यह लेख किसी देश से शिकायत नहीं है, न किसी पीढ़ी पर आरोप। यह उस दर्द की भाषा है, जो आज घरों की दीवारों के भीतर पल रहा है, रिश्तों की चुप्पी में दबा है और नई पीढ़ी की आँखों में सवाल बनकर ठहरा है। “भारत, तू बाप क्यों नहीं बना…” कोई नारा नहीं, बल्कि एक रोते हुए मन का वाक्य है—जिसमें भारत माता की पीड़ा भी है और उनकी संतानों की भटकन भी। यह लेख आधुनिकता बनाम परंपरा की बहस नहीं करता, बल्कि उस खाली जगह को महसूस कराता है जहाँ संवाद, संवेदना और मार्गदर्शन होना चाहिए था। यदि आप इसे पढ़ते हुए असहज हों, ठहर जाएँ या भीतर कुछ टूटता महसूस करें—तो समझिए, यही इस लेख का उद्देश्य है।
भारत, तू बाप क्यों नहीं बना…
भारत, तू पिता क्यों नहीं बन पाया?
यह सवाल किसी मंच से नहीं उठाया गया। न किसी बहस में। यह न तो किसी अख़बार की सुर्ख़ी है और न किसी नारे का हिस्सा। यह सवाल एक लेखक की आँखों से टपके आँसू के साथ गिरा है। ऐसा सवाल जो बोलते हुए नहीं, टूटते हुए पूछा गया। ऐसा वाक्य, जो क्रोध में नहीं, थकान में जन्म लेता है।
पिता होना क्या है?
पिता होना केवल जन्म देने का नाम नहीं होता। पिता होना वह क्षमता है, जिसमें कोई समाज अपने लोगों को सिर्फ़ पैदा नहीं करता, बल्कि उन्हें थामता है। डर के समय ढाल बनता है। गलती पर डाँटता भी है और गिरने पर उठाता भी है। पिता होना एक जिम्मेदारी है—ऐसी जिम्मेदारी जिसमें सत्ता नहीं, संवेदना प्रधान होती है।
भारत ने जन्म तो बहुतों को दिया, पर क्या उसने पिता बनने का साहस किया?
घर हैं, पर छाया नहीं
आज का भारत एक ऐसा घर लगता है, जिसमें बच्चे हैं, कमाने वाले हैं, नियम हैं, पर पिता की छाया नहीं है। घर चलता है, पर संवाद नहीं है। छत है, पर सुरक्षा नहीं। नाम है, पर अपनापन नहीं।
हमारे समाज में रिश्ते आज भी शब्दों में बड़े हैं, लेकिन व्यवहार में सिकुड़ गए हैं। परिवार अब भी सबसे पवित्र इकाई कहलाता है, लेकिन उसी परिवार के भीतर सबसे अधिक चुप्पी है। वही चुप्पी जो धीरे-धीरे दीवार बन जाती है। वही दीवार, जिसके एक ओर माता-पिता हैं और दूसरी ओर बच्चे—दोनों एक-दूसरे को देख तो रहे हैं, पर सुन नहीं पा रहे।
अगर भारत पिता बन जाता तो…
और यह सवाल भी टलता नहीं— भारत, तू बाप बन भी जाता तो…? तो शायद घर केवल छत और खर्च की व्यवस्था भर नहीं होते। वे ऐसी जगह होते जहाँ बात रखने पर पहले सुना जाता, और बाद में समझाया जाता। जहाँ गलती छुपाने की आदत नहीं बनती, क्योंकि स्वीकार करने पर अपमान नहीं होता। तो शायद पढ़ाई सिर्फ़ अंक जुटाने की दौड़ नहीं होती। बच्चों से यह भी पूछा जाता कि वे किस दबाव में हैं, किस बात से डरते हैं, और किस मोड़ पर उन्हें सहारे की ज़रूरत है।
तो शायद परिवारों में “लोग क्या कहेंगे” सबसे ऊँची अदालत न बनता। बेटियों की हँसी और बेटों की उलझन दोनों को बराबर गंभीरता से लिया जाता। तो शायद आधुनिकता और परंपरा एक-दूसरे के विरोध में खड़ी न होतीं। नई पीढ़ी को आज़ादी मिलती, पर उसके साथ ज़िम्मेदारी भी सिखाई जाती— डराकर नहीं, समझाकर।
तो शायद मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया समस्याओं की जड़ नहीं माने जाते, बल्कि यह समझने की कोशिश होतीकि बच्चे वहाँ क्या ढूँढ रहे हैं— ध्यान, पहचान या अपनापन।
तो शायद पिता शब्द केवल आदेश देने वाले व्यक्ति तक सीमित न रहता। वह ऐसा भरोसा होता जिसके रहते बच्चे बाहर की दुनिया से थोड़ा कम डरते। और भारत माता केवल उत्सवों और नारों तक सिमट कर न रह जातीं। वे घरों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में मौजूद होतीं— संवाद में, सहनशीलता में, और जिम्मेदारी की साझा समझ में।
अगर ऐसा होता, तो यह लेख भी शायद न लिखा जाता। क्योंकि तब पीढ़ियों के बीच इतनी दूरी न होती कि उसे शब्दों से पाटना पड़े।
यदि इस लेख ने आपको कहीं ठहरने पर मजबूर किया हो, भीतर कोई सवाल छोड़ा हो या कोई अनुभव याद दिलाया हो—तो कृपया नीचे कमेंट बॉक्स में अपने विचार साझा करें। शायद संवाद से वही दूरी थोड़ी कम हो सके, जिसकी पीड़ा यह लेख कहता है।







कहा जाता है कि भारत एक पुरुष प्रधान देश है फिर भी भारत माता के नाम से जाना जाता है, मतलब पुरुष हर जगह होते हुए भी खुद को आगे नही करता बल्कि नारी को प्रधानता देता है। यही है पुरुष का पुरुषार्थ।
बहुत ही सत्य एवं सटीक विवेचन किया है।लेखक ने समाज में गहराई से विश्लेषण करने के बाद अपने अनुभव को जोड़कर सारगर्भित, चिंतनीय व मन में विचार उत्पन्न करने वाला लेख लिखा है। वर्तमान में पारिवारिक जीवन सुखद व सुखमय बनाने के लिए हमें इस तरह से जागरूक करना ही होगा।लेखक महोदय को बारंबार प्रणाम व बहुत बहुत साधुवाद