहेगी। सवाल सिर्फ इतना है — क्या सरकार इसे रोकना चाहेगी?
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यूपी में प्राइवेट स्कूलों की मान्यता के लिए औसतन कितना खर्च कराया जाता है?
8वीं और 12वीं की मान्यता के लिए औसतन 4.5 से 5 लाख रुपये तक अवैध तरीके से वसूले जाते हैं।
क्या बिना पैसा दिए मान्यता मिल सकती है?
व्यवहारिक रूप से नहीं। सिस्टम इस प्रकार सेट है कि बिना “नेटवर्क पेमेंट” के फाइल आगे नहीं बढ़ती।
फीस वृद्धि का असली कारण क्या है?
मान्यता, निरीक्षण और सरकारी स्तर पर होने वाली अनौपचारिक वसूली की भरपाई अभिभावकों से की जाती है।
इस समस्या का स्थायी समाधान क्या है?
पूर्ण डिजिटल प्रक्रिया, ऑनलाइन पेमेंट, वीडियो-रिकॉर्ड निरीक्षण और भ्रष्टाचार पर कठोर दंड ही समाधान है।






