पिछले एक दशक से यदि मैं स्वयं को श्री अनूप का सहयोगी मानकर पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो सबसे पहले जो बात उभरती है, वह यह कि इनके साथ काम करना कभी सहज नहीं रहा—और यही उनकी सबसे बड़ी पूँजी रही।
आप उन लेखकों–संपादकों में से नहीं हैं जिनके साथ काम “स्मूथ” चलता है। आपके साथ काम हमेशा रुक-रुक कर, टकरा कर, लौट कर, और फिर अचानक सही जगह पर आकर ठहरता है। यही वह प्रक्रिया है, जो अंततः पाठक तक पहुँचने वाली रचना को साधारण से अलग बनाती है।
मैंने आपको कभी केवल “कंटेंट निर्माता” की तरह नहीं देखा। आपने स्वयं को भी कभी उस खांचे में नहीं रखा।
आपकी लेखकीय पहचान—जो राष्ट्रीय हिंदी पत्र-पत्रिकाओं जैसे सरस सलिल, सरिता, मुक्ता जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में नियमित लेखन से बनी—असल में एक विचारशील संपादक की पहचान रही है, जो लेखन से पहले भी सोचता है और लेखन के बाद भी बेचैन रहता है।
आपकी संपादन-छवि : “नहीं” कहने का साहस
यदि पिछले एक दशक का कोई एक सूत्र ढूँढना हो, तो वह यही है कि आपने कभी आसानी से ‘हाँ’ नहीं कहा। यह गुण बाहर से देखने पर कठोर, कभी-कभी जिद्दी भी लगता है, लेकिन भीतर से यह गहरी जिम्मेदारी का संकेत है।
भारत माता की चुप वेदना, टूटते परिवार और भटकती पीढ़ियाँ
✍️ अनिल अनूप
आपके लिए लेख की कसौटी यह नहीं रही कि वह भाषा में सुंदर है या नहीं, तर्क में व्यवस्थित है या नहीं या विषय में प्रासंगिक है या नहीं।
आपके लिए असली कसौटी यह रही है कि—“क्या यह लेख पढ़ने के बाद भी भीतर कुछ छोड़ जाता है?”
यही कारण है कि आपने सहयोगियों से, सह-लेखकों से और कभी-कभी स्वयं से भी बार-बार कहा—
“अभी नहीं… कुछ बाकी है।”
यह संपादक की वह छवि है, जो आज दुर्लभ हो चली है— जहाँ संपादक समय बचाने वाला नहीं, बल्कि अर्थ खोजने वाला होता है।
आपकी लेखकीय प्रवृत्ति : सूचना से आगे की यात्रा
एक लेखक के रूप में आपकी सबसे स्पष्ट प्रवृत्ति यह रही है कि आप सूचना पर रुकते नहीं। आपके लिए तथ्य केवल प्रवेश-द्वार हैं; लक्ष्य कभी नहीं।
आप जिन विषयों पर लिखते हैं—चाहे वे सामाजिक हों, राजनीतिक हों या सांस्कृतिक—उनमें एक बात समान रहती है:
आप घटना से ज़्यादा व्यवस्था को देखना चाहते हैं। इसी कारण आपके लेख अक्सर यह नहीं पूछते कि, “क्या हुआ?” बल्कि यह पूछते हैं— “यह हुआ क्यों?” और उससे भी आगे— “इसे होने दिया क्यों गया?”
यह प्रवृत्ति आपको सामान्य समाचार लेखन से अलग करती है और आपको समीक्षात्मक–दस्तावेज़ी लेखन की परंपरा में खड़ा करती है।
सोच और प्रवाह : धीमा लेकिन गहरा
आपके लेखन और संपादन की एक विशेषता यह भी रही है कि आप तेज़ नहीं चलते। आज के डिजिटल युग में, जहाँ “पहले छापो” की होड़ है, वहाँ आपका रुकना—सोचना और फिर लिखना कई बार अप्रासंगिक भी ठहराया जाता है।
लेकिन पिछले एक दशक में मैंने यह बार-बार देखा कि आपकी यही धीमी चाल लेख को दीर्घायु बनाती है।
हालाँकि, यहीं एक दोष भी दिखाई देता है— कभी-कभी यह ठहराव अत्यधिक आत्म-संशय में बदल जाता है।
पाठक-संतुष्टि : शोर नहीं, भरोसा
आपके लेखों की पाठक-संतुष्टि को यदि एक वाक्य में कहना हो, तो वह यह होगा— आपके पाठक शोर नहीं करते, लेकिन लौटते ज़रूर हैं।
यह उस तरह की संतुष्टि है, जो लाइक्स से नहीं, बल्कि विश्वास से मापी जाती है।
कमियाँ : जिन्हें आप जानते भी हैं, और जानते नहीं भी
ईमानदारी से कहूँ, तो आपकी सबसे बड़ी कमी वही है, जो आपकी सबसे बड़ी ताक़त भी है— असंतोष।
दूसरी कमी यह कि आप अपनी कसक को शब्द देने में देर कर देते हैं।
साढ़े चार दशक की पत्रकारिता : अनुभव का भार नहीं, दृष्टि का आधार
आपके साढ़े चार दशकों के पत्रकारिता अनुभव में सबसे सराहनीय यह है कि वह भार नहीं बना।
आपने अनुभव को हथियार नहीं, आधार बनाया।
अंतिम सहयोगी टिप्पणी
अनिल अनूप उस दुर्लभ परंपरा के लेखक–संपादक हैं, जो लेख को प्रकाशित करने से पहले स्वयं से पूछते हैं—
“क्या यह मेरी अंतरात्मा के सामने टिक पाएगा?”
❓ क्या अनिल अनूप का लेखन त्वरित लोकप्रियता पर केंद्रित है?
नहीं, उनका लेखन दीर्घकालिक पाठक-विश्वास और वैचारिक प्रभाव पर आधारित है।
❓ क्या उनकी संपादन शैली कठोर कही जा सकती है?
बाहरी रूप से हाँ, लेकिन भीतर से यह गहरी जिम्मेदारी और ईमानदारी की उपज है।
❓ पाठकों को उनके लेख क्यों सहेजने योग्य लगते हैं?
क्योंकि वे सूचना नहीं, संदर्भ और दृष्टि प्रदान करते हैं।