✍️ संजय सिंह राणा की खास रिपोर्ट
सरकारी फाइलों और प्रस्तुतियों में सब कुछ संतोषजनक है। आँकड़े बताते हैं कि जिले में 91 प्रतिशत पेयजल उपलब्ध है, नल-जल योजनाएँ सफल हैं और ग्रामीण आबादी “कवर्ड” है। लेकिन जब इन्हीं आँकड़ों के साथ बुंदेलखंड के पाठा इलाके की पथरीली ज़मीन पर कदम रखा जाता है, तो सरकारी दावों की परतें एक-एक कर उतरने लगती हैं। यहाँ पानी का संकट केवल प्राकृतिक नहीं है, यह व्यवस्था की असफलता, पंचायत स्तर पर घपलेबाजी और प्रशासनिक निगरानी के ढह जाने की कहानी भी है।
पाठा का भूगोल और प्यास की स्थायी स्थिति
पाठा इलाका बुंदेलखंड का वह हिस्सा है जहाँ चट्टानी पठार, उथली मिट्टी और तेज बहाव वाला बरसाती पानी मिलकर जल संकट को स्थायी बना देते हैं। बारिश का अधिकांश पानी ज़मीन में उतरने के बजाय बह जाता है। कुएँ जल्दी सूखते हैं, हैंडपंप गर्मी आते-आते जवाब दे देते हैं और नल-जल योजनाएँ कुछ महीनों में ही दम तोड़ देती हैं।

यहाँ पानी केवल संसाधन नहीं, रोज़मर्रा की जद्दोजहद है। महिलाओं और किशोरियों के लिए पानी लाना एक अदृश्य श्रम है—कई किलोमीटर की चढ़ाई, लंबी कतारें और कई बार खाली मटके लेकर लौटना। सरकारी प्रतिशत इन पैरों में पड़े छालों को नहीं मापता।
91% उपलब्धता का सच: कवरेज बनाम वास्तविक आपूर्ति
सरकारी गणना का आधार ‘कवरेज’ है—यदि किसी गांव में एक हैंडपंप या नल दर्ज है तो वह गांव पेयजल उपलब्ध श्रेणी में आ जाता है। लेकिन पानी कितने दिन आता है, कितनी मात्रा में आता है, कितना सुरक्षित है और कितनी दूरी पर है—इन सवालों का जवाब आँकड़ों में नहीं मिलता।

यही कारण है कि काग़ज़ों में 91 प्रतिशत उपलब्धता दिखती है, जबकि पाठा के अनेक गांवों में गर्मियों के महीनों में पानी सप्ताह में एक-दो बार या पूरी तरह बंद हो जाता है। यह अंतर प्रशासनिक आत्मसंतोष और जमीनी हकीकत के बीच गहरी खाई को उजागर करता है।
रीयल केस स्टडी–1: टंकी बनी, उद्घाटन हुआ, पानी कभी आया ही नहीं
पाठा क्षेत्र की एक पहाड़ी ग्राम पंचायत में लगभग 45 लाख रुपये की लागत से ऊँची पानी की टंकी का निर्माण कराया गया। पंचायत रिकॉर्ड में योजना को पूर्ण और सफल दिखाया गया। उद्घाटन के दिन टैंकर से पानी भरकर तस्वीरें ली गईं और फाइलें बंद कर दी गईं।
लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि टंकी से नियमित जलापूर्ति आज तक शुरू नहीं हो सकी। बोरिंग गर्मी में फेल हो गई, पाइपलाइन अधूरी रही और मरम्मत के नाम पर कोई ठोस प्रयास नहीं हुआ। बावजूद इसके, भुगतान पूरा कर लिया गया।
रीयल केस स्टडी–2: एक हैंडपंप, सात बार मरम्मत का भुगतान
एक दूसरी पंचायत में पिछले पाँच वर्षों में एक ही हैंडपंप की मरम्मत सात बार दिखाई गई। हर बार रॉड बदलने, सिलिंडर सुधारने और लेबर चार्ज के नाम पर भुगतान हुआ। ग्रामीणों का कहना है कि हैंडपंप तीन साल से बंद है और किसी ने उसे छुआ तक नहीं।
सूचना के अधिकार के तहत सामने आए दस्तावेज़ बताते हैं कि बार-बार भुगतान एक ही फर्म के नाम हुआ। यह मामला पंचायत स्तर पर फर्जी बिलिंग और निगरानी के पूर्ण अभाव को उजागर करता है।
रीयल केस स्टडी–3: पाइपलाइन काग़ज़ों में तीन किलोमीटर
एक आदिवासी बहुल गांव में पाइप जलापूर्ति योजना के तहत तीन किलोमीटर पाइपलाइन बिछाने का दावा किया गया। भुगतान भी उसी हिसाब से हुआ। लेकिन ज़मीनी जांच में पाइपलाइन मुश्किल से 700–800 मीटर पाई गई। कई पाइप खुले पड़े थे और घटिया क्वालिटी के कारण गर्मी में फट चुके थे।
पंचायत, ग्राम सभा और काग़ज़ी लोकतंत्र
नियमों के अनुसार किसी भी पेयजल योजना से पहले ग्राम सभा की स्वीकृति आवश्यक है। लेकिन पाठा की कई पंचायतों में ग्राम सभा केवल काग़ज़ों में हुई। ग्रामीणों का कहना है कि न तो बैठक हुई, न चर्चा, और हस्ताक्षर बाद में रजिस्टर में जोड़ दिए गए।
जब शिकायतें की गईं तो जवाब मिला—“रिकॉर्ड में सब सही है।” यह जवाब दरअसल उस व्यवस्था का प्रतीक है जहाँ फाइलें सच बोलती हैं और ज़मीन चुप रहने से इनकार करती है।
निष्कर्ष: पाठा में पानी नहीं, व्यवस्था सूखी है
पाठा का जल संकट केवल बारिश की कमी या भूगोल की कठोरता का परिणाम नहीं है। यह संकट उस व्यवस्था का आईना है जहाँ योजनाएँ काग़ज़ों में पूरी होती हैं, भुगतान समय पर हो जाता है, लेकिन पानी नहीं पहुँचता।
91 प्रतिशत उपलब्धता का दावा तब तक खोखला है, जब तक पानी नियमित, पर्याप्त और सुरक्षित न हो। पाठा में पानी नहीं सूखा है—यहाँ निगरानी, ईमानदारी और जवाबदेही सूख चुकी है। और जब तक इन्हें फिर से सींचा नहीं जाएगा, तब तक हर नई योजना एक और सूखी टंकी बनकर रह जाएगी।






