
अनिल अनूप की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश में एक बार फिर ऐसा आदेश सामने आया है, जिसने शिक्षा व्यवस्था की प्राथमिकताओं पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस आदेश के मुताबिक, सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों को अब आवारा कुत्तों की गणना जैसे कार्यों में भी लगाया जा रहा है। सवाल यह नहीं है कि आवारा पशुओं की संख्या जानना जरूरी है या नहीं—सवाल यह है कि क्या हर प्रशासनिक, सर्वेक्षणात्मक और आपात जिम्मेदारी के लिए शिक्षक ही सबसे सस्ता, आज्ञाकारी और “हर काम का आदमी” है?
यह आदेश महज एक प्रशासनिक निर्देश नहीं, बल्कि वर्षों से चली आ रही उस मानसिकता का प्रतीक है, जिसमें शिक्षक को शिक्षण से अधिक सरकारी श्रमशक्ति माना जाता है।
शिक्षा से भटकती व्यवस्था की तस्वीर
सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाला शिक्षक आज सिर्फ शिक्षक नहीं रह गया है। वह कभी मतदाता सूची सुधारता है, कभी जनगणना करता है, कभी टीकाकरण अभियान में खड़ा दिखता है, कभी शराबबंदी का संदेश बांटता है, तो कभी स्वच्छता अभियान का ब्रांड एंबेसडर बना दिया जाता है। अब इसमें कुत्तों की गिनती भी जुड़ गई है।
यानी बच्चों को पढ़ाने का मूल काम—
पाठ योजना बनाना, विद्यार्थियों की सीखने की कठिनाइयों को समझना, कमजोर छात्रों पर व्यक्तिगत ध्यान देना, परीक्षा मूल्यांकन और शैक्षणिक गुणवत्ता सुधार।
इन सबके लिए शिक्षक के पास न समय बचता है, न ऊर्जा।
“काम तो सरकारी है” — यही तर्क सबसे खतरनाक है
अक्सर जब इस तरह के आदेशों पर सवाल उठते हैं, तो जवाब मिलता है—
“काम तो सरकारी है, इसमें क्या आपत्ति?”
यही सोच सबसे बड़ी समस्या है। अगर “सरकारी कर्मचारी” होने का मतलब यह है कि जो भी काम प्रशासन को सूझे, वही शिक्षक करेगा, तो फिर, अलग-अलग विभाग क्यों हैं? नगर निकाय, पशुपालन विभाग, शहरी विकास प्राधिकरण किसलिए हैं? संविदा कर्मचारियों, सर्वे एजेंसियों, फील्ड स्टाफ की आवश्यकता क्यों मानी जाती है?
शिक्षक को हर बार इसलिए चुना जाता है क्योंकि, वह पढ़ा-लिखा है, आदेश मानने को मजबूर है, विरोध करेगा तो “अनुशासनहीन” कहलाएगा! यह सुविधा नहीं, संस्थागत शोषण है।
कुत्ते गिनने से क्या शिक्षा सुधरेगी?
मान लीजिए शिक्षक ईमानदारी से कुत्तों की गिनती भी कर लें। पर इससे होने वाला नुकसान किसका होगा?
सबसे पहले नुकसान छात्रों का, कक्षाएं बाधित होंगी, पढ़ाई का समय घटेगा, पहले से पिछड़े सरकारी स्कूल और पिछड़ेंगे।
दूसरा नुकसान खुद शिक्षकों का। मानसिक थकान, पेशेवर सम्मान में गिरावट, पढ़ाने के प्रति हताशा।
तीसरा नुकसान व्यवस्था का, शिक्षा के स्तर पर दीर्घकालिक गिरावट, सरकारी स्कूलों से भरोसा उठना, निजी स्कूलों की ओर पलायन।
यह सब मिलकर एक ऐसी चक्रव्यूह रचना करते हैं, जिसमें शिक्षा हार जाती है और अव्यवस्था जीत जाती है।
क्या शिक्षक “डाटा कलेक्टर” हैं?
आज शासन को हर चीज का डाटा चाहिए— कितने बच्चे स्कूल आते हैं? कितने शौचालय हैं? कितने पेड़ लगे? कितने कुत्ते घूम रहे हैं? और हर डाटा के लिए सबसे पहले शिक्षक को ही याद किया जाता है।
क्यों?
क्योंकि शिक्षक के पास स्मार्टफोन है। क्योंकि शिक्षक ऑनलाइन पोर्टल भर सकता है। क्योंकि शिक्षक से सवाल करना आसान है।
पर कोई यह नहीं पूछता कि
क्या शिक्षक को “डाटा एंट्री ऑपरेटर” बनने के लिए नियुक्त किया गया था?
संवेदनशीलता की कमी: मैदान और खतरे
आवारा कुत्तों की गिनती कोई साधारण काम नहीं। आक्रामक कुत्तों का खतरा, काटने की घटनाएं, संक्रमण का जोखिम, क्या इसके लिए शिक्षकों को, प्रशिक्षण दिया गया? सुरक्षा उपकरण मिले? बीमा या जोखिम भत्ता तय हुआ?
जवाब साफ है— नहीं।
यानी शिक्षक को न केवल गैर-शैक्षणिक काम सौंपा जा रहा है, बल्कि जोखिम में भी डाला जा रहा है, वो भी बिना किसी जिम्मेदारी तय किए।
यह पहली बार नहीं है
यह आदेश अचानक नहीं आया। यह उसी सिलसिले की अगली कड़ी है— कभी शिक्षक झाड़ू लगाते दिखते हैं, कभी मध्याह्न भोजन का हिसाब संभालते, कभी पंचायत चुनाव में ड्यूटी पर, कभी कोविड सर्वे में घर-घर घूमते।
हर बार कहा जाता है— “अस्थायी है” लेकिन अस्थायी बोझ स्थायी बन चुका है।
सवाल कुत्तों की गिनती का नहीं, प्राथमिकता का है
यह बहस आवारा कुत्तों की नहीं है। यह बहस इस बात की है कि,
हम शिक्षा को किस पायदान पर रखते हैं?
अगर शिक्षक कुत्ते गिनेंगे, तो बच्चे क्या गिनेंगे? खोए हुए सपने? टूटा हुआ भरोसा?
उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश को यह समझना होगा कि जिस व्यवस्था में शिक्षक भटकता है, वहाँ शिक्षा भी भटकती है।
और जब शिक्षा भटकती है, तो भविष्य रास्ता खो देता है।
सवाल–जवाब
क्या शिक्षकों से गैर-शैक्षणिक कार्य कराना कानूनी है?
आपात परिस्थितियों में सीमित समय के लिए संभव है, लेकिन इसे नियमित अभ्यास बनाना शिक्षा के अधिकार और गुणवत्ता दोनों पर असर डालता है।
क्या इससे सरकारी स्कूलों की पढ़ाई प्रभावित होती है?
हाँ, कक्षा समय घटता है, शिक्षक मानसिक रूप से थकते हैं और छात्रों की सीखने की प्रक्रिया बाधित होती है।
इस समस्या का व्यावहारिक समाधान क्या है?
गैर-शैक्षणिक कार्यों के लिए अलग फील्ड स्टाफ, स्पष्ट समय सीमा और शिक्षकों को केवल शिक्षा कार्य तक सीमित रखना।







So sad
स्त्री की व्यवस्था से शिक्षा का भट्ठा बैठ जाएगा। शिक्षा का स्थगित रखा बौद्धिक क्षमता कम होगी अनुशासनहीनता और दुराचार बढ़ेगा जिसका खामियाजा भाभी पीढ़ी को उठाना पड़ेगा।
दूसरी तरफ शिक्षकों का मनोबल गिरेगा।
वे अपना अनुभव और ज्ञान को सही दिशा नहीं दे पाएंगे। इस संदर्भ में आपका आलेख बहुत ही संदेशवाहक सिद्ध होगा
शाही फरमान द्वारा शिक्षक को दिग भ्रमित करना आने वाली पीढ़ी के लिए बहुत बड़ी जोखिम का काम है। शिक्षक की देश का निर्माता होता है। उसको अपने पैतृक धंधे से हटकर अन्य कामों में लगाना केवल शिक्षा और बौद्धिक स्तर को गिराना ही नहीं बल्कि अनुशासन और दुराचार को बढ़ावा देने जैसी बात है, क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में शिक्षक को जो करना है वह नहीं कर पाएगा। आपका आलेख सरकार की आंखें खोलने का काम करेगा।