कोमाराम भीम –आसिफाबाद में पंचायत चुनाव
निर्दलीय उम्मीदवार “दादा गंगाराम” की जीत और आदिवासी अंचल की राजनीति की असली तस्वीर

सदानंद इंगिली की ग्राउंड रिपोर्ट
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तेलंगाना के उत्तर–पूर्वी सिरे पर स्थित कोमाराम भीम–आसिफाबाद जिला प्रशासनिक नक्शे पर भले ही नया नाम हो, लेकिन सामाजिक–राजनीतिक दृष्टि से यह इलाका दशकों पुराने अनुभवों, संघर्षों और लोकतांत्रिक प्रयोगों का साक्षी रहा है। घने जंगलों, पहाड़ियों, कच्चे रास्तों और आदिवासी बहुल बस्तियों के बीच बसे इस जिले में पंचायत चुनाव हमेशा से “बड़े राजनीतिक नारों” से ज़्यादा “छोटे लेकिन ठोस कामों” का इम्तिहान रहे हैं।

हालिया पंचायत चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवार दादा गंगाराम की जीत ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि यहां लोकतंत्र की असली धड़कन राजनीतिक दलों के दफ़्तरों में नहीं, बल्कि गांव की चौपाल, खेत की मेड़ और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सुनाई देती है।

चुनावी माहौल: शोर कम, संकेत ज़्यादा

चुनाव प्रचार के दौरान जिले के कई गांवों में न तो बड़े मंच दिखे, न ही भारी संख्या में झंडे और बैनर। कहीं–कहीं दलों के पोस्टर ज़रूर दिखे, लेकिन उनके सामने निर्दलीय उम्मीदवारों की सादगी भरी मौजूदगी कहीं ज़्यादा असरदार रही।

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दादा गंगाराम का प्रचार किसी तय कार्यक्रम में नहीं बंधा था। वे कभी सुबह किसी बुज़ुर्ग के घर राशन कार्ड की समस्या सुनते दिखे, तो कभी शाम को खेत से लौटते मज़दूरों के साथ बैठकर बिजली और सड़क की बात करते नज़र आए। यही उनकी चुनावी रणनीति थी—बात कम, साथ ज़्यादा

कौन हैं दादा गंगाराम?

दादा गंगाराम किसी राजनीतिक परिवार से नहीं आते। वे न तो पहले कभी किसी बड़े पद पर रहे और न ही किसी दल के भीतर उनकी कोई औपचारिक हैसियत रही। लेकिन गांव–गांव में उनका नाम एक ऐसे व्यक्ति के रूप में लिया जाता है, जो ज़रूरत के वक्त “फोन नहीं, ख़ुद पहुंचता है।”

ग्रामीण बताते हैं कि पिछले कई वर्षों में वे बिना किसी पद के ही बुज़ुर्गों की पेंशन रुकने पर दफ़्तरों के चक्कर काटते रहे, राशन कार्ड और आधार से जुड़ी समस्याओं में लोगों को समझाते रहे, आदिवासी भूमि और वनाधिकार पट्टों के मामलों में पीड़ित परिवारों के साथ खड़े रहे और बरसात में टूटी सड़कों व बहते नालों को लेकर प्रशासन तक आवाज़ पहुंचाते रहे।

आदिवासी समाज और पंचायत राजनीति

कोमाराम भीम–आसिफाबाद जिला आदिवासी बहुल है। गोंड, कोलाम और अन्य जनजातीय समुदायों की बड़ी आबादी यहां रहती है। इस समाज की राजनीति की अपनी एक अलग लय है। यहां पंचायत चुनाव को सत्ता की सीढ़ी नहीं, बल्कि सेवा की ज़िम्मेदारी माना जाता है।

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गांव के बुज़ुर्ग अक्सर कहते हैं—“विधानसभा में पार्टी देखी जाती है, पंचायत में आदमी।” दादा गंगाराम की जीत इसी सोच का परिणाम है।

दलों की मौजूदगी और उनकी सीमाएं

इस चुनाव में कांग्रेस, बीआरएस और भाजपा समर्थित उम्मीदवार भी मैदान में थे। कहीं–कहीं संगठन का असर दिखा, लेकिन ज़्यादातर गांवों में यह सवाल हावी रहा—“मुसीबत में कौन काम आएगा?”

दल समर्थित उम्मीदवारों के पास प्रचार सामग्री थी, लेकिन स्थानीय मुद्दों पर उनकी पकड़ कई जगह कमजोर दिखी। इसके उलट दादा गंगाराम ने न किसी दल का खुला विरोध किया और न समर्थन—उन्होंने सिर्फ़ गांव की बात की।

चुनाव परिणाम और लोगों की प्रतिक्रिया

नतीजे सामने आए तो जश्न शोरगुल भरा नहीं था। लोग बस एक–दूसरे से हाथ मिलाते दिखे। यह जीत किसी “उत्सव” से ज़्यादा एक शांत स्वीकृति थी—मानो गांव ने कहा हो कि हमने वही चुना, जो पहले से हमारे साथ था।

जीत का सामाजिक और राजनीतिक अर्थ

यह जीत बताती है कि ग्रामीण लोकतंत्र में व्यक्ति की विश्वसनीयता अब भी सबसे बड़ी पूंजी है। आदिवासी इलाकों में पंचायत चुनाव दलगत राजनीति से अलग एक स्वतंत्र विमर्श रचते हैं।

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प्रशासन और विकास से उम्मीदें

अब जबकि दादा गंगाराम पंचायत की ज़िम्मेदारी संभाल चुके हैं, गांव वालों की अपेक्षाएं भी बढ़ी हैं। सड़क, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं पर तुरंत काम की उम्मीद की जा रही है।

📌 सवाल–जवाब (जानने के लिए क्लिक करें)

दादा गंगाराम की जीत को खास क्यों माना जा रहा है?

क्योंकि यह जीत बिना किसी राजनीतिक दल के समर्थन के, पूरी तरह जनविश्वास और ज़मीनी काम के आधार पर हासिल की गई है।

क्या आदिवासी क्षेत्रों में दलगत राजनीति कमजोर हो रही है?

पंचायत स्तर पर आदिवासी क्षेत्रों में व्यक्ति और सेवा आधारित राजनीति अब भी दलों से अधिक प्रभावी है।

इस परिणाम का आगे की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा?

ऐसे निर्दलीय नेता आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

ग्रामीण मतदाता किस आधार पर निर्णय ले रहे हैं?

ग्रामीण मतदाता अब वादों से ज़्यादा रोज़मर्रा की मौजूदगी, भरोसे और काम को प्राथमिकता दे रहे हैं।

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