
उत्तर प्रदेश की राजनीति में कुछ नाम ऐसे हैं, जिनके साथ ताकत, टकराव और तारीखें जुड़ी रहती हैं।
धनंजय सिंह और
अभय सिंह भी ऐसे ही दो नाम हैं।
आज दोनों के बीच जुबानी जंग, आरोपों की बौछार और पुराने जख़्मों की यादें फिर से ताज़ा हैं।
लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि 90 के दशक में ये दोनों एक-दूसरे के लिए जान देने को तैयार रहने वाले दोस्त थे।
इस कहानी की जड़ें छात्र राजनीति में हैं—उस दौर में, जब विश्वविद्यालय केवल पढ़ाई के केंद्र नहीं थे,
बल्कि सत्ता की नर्सरी भी हुआ करते थे।
Lucknow University की गलियों में साथ चलने वाले ये दो चेहरे,
आख़िर कैसे एक-दूसरे के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी बन गए—इसी पड़ताल की यह रिपोर्ट है।
कहानी की शुरुआत 1991 के आसपास होती है। जौनपुर के
Tilakdhari Singh College (टीडी कॉलेज) में
धनंजय सिंह, अभय सिंह और अरुण उपाध्याय—तीन दोस्त एक ही सपने के साथ पढ़ रहे थे: राजनीति।
धनंजय सिंह खुद बताते हैं कि उनका सपना सेना में जाने का था, लेकिन किस्मत उन्हें राजनीति के अखाड़े में खींच लाई।
लखनऊ आने के बाद छात्र राजनीति में प्रवेश हुआ। यहीं पहली बार नेतृत्व को लेकर टकराव सामने आया।
अभय सिंह अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहते थे, जबकि धनंजय सिंह ने किसी और नाम का समर्थन कर दिया और
अभय को उपाध्यक्ष पद की पेशकश की। चुनाव में अरुण उपाध्याय की हार ने चुपचाप एक दरार पैदा कर दी।
छात्र राजनीति की सीमाएं जल्दी ही टूट गईं और तीनों दोस्त बाहुबल की उस दुनिया में दाखिल हो गए,
जहां सत्ता से ज़्यादा असर डर और नेटवर्क का होता है।
धनंजय सिंह के अनुसार, इसी दौर में अभय सिंह का संपर्क अंडरवर्ल्ड से जुड़ गया,
खासकर बबलू श्रीवास्तव से।
रेलवे और सरकारी निर्माण के ठेकों ने इस टकराव को और तीखा कर दिया।
पैसा, रसूख और वर्चस्व—तीनों की जंग खुलकर सामने थी।
साल 1996 में यूनिवर्सिटी परिसर के भीतर एक हत्या हुई।
मुकदमा दोनों पर दर्ज हुआ। अभय सिंह जेल चले गए, जबकि धनंजय सिंह फरार हो गए।
फरारी के दौरान एक सनसनीख़ेज़ मोड़ तब आया, जब अख़बारों में धनंजय सिंह को एनकाउंटर में मरा हुआ तक घोषित कर दिया गया।
कुछ समय बाद जब वे ज़िंदा सामने आए, तो यह घटना अपने आप में किंवदंती बन गई।
उधर, जेल में रहते हुए अभय सिंह का नेटवर्क और मज़बूत होता गया।
उन पर मुख्तार अंसारी के करीबी होने के आरोप लगे।
दोस्ती को दुश्मनी में बदलने वाली सबसे बड़ी घटना थी संतोष सिंह की हत्या।
अभय सिंह का आरोप है कि उनके गांव के युवक को धनंजय सिंह ने फोन कर बुलवाया
और पैसों के लेनदेन में उसकी जान चली गई।
अभय का दावा है कि धनंजय ने उनके नाम और रिश्तों को बदनाम किया।
यहीं से यह रिश्ता केवल प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि खुली अदावत बन गया।
राजनीति के पहिए तेज़ी से घूमे। धनंजय सिंह विधायक और फिर सांसद बने।
4 अक्टूबर 2002 को वाराणसी के
नदेसर इलाके में उनके काफिले पर AK-47 से हमला हुआ।
धनंजय बाल-बाल बचे और सीधे अभय सिंह पर आरोप लगाए।
मायावती शासनकाल में दोनों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
2012 में मुलायम सिंह यादव ने क्षत्रिय नेताओं को साधा,
तो अभय सिंह विधायक बने, जबकि धनंजय पहले से सियासत में स्थापित थे।
2023-24 के राज्यसभा चुनाव में अभय सिंह की क्रॉस वोटिंग ने सियासी भूचाल ला दिया।
वहीं धनंजय सिंह का नाम हाल के दिनों में कफ सिरप तस्करी से जुड़े मामलों में चर्चा में रहा।
दोनों अब एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का कोई मौका नहीं छोड़ते—कभी ‘गुड्डू मुस्लिम’ की दोस्ती का आरोप,
तो कभी पुराने मारपीट के किस्से।
यही है वह कहानी, जहां दोस्ती की आग अब दुश्मनी की लपटों में बदल चुकी है।
दोनों की दोस्ती जौनपुर के टीडी कॉलेज और फिर लखनऊ यूनिवर्सिटी की छात्र राजनीति से शुरू हुई।
ठेकों, वर्चस्व और संतोष सिंह हत्याकांड ने दोस्ती को खुली दुश्मनी में बदल दिया।
मौजूदा राजनीतिक बयानबाज़ी और आरोपों को देखते हुए फिलहाल इसकी संभावना कम दिखती है।
