सपने पहाड़ चढ़ते हैं, अवसर घाटी में रुक जाते हैं

जम्मू कश्मीर के कंडी क्षेत्र में पहाड़ी ढलानों पर खेती करते किसान, पशुपालन में लगी महिलाएं, सीमांत जीवन, वर्षा आधारित कृषि, ग्रामीण संघर्ष, कंडी क्षेत्र की ग्रामीण जिंदगी



IMG_COM_202512190117579550
previous arrow
next arrow

कंडी : जहां खेती मौसम नहीं, भाग्य तय करता है

✍ लेखक :
अनिल अनूप

जम्मू–कश्मीर के पहाड़ी–पाद (फुटहिल) इलाके में “कंडी” कोई नक्शे पर खींची हुई सख्त रेखा नहीं, बल्कि एक जीता-जागता भूगोल है—जहां मिट्टी पतली है, ढलान तेज़ है, बारिश समय पर नहीं आती, और पानी आता भी है तो ठहरता नहीं। यहां के किसान के लिए खेती सिर्फ़ पेशा नहीं; यह मौसम से रोज़ की बातचीत है—कभी मनुहार, कभी मनौती, कभी मन की चोट। शहरों में बारिश “मौसम” है, कंडी में बारिश “भाग्य” बन जाती है।

कंडी क्षेत्र के लोगों का रहन-सहन दिखने में अत्यंत सादा है, लेकिन इस सादगी के भीतर संघर्ष और आत्मनिर्भरता की एक गहरी परत छिपी है। यहां का घर अक्सर पहाड़ी ढलान के अनुसार बना होता है—पत्थर, मिट्टी और सीमेंट का मिश्रण, जहां सौंदर्य से ज्यादा टिकाऊपन को महत्व दिया जाता है।

इसे भी पढें  आजम खान, दहशत का दूसरा नाम : रामपुर में खौफ का साया क्यों?

महिलाएं केवल गृहस्थी तक सीमित नहीं हैं; वे खेत, पशुपालन, चारा संग्रह, पानी ढोने और कई बार दिहाड़ी मजदूरी तक में बराबर की भागीदार हैं। जीवन की गति धीमी दिखती है, लेकिन श्रम का बोझ लगातार और थकाने वाला होता है।

वर्षा आधारित खेती और असिंचित जीवन

कंडी का बड़ा हिस्सा वर्षा-आधारित कृषि पर निर्भर है। सांबा जिले जैसे कंडी-सदृश क्षेत्रों में शुद्ध खेती क्षेत्र का लगभग 64 प्रतिशत भाग असिंचित है। यह आंकड़ा किसी रिपोर्ट की पंक्ति नहीं, बल्कि किसान के जीवन का नक्शा है—जहां हर फसल का भविष्य बादलों की चाल से जुड़ा होता है।

छोटी जोत : बड़ा संघर्ष

जम्मू–कश्मीर में औसत परिचालन जोत लगभग 0.62 हेक्टेयर है। इसका अर्थ है—खेती कई छोटे टुकड़ों में बंटी हुई। इससे लागत बढ़ती है, लाभ घटता है और बाजार तक पहुंच कमजोर पड़ जाती है। सीमांत जोतों की बहुलता कंडी में जोखिम को और तीखा बना देती है।

पानी का संकट : आसमान और ज़मीन के बीच फंसा किसान

कंडी में पानी की कहानी दो हिस्सों में चलती है—ऊपर आसमान और नीचे ज़मीन। भूजल स्तर में गिरावट, हैंडपंप का सूखना और ट्यूबवेल का बढ़ता खर्च किसान की रोज़मर्रा की चिंता बन चुका है। पानी की कमी खेती ही नहीं, पशुपालन और घरेलू जीवन को भी प्रभावित करती है।

इसे भी पढें  इतने जूते मारूंगा कि गंजे हो जाओगे ; SDM और लेखपाल विवाद ने मचाया बवाल — बंधक बनाकर पिटाई का आरोप, जांच के आदेश जारी

सरकारी योजनाएं : कागज़ पर पूरी, ज़मीन पर अधूरी

राशन, आवास, मनरेगा, किसान सम्मान निधि—योजनाएं मौजूद हैं, लेकिन उनका स्थिर क्रियान्वयन नहीं। पहाड़ी इलाके में निर्माण लागत अधिक है, स्वास्थ्य सुविधाएं दूर हैं और आपातकाल में सड़क ही सबसे बड़ा सवाल बन जाती है।

युवा, शिक्षा और पलायन

कंडी के युवाओं के सपने पहाड़ चढ़ते हैं, लेकिन अवसर घाटी में रुक जाते हैं। स्थानीय रोजगार सीमित है, उच्च शिक्षा दूर है और नतीजतन पलायन जीवन का स्थायी विकल्प बनता जा रहा है।

राजनीति और प्रशासन : भरोसे से ज्यादा व्यवहार

कंडी किसान राजनीति को सुनता है, लेकिन उस पर टिकता नहीं। वादे आते हैं, उद्घाटन होते हैं, पर खेत तक पहुंचने में देरी होती है। प्रशासनिक प्रक्रियाएं किसान के समय और भाषा से मेल नहीं खातीं।

उम्मीद की सिंचाई : शाहपुर कंडी जैसी परियोजनाएं

शाहपुर कंडी डैम जैसी परियोजनाएं भविष्य की उम्मीद जगाती हैं। यदि पानी अंतिम छोर तक पहुंचे, तो कंडी की खेती का मिजाज बदल सकता है—लेकिन सवाल वही है: लाभ कब दिखेगा?

इसे भी पढें  कर लें जल्दी ये काम नहीं तो वोटर लिस्ट से हो जाएंगे बेनाम उत्तर प्रदेश में मतदाता सूची अद्यतन अभियान तेज़ी पर

निष्कर्ष : सहानुभूति नहीं, स्थिरता चाहिए

कंडी किसान की दुर्दशा का समाधान सहानुभूति नहीं, स्थिरता है—पानी की, नीति की, बाजार की और प्रशासनिक भरोसे की। जब यह स्थिरता बनेगी, तभी कंडी की खेती सम्मान की कहानी बनेगी।

कंडी क्षेत्र से जुड़े महत्वपूर्ण सवाल

कंडी क्षेत्र में खेती सबसे कठिन क्यों है?

क्योंकि यहां खेती वर्षा पर निर्भर है, मिट्टी पतली है और सिंचाई सुविधाएं सीमित हैं।

कंडी में किसानों का मुख्य संकट क्या है?

पानी की कमी, छोटी जोत, अस्थिर आय और बाजार तक कमजोर पहुंच।

क्या कंडी में सुधार संभव है?

हां, सूक्ष्म सिंचाई, जल संरक्षण और स्थानीय ज्ञान को नीति से जोड़कर।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Language »
Scroll to Top